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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखें तय हो गई हैं। संसद में पेश सरकारी लोकपाल विधेयक के प्रावधानों से टीम अन्ना असंतुष्ट है। 27 दिसंबर से अनशन पर जाने के ऐलान के साथ ही उसने यह चेतावनी भी दे डाली है कि अगर संसद में मजबूत लोकपाल विधेयक पारित नहीं होता है तो वह नए साल में जेल भरो आंदोलन के साथ विधानसभा चुनाव में केंद्र सरकार के खिलाफ मतदान की अपील भी करेगी। सरकार की पेशानी पर परेशानी के पसीने साफ दिखने लगे हैं। सरकार के रणनीतिकारों को इस बात का भी खौफ सताने लगा है कि कहीं टीम अन्ना ने चुनाव के दरम्यान मुखालफत शुरू कर दी तो उसे राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस की सर्वाधिक चिंता उत्तर प्रदेश को लेकर है, जहां राहुल गांधी की साख दांव पर लगी है। कांग्रेस की चिंता अकारण नहीं है। वह अच्छी तरह समझ रही है कि अगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में टीम अन्ना विरोध करती है तो उसके अपने मायने हैं। आम जनता भ्रष्टाचार से पीडि़त है और वह अन्ना के विचारों से प्रेरित होकर कांग्रेस के खिलाफ मतदान कर सकती है। कांग्रेस को डर है कि अन्ना की आंधी के आगे उसके अल्पसंख्यक आरक्षण का दांव भी फीका पड़ जाएगा। नतीजे ठीक नहीं आए तो युवराज राहुल के करिश्माई व्यक्तित्व को लेकर भी सवाल उठने लगेंगे। ऐसे में कांग्रेस के रणनीतिकारों के पास सीमित विकल्प बचे हैं। या तो वह टीम अन्ना के मुताबिक संसद में लोकपाल विधेयक पारित कर अन्ना से अपनी वाहवाही करा ले या दूसरा टीम अन्ना के खिलाफ राजनीतिक मुहिम तेज कर उसके प्रभाव को निस्तेज करे। पता नहीं क्यों कांगे्रस पहले विकल्प को वरीयता देने के बजाए दूसरे विकल्प को ही आजमा रही है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की बात करने वालीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी दूसरा ही विकल्प भा रहा है। पिछले दिनों वह यह कहती सुनी गई कि 125 साल के इतिहास में पार्टी को ताकत दिखाने कई आए और आकर चले गए। मतलब साफ है कि उनका इशारा अन्ना के दबाव में न आने की ओर है। ऐसे में सरकार के बड़बोले रणनीतिकार भी टीम अन्ना पर कीचड़ उछालते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंध निरुपित करते हैं या अन्ना को भगौड़ा सिपाही का दर्जा देते हैं तो अचरज किस बात का? शायद ऐसा कर वे यह समझ रहे हैं कि टीम अन्ना के सदस्यों की धार कुंद हो जाएगी और कांग्रेस पार्टी चुनावी वैतरणी को आसानी से पार कर जाएगी। लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है। अपने ही जाल में उलझकर कांग्रेस के रणनीतिकारों को मुंह की खानी पड़ सकती है। टीम अन्ना पर हमला कर भ्रष्टाचार के मुद्दे को नेपथ्य में डालना अपने पांव पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा है, लेकिन यह छोटी बात सरकार और कांग्रेस दोनों को समझ में नहीं आ रही है। सरकार और कांग्रेस के प्रपंची बस टीम अन्ना की घेराबंदी में ही अपनी ऊर्जा का क्षय कर रहे हैं। उन्होंने एक बार फिर टीम अन्ना पर हमला बोल दिया है। वजह अखबार में छपी अन्ना हजारे की समाजसेवी नानाजी देशमुख के साथ तस्वीर है।
तस्वीर को आधार बनाकर कांग्रेसी जन यह साबित करने में जुटे हैं कि अन्ना का संघ से संबंध है और उसी के इशारे पर वे आंदोलन चला रहे हैं। सत्ता के अहंकार और दर्प से वशीभूत केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने तो भाषा की मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ते हुए यहां तक दावा किया है कि अन्ना हजारे 1965 के भारत-पाक युद्ध के भगोड़े सिपाही रहे हैं। बेनी प्रसाद वर्मा के पास इसका पुख्ता सबूत क्या है यह तो वही जानें, लेकिन उन्हें इस बात का भरपूर ज्ञान होना चाहिए कि सेना ने अन्ना की बहादुरी की न केवल मुक्तकंठ से तारीफ की है, बल्कि उन्हें कई मेडलों से नवाजा भी है। तो क्या सेना झूठी है या बेनी प्रसाद सच्चे हैं? इसका जवाब कांग्रेस को देना चाहिए, लेकिन कांग्रेस चुप है। अपने रणनीतिकारों की बेशर्म बयानबाजी पर उसे अफसोस तक नहीं है। सच तो यह है कि समाजसेवी अन्ना पर झूठे अनर्गल आरोप सरकार के पराजित इरादे को ही संदर्भित कर रहे हैं, लेकिन सरकार को इसका तनिक भी भान नहीं है। पर देखा जाए तो बेनी की जुबानी बर्बरता यों भी नहीं है। उसके अपने गहरे निहितार्थ हैं। उन्होंने अपनी स्तरहीन बयानबाजी से साफ कर दिया है कि टीम अन्ना को लांक्षित करने की ठेकेदारी और दस जनपथ की चापलूसी का एकाधिकार सिर्फ कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के ही नाम पेटेंट नहीं है, बल्कि दरबार के इशारे पर भोंपू बजाने और दरबार के प्रति निष्ठावान होने-दिखने की कला उनमें भी मौजूद है।
कभी खांटी समाजवादी होने का तमगा हासिल कर चुके बेनी प्रसाद महज तीन साल के अंदर कांगे्रसी संस्कार में इस कदर रच-बस जाएंगे कि उन्हें भाषा की मर्यादाएं तक याद नहीं रहेगी, हैरान करने वाली बात है। यह वही बेनी हैं, जो वंशवाद का आरोप लगाकर कांग्रेस को कोसने से चूकते तक नहीं थे, लेकिन राजनीति का मिजाज देखिए कि आज उन्हें असभ्य भाषा का आश्रय लेकर वंशवाद की जय-जयकार बोलनी पड़ रही है। सत्ता का अहंकार ही क्या, जो सिर चढ़कर न बोले। वैसे भी राहुल के प्रति स्वामीभक्ति दिखाना बेनी की व्यक्तिगत मजबूरी बन गई है। उत्तर प्रदेश में टिकट बंटवारे में जिस तरह उन्हें तरजीह दी गई और उनके इशारे पर सपा के भगौड़े नेताओं को कांग्रेस के टिकट से नवाजा गया, उससे उनका उत्साहित होकर टीम अन्ना पर हमला बोलना जरूरी हो जाता है। स्वामीभक्ति दिखाने के मामले में दिग्विजय सिंह अव्वल हैं। उन्होंने भी अखबार में छपी नानाजी देशमुख के साथ अन्ना हजारे की तस्वीर को आधार बनाकर मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने कहा है कि अन्ना हजारे ने संघ नेता नानाजी देशमुख के साथ सचिव के रूप में काम किया है और वर्ष 1983 में गोंडा में प्रशिक्षण लिया है।
दिग्विजय सिंह से पूछा जाना चाहिए कि इसमें बुराई क्या है? क्या अच्छी बातों का अनुशरण करना और उसे अमल में लाना गुनाह है? जहां तक तस्वीर को आधार बनाकर अन्ना और नानाजी देशमुख के बीच संबंधों का सवाल है तो दिग्विजय सिंह को बताना चाहिए कि क्या महज तस्वीरों के दम पर विचारधारा की निकटता को स्थापित किया जा सकता है? अगर हां, तो खुद उनकी भी तस्वीर नानाजी देशमुख के साथ है? फिर इस संबंध को क्या माना जाए? मजे वाली बात देखिए कि जब पत्रकारों ने दिग्विजय सिंह से नानाजी देशमुख के साथ उनकी तस्वीर पर प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उनका चेहरा देखने लायक था। उन्हें जवाब तक नहीं सूझ रहा था। शब्दों को खा-पचा रहे थे। सच तो यह है कि कुतर्को के हाथ-पांव नहीं होते, लेकिन दिग्विजय सिंह सरीखे राजनेता भोथरे तर्को से ही अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। तस्वीर पर तकरार करने से पहले उन्हें सोचना चाहिए कि नानाजी देशमुख न केवल संघ के सदस्य रहे हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र निर्माण की संकल्पना के शिल्पकार भी रहे हैं। उनके आदर्शो और विचारों को अपनाना गौरव की बात है, न कि सियासत की। पर बिडंबना देखिए कि इसे सियासत का हथियार बनाया जा रहा है। सियासत की विद्रूपता का ही दुष्परिणाम है कि इस देश में एक ओर आतंकियों को महिमामंडित किया जा रहा है और वहीं राष्ट्रभक्तों को ठग और कुटिल जैसे विशेषणों से नवाजा जा रहा है। नानाजी के साथ एनडी तिवारी, मुलायम सिंह और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की भी तस्वीरें हैं तो क्या वे सभी संघी हो गए? दिग्विजय सिंह को याद रखना चाहिए कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे भी अन्ना के गांव रालेगणसिद्धि हो आए हैं। यह जानने के लिए कि एक अविकसित गांव को अन्ना जैसे समाजसेवी ने कैसे विकास के पथ पर दौड़ा दिया। आज अगर अन्ना देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सख्त लोकपाल की मांग कर रहे हैं तो दिग्विजय सिंह और उनकी पार्टी को इसका स्वागत करना चाहिए, न कि तर्कहीन विरोध के सहारे भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की जुगत भिड़ानी चाहिए।
लेखक अरविंद कुमार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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