Menu
blogid : 5736 postid : 664

अन्ना की मुहिम पर बेजा सवाल

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Raj Kishoreपिछली बार की तरह इस बार भी अन्ना हजारे के आलोचक कुछ ठिठकते हुए और कुछ नाजो-अदा के साथ सामने आने लगे हैं। अन्ना द्वारा अनशन शुरू करने के पहले, देश भर में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार की शिकायत सभी करते थे, लेकिन इसे रोका कैसे जाए यह बताने वाला कोई नहीं था। न ही किसी व्यक्ति या समूह ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई सक्षम अभियान चलाया था। आज जो लोग अन्ना की आलोचना करते हुए फूले नहीं समा रहे हैं वे भी अपने विद्वत्तापूर्ण लेखों में यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि अगर अन्ना का रास्ता गलत है या नाकाफी है तो दूसरा तरीका क्या हो सकता है? मैं तो कहूंगा कि ऐसे विद्वानों और विचारकों से हमारा कम पढ़ा-लिखा और मूर्ख अन्ना ही बेहतर है। वे सिर्फ चटर-पटर करते रहते हैं, यह मैदान में उतर कर कुछ कर तो रहा है।अन्ना के सबसे सयाने आलोचक वे हैं जो पूछ रहे हैं कि कानून बनाने का काम कहीं सड़क पर होता है, यह तो संसद का काम है, जहां जनता के चुने हुए प्रतिनिधि बैठते हैं। इस सवाल पर कोई विचार नहीं कर रहा है कि कोई बहुत जरूरी कानून बनाने से संसद लगातार इंकार करती रहे तब जनता का कर्तव्य क्या है? क्या इसके लिए उसे अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। वास्तव में अन्ना का अभियान संसद का विकल्प बनने के लिए नहीं है, उसे जगाने के लिए है। कुछ उसी अंदाज में जैसे भगत सिंह ने बहरे कानों को सुनाने के लिए केंद्रीय असेंबली में बम का धमाका किया था।


भगत सिंह ने जिन कानों को बहरा कहा था वे वास्तव में बहरे नहीं थे। उन कानों के मालिकान सब कुछ सुन रहे थे पर कुछ करना नहीं चाहते थे, क्योंकि न करने में ही उनका स्वार्थ था। इसी तरह हमारी संसद भी सब जानती है। उसके बहुत-से माननीय सदस्य तो भ्रष्टाचार कैसे करें यह सिखाने की कक्षाएं ले सकते हैं। अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश की जनता आज संसद को झकझोर रही है कि जिस काम के लिए उसे जन्म दिया गया है वह उसे आज और अभी करे। कुछ आलोचक यह भुनभुना रहे हैं कि अगर अन्ना की बात मान ली गई तो इससे लोकतंत्र पर भीड़तंत्र को हावी होने का मौका मिलेगा। फिर तो कोई भी आदमी दो-चार लाख लोगों की भीड़ खड़ी कर सरकार को अपने मन-माफिक कानून बनाने के लिए बाध्य कर देगा। इसके बाद किसी मांग की वैधता और अवैधता के बीच फर्क क्या रह जाएगा? क्या यह अन्ना हजारे और उनके समर्थकों की तानाशाही नहीं है कि वे मिल-जुलकर कानून का एक ड्रॉफ्ट बनाते हैं और फिर संख्या बल के आधार पर सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि वह किसी और बिल को नहीं, बल्कि इसी बिल को संसद से पारित करवाएं। जहां तक संख्या का सवाल है, यह तय करना असंभव है कि कितने लोग किसी मांग का समर्थन करेंगे तब उसे किस तरह राष्ट्रीय मांग के रूप में स्वीकार किया जाएगा? क्या कोई विद्वान या राजनेता सही-सही तादाद तय कर सकता है। एक मुंहतोड़ जवाब यह हो सकता है कि संसद में जितने जन प्रतिनिधि बैठते हैं उनका जनसंख्यागत आधार क्या है? क्या उन्हें देश के कुल चालीस प्रतिशत मतदाताओं से अधिक का मत मिला है, लेकिन मैं यहां यह तर्क देना नहीं चाहता। यह जरूर कहना चाहता हूं कि अगर तर्क और संख्या का कोई वैज्ञानिक आधार चुनना है तो हमें जनमत संग्रह प्रणाली का सहारा लेना होगा। कानून बनाकर यह तय करना होगा कि इतने हजार या लाख लोग यदि अपने हस्ताक्षरों से सरकार के सामने कोई मुद्दा पेश करते हैं तो वह उस मुद्दे पर एक निश्चित अवधि के भीतर राष्ट्रीय स्तर पर जनमत संग्रह कराएगी। अगर मुद्दा किसी एक राज्य से संबंधित है तो जनमत संग्रह सिर्फ उसी राज्य में कराया जाएगा।


जन लोकपाल विधेयक ठीक है या ठीक नहीं है, इस पर जनमत संग्रह कराने के लिए अन्ना की टोली तैयार है। सरकार भी तैयार हो जाए तो वर्तमान संकट से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। इससे एक अच्छी बात यह भी होगी कि लोकपाल से जुड़ी सभी व्यवस्थाओं पर खुल कर बहस हो सकेगी और भ्रष्टाचार के विभिन्न पहलुओं तथा उसे रोकने के तरीकों पर व्यापक लोक शिक्षण हो सकेगा। सवाल यह भी नहीं है कि मेरा बिल बेहतर या तेरा बिल बेहतर। इस मुद्दे पर जिद का कोई मामला ही नहीं है। मुद्दे की बात भ्रष्टाचार को रोकना और भ्रष्ट अधिकारियों को माकूल सजा देना है। अन्ना की टोली को या उनके समर्थन में उमड़ रहे नागरिकों को बिल के स्वरूप या चरित्र से ज्यादा मतलब नहीं है। वे तो बस भ्रष्टाचार का खात्मा चाहते हैं। यह दवा ठीक है या वह दवा ठीक है इस पर डॉक्टर लोग बहस और विचार-विमर्श करते रहें। हमें तो इससे मतलब है कि बीमारी ठीक होती है या नहीं? सच तो यह है कि लोकपाल की जरूरत ही नहीं पड़ती, अगर प्रशासन ईमानदारी से काम कर रहा होता और भ्रष्टाचार-निरोधक अधिनियम अपने लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहता। सरकार के वचनों पर कोई भरोसा तब करता जब लोगों को यह लगता कि संसद में पेश सरकारी लोकपाल विधेयक से भ्रष्टाचार के मामलों में सचमुच कमी आ जाएगी। अगर लोग यह मान रहे होते कि सरकार वास्तव में भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करना चाहती है तो वे अन्ना हजारे के समर्थन में इतनी बड़ी संख्या में सड़क पर क्यों आते? अन्नाशाही को लेकर भी कुछ लोग बेचैन दिखाई पड़ रहे हैं। उनका कहना है कि अन्ना ने किस आधार पर अपनी टीम बनाई है। इस टीम के सदस्यों का चयन क्या लोकतांत्रिक तरीके से किया गया है। यदि ऐसा नहीं है तो इसमें दलित कहां हैं, अल्पसंख्यक कहां हैं, ओबीसी कहां हैं, महिलाओं का प्रतिनिधित्व कहां है और ये सभी सवाल जायज हैं, लेकिन गलत संदर्भ में पूछे जा रहे हैं। अगर अन्ना हजारे ने कोई राजनीतिक संगठन या दल बनाया होता तब तो उसका सामाजिक और जातिगत चरित्र जानने का लाभ हो सकता है।


अन्ना ने न ऐसा किया है और न ऐसा करने का उनका इरादा है। उन्होंने तो सिर्फ एक बड़ा मुद्दा उठाया है। इस तरह के अभियान विज्ञापन छापकर शुरू नहीं किए जाते कि इस संघर्ष के लिए हमें स्वयंसेवकों की जरूरत है। कुछ लोगों की मंडली को सूझा कि देश में शक्तिशाली लोकपाल, लोकायुक्त आदि हों तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। बस यही विचार करके वे इस काम पर लग गए। जो भी अन्य लोग इस अभियान में शामिल होना चाहते हैं वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं और यदि न चाहें तो भी स्वतंत्र हैं। अगर इन्हें अन्ना के तौर-तरीकों से संतोष नहीं है तो ये भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी ओर से कोई मुहिम शुरू क्यों नहीं करते? आलोचक के लिए आलोचना करना आसान है, लेकिन खुद कुछ करके दिखाना कठिन है। इस संदर्भ में जनलोकपाल विधेयक आंदोलन में कमियां हो सकती हैं, लेकिन इन कमियों की चर्चा करने का नैतिक अधिकार उसे है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई और मजबूत तथा ज्यादा कारगर हथियार लेकर उपस्थित हो। उसे नहीं जिसका इरादा वर्तमान अभियान को कुंद करना है। अन्ना के आलोचकों को इसी नजरिए से विचार करना चाहिए। जब दीपक जलने लगते हैं तो अंधेरे के पक्षधर उन्हें फूंक मारकर बुझाने के लिए अपने-अपने घरों से निकल पड़ते हैं।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh