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सिंगुर विवाद का सबक

जागरण मेहमान कोना
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Kripa shankarपश्चिम बंगाल के हुगली जिले में स्थित सिंगुर फिर संघात का केंद्र बन गया है। राज्य सरकार सिंगुर के अनिच्छुक किसानों की जमीन वापस लौटाने पर दृढ़ता से कायम है तो टाटा समूह नैनो कारखाने के लिए लीज पर मिली सिंगुर की 997.11 एकड़ जमीन पर कब्जा बनाए रखने के लिए कानूनी जंग शुरू कर चुका है। टाटा मोटर्स ने कोलकाता हाईकोर्ट में याचिका दायर कर सिंगुर की जमीन किसानों को लौटाने की सरकारी प्रक्रिया पर स्थगनादेश मांगा था। कोलकाता हाईकोर्ट ने 27 जून को यह स्थगनादेश देने से मना कर दिया तो टाटा मोटर्स ने 28 जून को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर जमीन लौटाने की सरकारी प्रक्रिया पर स्थगनादेश मांगा। सुप्रीम कोर्ट ने 29 जून को मामले की सुनवाई करते हुए कोलकाता हाईकोर्ट से एक महीने के भीतर टाटा की याचिका पर फैसला सुनाने का आग्रह किया और कहा कि तब तक सिंगुर की जमीन किसानों को न लौटाई जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के फलस्वरूप सिंगुर में किसानों को जमीन देने की प्रक्रिया माहभर के लिए टल गई है। सिंगुर के जिन दो हजार नौ सौ किसानों की 400 एकड़ जमीन जबरन ली गई थी, उसे उन्हें वापस करने के लिए ममता बनर्जी की सरकार ने बाकायदा बंगाल विधानसभा में सिंगुर पुनर्वास व विकास अधिनियम 2011 पारित कराया|


टाटा मोटर्स की इस कानूनी लड़ाई का लक्ष्य साफ है कि उसे हर्जाने के रूप में मोटी रकम मिले अथवा सिंगुर मसला कानूनी पचड़े में फंस जाए और अपनी जमीन वापस पाने की आस लगाए हुए छोटे किसानों का मनोबल टूटता चला जाए। राज्य सरकार का कहना है कि जिस उद्देश्य के लिए टाटा मोटर्स को सिंगुर की जमीन दी गई थी, उसकी कोई पूर्ति तीन साल से नहीं हो रही थी, इसलिए अधिनियम बनाकर वह जमीन वापस ले ली गई। जहां तक टाटा समूह को हर्जाना देने का सवाल है, राज्य सरकार का कहना है कि सिंगुर में तो राज्य सरकार का भी काफी आर्थिक नुकसान हुआ है।


टाटा को सिंगुर की 650 एकड़ जमीन (बाकी जमीन उसकी 54 अनुषंगी इकाइयों को दी गई) महज सोलह हजार रुपए प्रति एकड़ वार्षिक भाड़े पर दी गई है। स्वेच्छा से जमीन देने वाले किसानों को भारी राशि सरकार ने चुकाई। सरकार और ज्यादा नुकसान क्यों सहेगी? ममता ने स्पष्ट कर दिया कि जमीन के मामले में उनकी प्रतिबद्धता किसानों के प्रति है। लेकिन इसका आशय यह नहीं कि वे उद्योग की विरोधी हैं। ममता औद्योगिक विकास की हिमायती तो हैं पर कृषि की कीमत पर नहीं। उनकी सरकार की नीति है कि जबरन अधिग्रहण नहीं किया जाएगा और निजी औद्योगिक इकाइयों को जमीन सीधे किसानों से खरीदनी होगी। इस नीति में भी हम कृषि और जमीन के सवाल पर ममता की बेचैनी का अंदाजा लगा सकते हैं। बंगाल में 1977 में ज्योति बसु की सरकार बनी तो उसमें भूमि सुधार मंत्री रहे माकपा नेता विनय कृष्ण चौधरी ने भूमि सुधार कार्यक्रम लागू किए और अनेक खेतिहर मजदूरों-भूमिहीनों को जमीन दिलाई। दरअसल, विनय कृष्ण चौधरी तेलंगाना के संघर्ष से लेकर नक्सलबाड़ी आंदोलन के साक्षी रह चुके थे।


सत्तर के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी में भी जो आंदोलन शुरू हुआ था, उसके मूल में भी किसान ही थे। इस बीच, टाटा समूह की कानूनी लड़ाई के खिलाफ सिंगुर के किसान फिर आंदोलन पर उतर आए हैं। सिंगुर के किसान आंदोलन को बल्कि देश के दूसरे हिस्सों मसलन महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में चल रहे किसान आंदोलनों को तेलंगाना, भूदान व नक्सलबाड़ी आंदोलनों की कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।


यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन किसान आंदोलनों के जारी रहने की ठोस वजह हैं। आजादी के 64 वषरें बाद भी देश के कई जिले किसानों के लिए सुसाइड जोन बने हुए हैं। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि किसान की स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार नहीं आया है। यह सुधार तभी आएगा जब केंद्र व राज्य सरकारें किसानों की हितचिंता करें और ममता बनर्जी की तरह सिंगुर जैसा विधेयक लाने का साहस दिखाएं। इस संदर्भ में केंद्र व राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी सताशिवम और न्यायमूर्ति एके पटनायक के 27 जून के उस मंतव्य से भी सबक लेना चाहिए जो उन्होंने ग्रेटर नोएडा में खेती की जमीन के अधिग्रहण के मामले में सुनवाई के दौरान प्रकट किए।


उद्योग लगाने या आवासन परियोजनाओं के लिए खेती की जमीन का अधिग्रहण किए जाने पर जाहिर है कि किसानों और खेत मजदूरों में असंतोष बढ़ेगा। इसी को ध्यान में रखते हुए इस बेंच ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अन्य राज्यों में भी और नंदीग्राम नहीं बनने देगा। इसे रोकने के लिए जरूरत पड़ी तो अदालत हस्तक्षेप करने से गुरेज नहीं करेगी। न्यायमूर्तियों के मंतव्य का एक मात्र संदेश यह है कि केंद्र व राज्यों की सरकारें गांव की रक्षा करें, किसान की रक्षा करें क्योंकि खेती बचेगी, तभी देश बचेगा।


लेखक कृपाशंकर एक वरिष्ठ पत्रकार हैं।



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