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उदारीकरण से उपजे आर्थिक विकास ने भारत की तस्वीर बदली है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से रहन-सहन में सुधार हुआ तो जीवन प्रत्याशा और औसत आयु में भी अप्रत्याशित सुधार आया। मगर यह विकास नई चुनौतियां लेकर आया है। आज हमारे पास युवाओं की सबसे बड़ी कार्यशील पूंजी है तो दो-तीन दशकों में बुजुर्गो की सबसे बड़ी आबादी की जिम्मेदारी भी हमें ही उठानी होगी। 2010-11 के आंकड़ों के अनुसार 60 साल से ज्यादा उम्र के वृद्धों की तादाद इस वक्त दस करोड़ पार कर चुकी है। हमारे सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर कुपोषण, प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मौत, हर साल पांच साल से कम उम्र के करीब 20 लाख बच्चों की मौत की घटनाओं की चुनौतियों से हमें जूझना है तो वहींबुजर्गो की बढ़ती आबादी की देखभाल, उन्हें सामाजिक और आर्थिक सहयोग की जिम्मेदारी भी हमें उठानी होगी। अकेलेपन से उपजा तनाव कहींउन्हें असमय मौत के गर्त में धकेल न दे, सुख-सुविधाओं की होड़ में हमारे अपने कहींपीछे न छूट जाएं. इस पर गंभीरता से विचार का वक्त आ गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस साल स्वास्थ्य दिवस पर एजिंग ऐंड हेल्थ विषय को ही परिचर्चा का आधार बनाया। आंकड़ों के मुताबिक 2050 में भारत में 30 करोड़ बुजुर्ग होंगे यानी कुल आबादी का करीब 20 फीसद। यहीनहीं2017 तक 65 साल के व्यक्तियों की संख्या उस पांच साल से कम उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी और 2050 में तो यह 0-14 साल तक के बच्चों की कुल संख्या को पार कर जाएगी। यानी हमें नई पौध को तो मुरझाने और कुम्हलाने से बचाना ही है साथ ही ताकत खो रहे वृक्षों को भी टूटने और गिरने से रोकना है।
विकसित देशों के समक्ष ऐसी समस्याएं गंभीर हैं। बुजुर्गो को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा देने के लिए अंधाधुंध खर्च किया जा रहा है मगर संकट सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ही जा रहा है। परिवार को समाज की अटूट इकाई मानने वाली भारतीय संस्कृति को इस समस्या से निपटने का अलग रास्ता तलाशना होगा। भारत में गरीबी की तरह बुजुर्गो की समस्याएं भी शहरी और गरीबी इलाकों में अलग-अलग हैं। ग्रामीण इलाकों में मेल-मिलाप और सामुदायिक सहयोग की वजह से अकेलापन तो नहींहोता, मगर बुजुर्गो की आर्थिक निर्भरता परिवार पर बढ़ जाती है। ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में ही 75 फीसदी बुजुर्ग हैं। जहां की 90 फीसद कार्यशील आबादी असंगठित क्षेत्रमें है। वृद्धावस्था में शारीरिक अक्षमता की वजह से जब ये काम करने लायक नहींरहते हैं तो इनकी आमदनी अचानक बंद हो जाती है। औद्योगिकीकरण की वजह से गांवों-कस्बों के युवाओं को अपने अभिभावकों से दूर जाना पड़ा है। असंगठित क्षेत्र के इन युवा कामगारों को खुद चिकित्सा, स्वास्थ्य बीमा, बेहतर शिक्षा या आवास की सुविधा उपलब्ध नहींहै तो वे अपने मां-बाप को क्या सुविधा देंगे। शहरों की स्थिति भी बेहतर नहीं है जहां बुजुर्ग अभिभावक अकेलेपन और उपेक्षा की त्रासदी झेल रहे हैं। उनका हालचाल लेने, परेशानियां साझा करने और साथ वक्त बिताने वाला कोई नहींहै।
बुजुर्ग दंपतियों के साथ लूटपाट की घटनाएं भी चिंता का विषय हैं। जबकि उन्हें मनोरंजन के लिए टीवी, रेडियो से ज्यादा दरकार हमारे साथ की है। नौकरी के दौरान अतिसक्रिय रहने वाले शख्स को अचानक ही खामोश होना पड़े तो यह मानसिक प्रताड़ना से कम नहींहै। युवा संतानों की अनदेखी उन्हें असमय ही बीमारियों के चंगुल में फंसा देती है। परिवार तो बढ़ते हैं, लेकिन घरों के कमरे तो नहींबढ़ते इसका सीधा असर बुजुर्ग दंपतियों पर ही पड़ता है। उन्हें ऐसी सुविधाएं नहीं मिल पातीं कि वे संयुक्त परिवार की तरह सम्मानपूर्वक जीवन गुजार सकें। शहरों में तो आवास की स्थिति और भी नारकीय है। दुर्भाग्य से वरिष्ठ नागरिकों के लिए सरकार की जितनी कल्याणकारी योजनाएं हैं, भ्रष्टाचार की वजह से ये उनके शोषण का जरिया बन गई हैं।
वृद्धावस्था पेंशन को ही ले लें। जो पात्र हैं भी उन्हें कई महीने धक्के खाने के बाद ही पेंशन नसीब होती है। सबको पेंशन मिल भी नहींरही, क्योंकि सरकार ने तय कर रखा है कि कितनों को पेंशन देनी है। खाद, बीज, किसान क्रेडिट कार्ड, पेंशन जैसे तमाम कामों के लिए बुजुर्ग सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते देखे जाते हैं जहां कोई सीधे मुंह बात नहींकरता। वक्त आ गया है कि सरकार आपके द्वार की नीति लागू की जाए। इसकी शुरुआत बुजुर्गो से हो। उन्हें घर पर ही नागारिक और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिया जाए। कचहरी, जिला मुख्यालय और ब्लाक के चक्कर काटकर उन्हें और न सताया जाए। सरकार को चाहिए कि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पात्रों तक पहुंचाने के लिए कंप्यूटरीकृत आंकड़ों की मदद ले। साठ साल की उम्र पूरी होते ही वृद्धावस्था पेंशन, स्वास्थ्य बीमा या अन्य सामाजिक योजनाओं का लाभ उन्हें स्वत: मिलने लगे। घर पर ही उन्हें पेंशन उपलब्ध कराई जाए। फिर भी कोई समस्या हो तो पंचायत स्तर पर हर महीने खुली बैठक में ही इसका निस्तारण हो जाए। पंचायत और ब्लाक स्तर के अधिकारियों को इसका जिम्मा सौंपा जाए। उन्हें ब्लाक या जिला मुख्यालय का चक्कर न लगाना पड़े। वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक यूनीवर्सल हेल्थ कार्ड स्कीम हो ताकि उन्हें समय पर मुफ्त इलाज मिल सके। यदि हम फादर्स डे के अवसर पर यह संकल्प लें कि हम अपने बुजुर्गो के प्रति किसी तरह का अन्याय नहीं होने देंगे, उनकी हरसंभव मदद करेंगे तभी इसका महत्व है।
इस आलेख के लेखक अमरीश त्रिवेदी हैं
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