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महिला और पुरुष दोनों को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून बनाने की आवश्यकता है, लेकिन सवाल यह है कि दोनों के लिए एक ही कानून बने या महिलाओं एवं पुरुषों की विशेष स्थिति के अनुरूप अलग-अलग कानून बनाया जाए। जेंडरन्यूट्रल यानी जेंडर से स्वतंत्र यौन उत्पीड़न विरोधी कानून की बात लंबे समय से चलती आ रही है। विशेषकर यौनिक हिंसा के संदर्भ में। दरअसल, जेंडरन्यूट्रल कानून बनाने का सुझाव मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति ने अपनी तरफ से दिया है जिसे ेलेकर एक नई बहस शुरू हो गई है। पिछले दिनों संबंधित संसदीय समिति ने सरकार को सुझाव दिए हैं कि पुरुषों को भी यौन उत्पीड़न के मामले में महिलाओं जैसा ही संरक्षण मिलना चाहिए। यह समिति कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न विरोधी विधेयक की पड़ताल कर रही है। उसने सरकार को इस संबंध में एक रिपोर्ट सौंपी है। कुछ पुरुष संगठनों ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न विरोधी कानूनों में महिला विरोधी शब्द जुड़े होने का विरोध किया है। इस संदर्भ में समिति ने सरकार को सुझाव दिया है कि पुरुषों के यौन उत्पीड़न का नियमित सर्वेक्षण हो तथा पीडि़त पुरुष कर्मचारी को कानून का संरक्षण मिले। नियोक्ता प्रतिष्ठान की वार्षिक रिपोर्ट में पुरुषों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों को भी शामिल किया जाए। समिति द्वारा सरकार को दिया गया यह सुझाव काफी महत्वपूर्ण है, जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। आखिर पीडि़त कोई भी क्यों न हो उसे न्याय मिलना ही चाहिए और पुरुष भी पीडि़त हैं इस हकीकत से आज के समय में किसी को भी इनकार नहीं हो सकता है।
विधि विशेषज्ञों की जिम्मेदारी बनती है कि इस संदर्भ में पुरुष हितों का भी संरक्षण करने का उपाय करें। पुरुषों द्वारा पुरुषों के यौन उत्पीड़न की घटनाएं भी अब प्रकाश में आने लगी हैं और पूरी तरह संभव है कि कहीं-कहीं उत्पीड़क की भूमिका में महिलाएं भी शामिल हों। अभी तक पुरुष पीडि़तों को धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध के अपराध के तहत मुकदमा दर्ज करने की बात थी। यह धारा अपने आप में विवादास्पद रही है जिसे पिछले साल उच्च अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में गैर कानूनी ठहराया था तथा सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर मामला विचाराधीन है। हालांकि यहां हम उस कानून से उपजी बहस पर अपने आप को केंद्रित नहीं करेंगे। यहां इस मुद्दे पर चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा कि महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न और पुरुषों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न से एक ही ढंग से नही निपटा जा सकता है। एक तो महिलाएं जितनी बड़ी संख्या में हैं और जितने व्यापक रूप में हमारे समाज में पीडि़त हंै उतने पुरुष नहीं। महिलाओं की कमजोर सामाजिक स्थिति उन्हें आसानी से शिकार बनाती है। दूसरी बात महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन हिंसा के तहत बलात्कार को काफी संकीर्ण और सीमित दायरे में रखा गया है।
कानूनन पुरुषों द्वारा औरत के साथ होने वाले यौन अत्याचार को ही बलात्कार की श्रेणी में माना जाता है, लेकिन यह काफी सीमित परिभाषा है, जिसे व्यापक करने की मांग अब काफी पुरानी हो चुकी है। यदि बलात्कार कानून में बदलाव किया जाता है और अन्य प्रकार के जोर जबरदस्ती को भी इसके अंतर्गत लाया जाता है तो पीडि़त को न्याय मिलने की गुंजाइश ज्यादा होगी। यहां कहने का तात्पर्य यही है कि हमारे देश में बलात्कार के मामले को औरत और पुरुष के संदर्भ में अलग-अलग करके देखने की जरूरत है। हालांकि सामाजिक रूप से उपेक्षा और लांछन पुरुष पीडि़तों को भी झेलना पड़ सकता है, लेकिन महिलाओं को संभावित पीडि़त के रूप में पुरुषों की बनिस्पत कहीं ज्यादा माना जा सकता है। महिलाओं में इस भय का बने रहना कि स्वयं को ऐसी किसी अनहोनी से बचाना है एक ऐसी मनोदशा है, जो पुरुषों को शायद ही होती है। हर पुरुष संभावित पीडि़त नहीं होता जबकि हर महिला संभावित पीडि़त होती है। इस सूक्ष्म अंतर को पूरे मसले पर विचार करते समय गंभीरता से समझना होगा। यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि युवक-युवतियों के साथ पिछले एक दशक से अधिक समय से एक काउंसलर तथा प्रशिक्षणकर्ता की भूमिका में मैंने कुछ देखा-समझा है। मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि यह समस्या जितनी समझी जाती है, उससे कहीं बहुत ज्यादा व्यापक है। यह अलग बात है कि समाज के पुरुष प्रधान ढांचे और पुरुषवादी सोच के चलते पीडि़त युवक अपने साथ हुई ऐसी घटनाओं के बारे में बहुत कम बोलते हैं। अगर हम पश्चिमी देशों की बात करें, खासकर डेनमार्क, ब्रिटेन, आयरलैंड, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, स्पेन, नीदरलैंड आदि देशों के अलावा दुनिया के कई देशों में बलात्कार विरोधी कानून जेंडरन्यूट्रल ही हैं। इतना ही नहीं वहां भाषा को भी अधिक से अधिक जेंडरन्यूट्रल बनाने की कोशिश चलती रहती है।
यह भी कहा जा सकता है कि विदशों के उदाहरणों से ही हमारे यहां के कानून को जेंडरन्यूट्रल बनाने की मांग तेज हुई है। अगर हम जेंडरन्यूट्रल कानून से जुड़ी बहस को आगे बढ़ाएं तो यह भी पा सकते हैं कि हमारे यहां अधिकतर कानून फिर चाहे प्रॉपर्टी के अधिकार के हों या तलाक संबंधी हों, वह स्त्री के खिलाफ लिंग पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। यदि हम दूसरे कोण से देखने की कोशिश करें तो यह कोई जरूरी नहीं है कि कानून को जेंडर न्यूट्रल बनाया गया तो उससे महिलाओं को अनिवार्य रूप से नुकसान ही होगा। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि इसे लागू करते समय महिलाओं की विशेष परिस्थिति को ध्यान में रखा जाता है या नहीं। महिलाओं के साथ यौन हिंसा के मामलो में पुरुष प्रधान मानसिकता तथा पौरुष सत्ता भी एक कारण है जबकि पुरुष पीडि़तों के मामले में किसी न किसी प्रकार का ओहदा, सत्ता या दबंगई हो सकती है। आमतौर पर देखा गया है कि अपने से छोटे या कमजोर लोगों अथवा बच्चों के मामले में ही ज्यादातर यौन हिंसा का शिकार होने के मामले प्रकाश में आते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि बराबर की हैसियत वाला पुरुष कर्मचारी दूसरे किसी को उतनी आसानी से अपना पीडि़त नहीं बना सकता, जबकि बराबर की हैसियत वाले पुरुष और स्त्री के बीच इस तरह की घटनाओं के होने की आशंका अपेक्षाकृत कहीं अधिक होती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी जहां महिलाएं अधिक मजबूत सामाजिक, आर्थिक स्थिति में है वहां भी स्त्री-पुरुष के बीच अंतर देखने को मिलता है। इतना ही नहीं अध्ययन बताते हैं कि दोनों के पीडि़त होने की स्थिति में भी भारी अंतर होता है। जहां हर पांचवी अमेरिकी महिला बलात्कार की शिकार होती है, वहीं हर 71वां पुरुष भी बलात्कार का शिकार होता है। इससे साफ है कि पुरुष भी यौन अत्याचार के शिकार हो सकते हैं और इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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