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दोहरी मंदी की दस्‍तक

जागरण मेहमान कोना
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स्‍पेनी डुएंडे ने अमरिकी ब्‍लैकबियर्ड घोस्‍ट (दोनो मिथकीय प्रेत) से कहा .. अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्‍म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है। … यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर अब हॉरर फिल्‍में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (ग्रोथ में लगातार गिरावट) हुआ  है। स्‍पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही  है अमेरिका में  ग्रोथ गायब है। यानी कि देखते देखते चार साल (2008 से) बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ, के बावजूद दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्‍तक दे रही है। पिछले साल की शुरुआत से ही विश्‍व बाजार यह सोचने और भूल जाने की कोशिश में लगा था कि ग्रोथ दोहरा गोता नहीं लगायेगी। मगर अब डबल डिप सच लग रहा है। अर्थात मंदी के कुछ और साल। क्‍या एक पूरा दशक बर्बाद होने वाला है।

 

 स्‍पेन में कई आयरलैंड

 स्‍पेन की हकीकत सबको मालूम थी  मगर कहे कौन कि यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थवयवस्‍था दरक रही है। इसलिए संकट के संदेशवाहकों (स्‍टैंडर्ड एंड पुअर रेटिंग डाउनग्रेड) का इंतजार किया गया। स्‍पेन का बहुत बड़ा शिकार है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मिलाइये और फिर उन्‍हें दोगुना कीजिये। इससे जो हासिल होगा वह स्‍पेन है। इसलिए सब मान रहे थे कि कुछ तो ऐसा होगा जिससे ग्रीस और आयरलैंड, स्‍पेन में नहीं दोहराऐ जाएंगे। मगर अब यह साबित हो गया कि प्रापर्टी, बैंक और कर्ज की कॉकटेल में स्‍पेन दरअसल आयरलैंड का सहोदर ही नहीं है वरन वहां तो कई आयरलैंड हैं। स्‍पेन में प्रॉपर्टी का बुलबुला फूट गया है। कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। यूरोप का सबसे बड़े मछलीघर (एक्‍वेरियम) और सिडनी जैसा ऑपेरा हाउस से लेकर हॉलीवुड की तर्ज पर मूवी स्‍टूडियो सजा स्‍पेनी शहर वेलेंशिया देश पर बोझ बन गया है। वेंलेंशिया में 150 मिलियन यूरो की लागत वाले एक एयरपोर्ट को लोग बाबा का हवाई अड्डा (ग्रैंड पा एयरपोर्ट) कहते हैं। बताते हैं कि स्‍पेन के कैस्‍टेलोन क्षेत्र के नेता कार्लोस फाबरा ने इसे उद्घाटन के वक्‍त अपने नाती पोतों से पूछा था कि बाबा का हवार्इ अड्डा कैसा लगा। भ्रष्‍टाचार के आरोपों में घिरे फाबरा के इस हवाई अड्डे पर अब तक वाणिज्यिक उड़ाने शुरु नहीं हुई हैं।  बैंक, प्रॉपर्टी, राजनीति की तिकड़ी स्‍पेन को डुबा रही है।  प्रॉपर्टी बाजार पर झूमने वाले कई और दूसरे शहरों में भी दुबई और ग्रेट डबलिन (आयरलैंड) की बुरी आत्‍मायें दौड़ रही हैं। स्‍पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डों व शॉपिंग काम्‍प्‍लेक्‍स और बीस लाख से ज्‍यादा मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्‍पेनी बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। अगर स्‍पेन अपने बैंकों को उबारता है तो खुद डूब जाएगा क्‍यों कि देश पर 807 अरब यूरो का कर्ज है, जो देश के जीडीपी का 74 फीसद है। युवाओं में 52 फीसद की बेरोजगारी दर वाला स्‍पेन बीते सप्‍ताह स्‍पष्‍ट रुप से मंदी में चला गया है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे जयादा बैंकिंग संकट) देखने वाला स्‍पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर है।  प्रसिद्ध स्‍पेनी कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था कि दुनिया के किसी भी देश ज्‍यादा मुर्दे स्‍पेन में जीवित हैं। इसलिए स्‍पेन की खबर सुनकर यूरोप में दोहरी मंदी की आशंका को नकारने वाले  पस्‍त हो  गए है।

 

डबल डिप 

 जी20 की कोशिशें, नेताओं की कवायद, बैंकों का सस्‍ता कर्ज कुछ भी काम नहीं आया। यूरोप में डबल डिप यानी दोहरी मंदी के प्रमाण चीखने लगे हैं। एक मंदी ने चार  साल में जितना मारा है उसका दोहराव कितना मारक होगा सोचकर दुनिया कांप उठी है। पूरे यूरोप का जीडीपी इस साल करीब 0.3 फीसदी घटेगा। ब्रिटेन 1975 के बाद पहली बार दोहरी मंदी में गया है। स्‍पेन की ग्रोथ में लगातार  दूसरी गिरावट हुई  है। ग्रीस की ग्रोथ करीब 4.4 फीसदी घटेगी। जर्मनी और फ्रांस में भी गिरावट तय है यानी कि  यूरोप डबल डिप में घिर चुका है। यूरोपीय आयोग ने बड़े दो टूक लहजे में कहा कि स्ंप्रभु कर्ज, कमजोर वित्‍तीय बाजार और उत्‍पादन में कमी का दुष्‍चक्र टूट नहीं पा रहा है। दुनिया के अर्थशास्‍त्री दूसरी मंदी को कुछ दूसरी ही निराशा के साथ देख रहे हैं। तकनीक, पूंजी और तमाम उपायों के बावजूद अब लगभग चार साल बीत गए हैं और मंदी थमी नहीं है। बलिक यह बेहद जटिल और लंबी हो चली है। 2008 की शुरुआत में सरकारों ने बाजार में पैसा झोंका ताकि मांग पैदा हो सके मगर उससे घाटे बढ गए तो यूरोप से लेकर अमेरिका तक खर्च काटे जा रहे हैं। सरकारों को लग रहा है मुसीबत वित्‍तीय तंत्र से बाहर कहीं है क्‍यों कि दुनिया की कई अर्थव्‍यव्‍स्‍थाओं में मांग खत्‍म हुए करीब पांच साल बीत रहे हैं। मगर वापसी का रास्‍ता नहीं दिखता। … दुनिया को उबारने के लिए विकलपों की इतनी किल्‍लत अभूतपूर्व है।  2008 से 2012 के बीच यकीनन कुछ नहीं बदला है। तब का अमेरिका और दुबई, 2010 का आयरलैंड और आज का स्‍पेन लगभग एक जैसे हैं।  प्रॉपर्टी बाजार, सस्‍ती पूंजी, लालची बैंक राजनीतिक भ्रष्‍टाचार का व्‍यंजन तब से लगातार मंदी की आंच पर पक रहा है। मंदी की लपटें भी 2008 जैसी ही हैं। दुनिया अपने सबसे शानदार हथियारों के साथ 2008 में मंदी के चक्रव्‍यूह में उतरी थी। बड़े बैंक, ढेर सारी पूंजी, हजार तरह की तकनीक, कई संस्‍थायें मिलकर यह कह रही थीं कि मंदी बस यूं जाएगी। लेकिन बैंक बचाने के बजाय डुबाने लगे। तकनीक काम नही आई। संस्‍थायें भटकाने लगीं और नेता नाकारा साबित हुए। 1930 जैसे हालात याद करते हएु आर्थिक प्रबंधन के मॉडल को बदलने की बहस (अर्थशास्‍त्री पॅाल कुर्गमान की नई किताब- एंड दिस डिप्रेशन नाउ) शुरु हो रही है)  ग्रोथ और मांग की चिंता घाटे और महंगाई के सिद्धांतो पर भारी पड रही है। दुनिया की सरकारें फिर अर्थव्‍यवस्‍था में पैसा झोंक कर मांग बढाने की जुगत में हैं। दोहरी मंदी से निबटने के लिए सोच का डिब्‍बा तोड़ने की हांक लगने लगी है। मगर भारत तो सियासत की अफीम पीकर सुन्‍न पड़ा है। दौड़ती ग्रोथ को सरकार ने ही टंगड़ी मार दी है। गठबंधन की मजबूरियां हमारा राष्‍ट्रीय विपत्ति गीत हैं। आर्थिक संकट तो नीतिगत बहस से ही बाहर है। पूरी विकसित दुनिया जब नई मंदी में घिरेगी तो क्‍या हम बचे रहेंगे??

 

इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं.

 

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