- 1877 Posts
- 341 Comments
पिछले दिनों इलाहाबाद के राजकीय बालगृह में मासूम बच्चियों के साथ दूराचार की बात हो या बेंगलूर की तीन महीने की आफरीन के साथ उसके बाप की जुल्म-ज्यादती की, ये दोनों ही घटनाएं समाज को झकझोर देने वाली हैं। ये घटनाएं केवल एक व्यक्ति या कुछ लोगों की घिनौनी कारस्तानी और नीचता की पराकाष्ठा नहीं है, बल्कि यह हमारे समूचे सामाजिक तंत्र की विद्रूप सोच और अस्थिर चरित्र की घटिया बानगी भी है। ये घटनाएं इस बात की तस्दीक करती हैं कि हम सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए भी अभी तक आदिम समाज से चली आ रही जड़ता, मूल्यहीनता और लंपट चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। यह कम खौफनाक नहीं है कि जिन लोगों के कंधे पर निराश्रित बच्चियों की जिंदगी और आबरू की रक्षा का उत्तरदायित्व है, वे मानवीय संवेदना को भूल नरपिशाच की भूमिका में आ खड़े हुए हैं। सवाल सिर्फ बालगृहों में बच्चियों को दी जाने वाली यातनाएं और उनके साथ किए जाने वाले दुराचारों तक ही सीमित नहीं है।
जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है, जहां दिल दहलाने वाली इस तरह की अघोरतम घटनाएं देखने-सुनने को न मिल रही हों। समानता के दावे और कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद अगर महिलाओं-बच्चियों पर होने वाले अत्याचारों में कमी नहीं आ रही है तो मतलब साफ है कि कानून का अनुपालन ठीक से नहीं हो रहा है। किंतु कानून को ही दोषी ठहराकर हम अपने सामाजिक दायित्वों से बच नहीं सकते हैं। महिलाएं, बच्चियों की आबरू की रक्षा की जिम्मेदारी समाज की भी है, लेकिन दुर्भाग्य है कि सरकार और समाज दोनों ही अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन नहीं कर रहे हैं। समाज की सबसे छोटी ईकाई परिवार है। पर विडंबना देखिए कि महिलाओं और बच्चियों के साथ सर्वाधिक भेदभाव और अत्याचार की घटनाओं का सबसे बड़ा केंद्र परिवार बनता जा रहा है। भारतीय पुरुष समाज की बर्बरता का ही आलम है कि बच्चियों की तस्करी की जा रही है और धड़ल्ले से उन्हें वेश्यावृत्ति जैसे अमानवीय कृत्यों में झोंका जा रहा है। सिर्फ कहने को है कि महिलाएं सड़कों औरन् सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षित नहीं है।
सच तो यह है कि वह अपने घर-परिवार और रिश्ते-नातों की जद में भी सुरक्षित नहीं हैं। महिलाएं और बच्चियां अपने ही सगे-संबधियों द्वारा दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं और सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से अपना मुंह बंद रखने को मजबूर होती हैं। नतीजा यह निकलता है कि पाशविक और बर्बर आचरण वाले समाजद्रोही पाप के दंड से बच निकलते हैं। दो साल पहले सरकार की ओर से जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2009 में रिश्तेदारों द्वारा यौन शोषण किए जाने की वारदातों में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। हैरत की बात यह है कि दुष्कर्म की घटनाओं में तकरीबन 95 फीसदी मामलों में पीडि़त लड़की दुष्कर्मी को अच्छी तरह जानती-पहचानती है। फिर भी उसके खिलाफ अपना मुंह नहीं खोलती है। शायद उसे भरोसा ही नहीं होता है कि कानून और समाज उसे दंडित कर पाएगा। निस्संदेह यह स्थिति हमारी कानून-व्यवस्था और समाज को मुंह चिढ़ाने के साथ एक बड़ी चुनौती है।
देश में कानून का शासन होने के बाद भी महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अब तो शिक्षा के केंद्र भी इस तरह की घटनाओं से अछूते नहीं रह गए हैं। गुरु-शिष्य के रिश्ते कलंकित होने लगे हैं। अभी पिछले साल ही जबलपुर में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में महिला डॉक्टरों के साथ यौन दुराचार का मामला प्रकाश में आया था। देश के अन्य शैक्षणिक संस्थानों में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं घट रही हैं। राजधानी दिल्ली जिसे सर्वाधिक सुरक्षित कहा जाता है, वह महिलाओं और बच्चियों के लिए खौफ का शहर बनती जा रही है। यहां हालात और बदतर हैं। हर रोज बलात्कार की खबरें सुर्खियां बन रही हैं। बेचैन करने वाली बात यह है कि दुष्कर्म की घटनाओं में माननीयगणों की भी संलिप्तता देखी जा रही है, जिनके कंधों पर देश और समाज को एक नई दिशा देना होता है। पर अफसोस है कि आज कई माननीय दुष्कर्म के आरोप में जेल की सलाखों के पीछे खड़े हैं और बहुतेरों पर कानून का शिकंजा कसा जाना अभी बाकी है। किंतु इस स्थिति में सुधार तब आएगा, जब कानून अपना काम त्वरित गति से करेगा और दोषियों को अतिशीघ्र सजा मिलेगी।
अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Hindi News
Read Comments