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हाल के कुछ प्रसंगों से पंथनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े होते देख रहे हैं कुलदीप नैयर
नरसंहार इतिहास में दफन हो जाते है, किंतु उनकी स्मृतियां हमें भयाक्रांत करती रहती है। संवेदना के तार झनझनाता संगीत, अंधेरे में मोमबत्तियों की टिमटिमाती लौ और चेहरों पर छलकती पीड़ा फिर से त्रासदी के इतिहास के दरवाजे खोल देती है। इस बीच अगर कुछ ठोस साक्ष्य मिल जाते है तो ये हमें लाचारी का ही बोध कराते है। इस सप्ताह दो ऐसी घटनाएं हुई जो मुझे गुजरात और दिल्ली में मची मारकाट में वापस ले गई। गुजरात दंगों में चश्मदीद गवाह नदीम सईद की अहमदाबाद की एक सड़क पर हत्या कर दी गई। उधर, दिल्ली में इंडिया गेट पर हजारों लोगों ने दंगों में मारे गए सिखों की याद में मोमबत्तियां जलाई। दोनों घटनाओं का आपस में कोई सीधा संबंध नजर नहीं आता, किंतु गहराई से देखें तो उनके बीच कुछ साझा सूत्र जरूर है। दोनों ही घटनाएं बताती है कि गुजरात में मुसलमानों और दिल्ली में सिखों के नरसंहार में सरकारों का हाथ था। इससे भी त्रासद यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान की भागीदारी के तमाम सुबूत मिटा दिए गए है। रिकॉर्ड नष्ट कर दिया गया, एफआइआर की कॉपी फूंक दी गई है और आज तक भी लुटेरों, हत्यारों और दुष्कर्मियों को सरकारे बचाने में सहयोग कर रही है। यही नहीं, इनके खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ सरकारे सख्ती से पेश आ रही है। नदीम की हत्या इसलिए कर दी गई, क्योंकि वह सरकार के दबाव में नहीं आया। उसे अपनी मौत का अंदेशा था और इसीलिए वह और अधिक सुरक्षा की मांग कर रहा था, किंतु उसकी मांग पूरी नहीं की गई।
एक अन्य चश्मदीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने भी अपने व परिवार के लिए अधिक सुरक्षा की मांग की है और उसकी मांग पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भट्ट ने यह कहने का साहस दिखाया कि वह उस बैठक में शामिल थे जिसमें मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी ने कहा था कि हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने दिया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि नरेद्र मोदी मुसलमानों को सबक सिखाना चाहते थे। गुजरात आइपीएस एसोसिएशन को सलाम कि उसने भट्ट का साथ दिया, किंतु मोदी ने कड़ा रुख अपना लिया। सवाल उठता है कि उच्चतम न्यायालय के दखल के बावजूद सन 2002 से दोषियों को सजा क्यों नहीं मिल पाई है? विडंबना यह है कि जब नदीम की हत्या हुई तब भ्रष्टाचार के विरोध में लालकृष्ण आडवाणी का रथ गुजरात में ही मौजूद था और वह गुजरात में ‘शानदार शासन’ के लिए मुख्यमंत्री की पीठ थपथपा रहे थे।
दिल्ली के इंडिया गेट पर कैंडल लाइट प्रदर्शन के दौरान मेरी निरप्रीत कौर से बातचीत हुई। 2 नवंबर, 1984 को वह 16 साल की थी। उसके घर के बगल में दक्षिण दिल्ली के राज नगर स्थित गुरुद्वारे में साढ़े चार सौ लोगों की उन्मादी भीड़ ने आग लगा दी थी तथा नरसंहार के लिए और सिखों की तलाश कर रही थी। निरप्रीत बताती है कि युवक कांग्रेस का एक नेता हिसाब चुकता करने के लिए उनके पिता के पास आया। एक दिन पहले ही जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दिए जाने के बाद देश में सिखों के खिलाफ दंगे भड़क गए थे तब इसी नेता ने कसम खाई थी कि वह उन्हे हिंसा से बचाएगा। उनके पिता को लेकर युवक नेता सीधे भीड़ में गया और निर्मल सिंह को भीड़ के हवाले कर दिया। तीनों बच्चों में सबसे बड़ी निरप्रीत रोते-गिड़गिड़ाते अपने पिता के प्राणों की भीख मांगती रही, किंतु देखते ही देखते भीड़ ने निर्मल सिंह के हाथ बांधकर उन्हे जिंदा जला दिया। इसके बाद परिवार सुरक्षित स्थान पर चला गया। जब वे लौटे और अंतिम संस्कार के लिए निर्मल सिंह की अस्थियां लेने वहां पहुंचे तो देखा कि उस स्थान को झाड़-पोंछकर साफ कर दिया गया था। अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए बिना सोचे-विचारे निरप्रीत सिंह खालिस्तान आंदोलन से जुड़ गई और नवंबर 1985 को एक आतंकवादी से शादी कर ली। शादी के 12 दिन बाद ही दिल्ली पुलिस ने उसके पति को उठा लिया। इसके बाद से उसकी कोई खबर नहीं मिली। निरप्रीत को भगौड़ा घोषित कर दिया गया। वह भूमिगत हो गई। दिसंबर 1986 में निरप्रीत की मां संपूरण कौर को एक आतंकवादी को शरण देने के आरोप में तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। अपनी गिरफ्तारी के समय तक उन्हे अपनी बेटे के क्रियाकलापों की कोई जानकारी नहीं थी।
निरप्रीत की कहानी जाकिया जाफरी से अलग नहीं है, जिनके पति को अहमदाबाद में उनके ही घर में टुकड़े-टुकड़े कर जला दिया गया। वह कांग्रेस के पूर्व सांसद थे। यहां तक कि दिल्ली में उनके संपर्क होने और उन्हे फोन करने के बावजूद उनकी कोई मदद नहीं की जा सकी। उस इलाके के और भी बहुत से लोगों ने जाफरी के घर में शरण ले रखी थी। इन सबको जिंदा जला दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई निचली अदालत में करने का आदेश दिया। यह उचित नहीं कहा जा सकता। अदालत को मुख्यमंत्री की भूमिका पर भी कुछ कहना चाहिए था। आखिरकार, मोदी के खिलाफ भट्ट का शपथपत्र कुछ टिप्पणियों की मांग तो करता ही है। संजीव भट्ट को सेवा से निलंबित कर दिया गया है। विशेष जांच दल और अदालत की मदद कर रहे वकील ने कुछ रिपोर्ट सौंपी है। उच्चतम न्यायालय को इन रिपोर्टो का संज्ञान लेना चाहिए था, क्योंकि इन दोनों का जनक सुप्रीम कोर्ट ही है।
इसके अलावा बहुत से मामलों में इसलिए कार्रवाई नहीं हो पा रही है, क्योंकि ये बहुत पुराने है। करीब 17 साल पहले मेरठ के मलियाना में नरसंहार हुआ था। यह उत्तर प्रदेश की अदालतों में अटका हुआ है, क्योंकि ऊपरी अदालत में कोई अपील दाखिल नहीं की गई है। इसी प्रकार मालेगांव विस्फोट मामला है। इससे पता चलता है कि बम विस्फोट के बाद पुलिस मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर काम करती है। 2006 में मालेगांव विस्फोट के बाद नौ मुसलमानों को गिरफ्तार कर लिया गया था। बाद में स्वामी असीमानंद की स्वीकारोक्ति से पता चला कि वे नौ आरोपी बेगुनाह है और इस विस्फोट में दक्षिणपंथी हिंदुओं का हाथ है। पिछले दिनों सभी आरोपियों को जमानत मिल गई, लेकिन क्या यह न्याय की मांग नहीं है कि उन्हे गैरकानूनी रूप से बंदी बनाने का मुआवजा दिया जाना चाहिए। आखिरकार उन्हे गलत तरीके से मामले में फंसाया गया और उनके साथ-साथ उनके परिवार के साथ भी आतंकवादी का तमगा जुड़ गया। असल में, भारत एक बहुलवादी देश है और इसे पूरी तरह पंथनिरपेक्ष बनने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है। फिलहाल तो इस दिशा में चलते हुए सरकार के कदम डगमगाता नजर आ रहे है।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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