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अन्ना हजारे के आंदोलन से स्पष्ट हो गया है कि संसद और मतदाता के बीच गहरी दरार पड़ चुकी है। संसदीय लोकतंत्र का मौलिक आधार है कि सांसद मतदाता के हित में कार्य करेंगे, परंतु वर्तमान व्यवस्था में सांसदों का प्रयास मतदाता को फुसलाकर उसके मत हासिल करना मात्र रह गया है। 17वीं सदी में विचारक हुए हैं जीन-जैक्वेस रोसे। आधुनिक लोकतंत्र को इन्हीं के विचारों के आधार पर सृजित किया गया है। उन्होंने लिखा था, ‘यह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है कि चुनिंदा लोग जनता पर शासन करें जब तक यह सुनिश्चित किया जाए है कि वे जनहित में शासन करेंगे, न कि अपने व्यक्तिगत हित में।’ आज हमारे सांसद व्यक्तिगत हित में शासन कर रहे हैं, अत: यह व्यवस्था विकृत और अमान्य हो गई है। सांसदों द्वारा संविधान की दुहाई देकर अपनी सर्वोच्चता स्थापित करना व्यर्थ है। इस महान संस्कृति के पिछले पांच हजार वषरें में न जाने कितने संविधान आए और गए हैं। यह संविधान भी चला जाएगा। संविधान की दुहाई देना उसी प्रकार है जैसे वसीयतनामे के आधार पर आज कोई व्यक्ति अपनी पैतृक जमींदारी के हक की मांग करे। इसी प्रकार हमारे सांसद एक दस्तावेज के आधार पर अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।
संवैधानिक लोकतंत्र के स्वार्थपरक हो जाने का मूल कारण पार्टी तंत्र एवं व्हिप का अधिकार है। दलबदल कानून के अंतर्गत व्यवस्था की गई है कि पार्टी के अधिकारी सांसदों को किसी प्रस्ताव पर विशेष पक्ष में वोट देने को बाध्य कर सकते हैं। जैसे कांग्रेस एवं भाजपा अपने सांसदों को व्हिप जारी करके आदेश दे सकती थीं कि जनलोकपाल बिल के विरुद्ध ही वोट डालें। मतदाता जनलोकपाल बिल के पक्ष में लामबंद हों तो भी सांसद को बिल के विरुद्ध ही वोट डालना होगा अन्यथा उसे पार्टी एवं संसद से निष्काषित कर दिया जाएगा। अत: सांसद द्वारा डाला गया मत पार्टी के अधिकारियों के आदेश पर निर्भर होता है, न कि उसके अपने विवेक के आधार पर। जनता की भूमिका सिर्फ इतनी है कि वह तय कर सकती है कि उसके हितों का हनन कोई रामभरोसे करेंगे मोहम्मद इशफाक? सांसद वोट किस पक्ष में डालेंगे, इसे निर्धारित करने का जनता का अधिकार छीन लिया गया है।
व्हिप के अतिरिक्त भी मतदाता अप्रासंगिक है। सांसदों एवं प्रत्याशियों को अगले चुनाव में टिकट प्राप्त करने के लिए पार्टी के अधिकारियों के अनुरूप वोट देना ही होता है। अत: जनलोकपाल बिल पारित हो जाए तो भी सुशासन की मूल समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। जनलोकपाल की नियुक्ति के बाद भी सांसद जनविरोधी नीतियां बनाते रहेंगे। बड़ी कंपनियों के लाभ के लिए गरीब किसानों की भूमि का जबरन अधिग्रहण होता रहेगा। चिकन और पिज्जा का कारोबार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने को नागरिकों का स्वास्थ्य दांव पर लगाया जाता रहेगा। विदेशी कंपनियों द्वारा बनाई गई नई दवाओं की जांच के लिए भारतीय नागरिकों की बलि दी जाती रहेगी।
अमीरों के एयर कंडीशनर चलाने को देश की नदियों की हत्या होती रहेगी। अमेरिकी परमाणु ऊर्जा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए भारत की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया जाएगा इत्यादि। जनलोकपाल कानून से इन जनविरोधी कायरें को संपादित करने में मंत्रियों द्वारा ली जाने वाली घूस पर कुछ अंकुश अवश्य लग सकता है, परंतु जन विरोधी नीतियों को बनाने में तनिक भी रोक नहीं लगेगी। यदि किसी विशेष नीति पर आंदोलन खड़ा हो जाए और संसद घुटने टेक दे तो भी बात नहीं बनती है, क्योंकि जन आंदोलन प्रतिदिन खड़ा नहीं होता है, जैसे सरकार जबरन किसानों की भूमि का अधिग्रहण करने को कानून बनाने को तैयार है। जन आंदोलन से यह कानून रुक गया तो भी क्लिनिकल ट्रायल, जंक फूड, नदियों की हत्या, देश की स्वतंत्रता को गिरवी रखना जारी रहेगा।
जन आंदोलन को थका कर ढीला करने में सरकार माहिर है। मेरा निश्चित मानना है कि जनलोकपाल बिल के पक्ष में प्रस्ताव पारित करने के बावजूद संसद इसे पारित नहीं करेगी। जनता थक जाएगी और यह आंदोलन समाप्तप्राय हो जाएगा। कुछ समय पूर्व इसी प्रकार का अनशन पर्यावरणविद् डॉ. गुरुदास अग्रवाल ने किया था। दिए गए आश्वासन पर सरकार दो बार पीछे हट गई। तीसरी बार 37 दिन के उपवास के बाद सरकार ने गंगा पर उत्तरकाशी के ऊपर लोहारीनागपाला बांध को निरस्त करने की उनकी मांग को माना, लेकिन आज पुन: सरकार अपने वायदे से पीछे हट रही है और एक बड़ी परियोजना के स्थान पर बड़ी संख्या में छोटी परियोजनाओं के माध्यम से पुन: गंगा की हत्या करने को उतारू है। उपवास और जन आंदोलन को लंबे समय तक जारी रखना कठिन होता है। अंतत: पार्टियों एवं सांसदों का निजी स्वार्थ हावी हो जाता है और जनता थक कर मूक सहमति दे ही देती है।
इस समस्या के समाधान को दीर्घकालीन व्यवस्था बनानी होगी ताकि संसद पर निरंतर अंकुश रखा जा सके। हमें समझ लेना चाहिए कि सरकार का मूल चरित्र ही जनविरोधी होता है। इस जनविरोधी सरकार द्वारा जनलोकपाल बिल पास हो ही जाए तो वह चोर द्वारा मंदिर में पूजा करने सरीखे ही होगा। फिर भी अन्ना हजारे के आंदोलन को अंकुश की एक सफल कड़ी के रूप में देखना चाहिए।
इस दीर्घकालीन व्यवस्था को बनाने में हम अपनी परंपरा से सबक ले सकते हैं। प्रोफेसर इला घोष बताती हैं कि कालिदास के रघुवंश में अध्यापक, पुरोहित, मंत्री और जनता को धूर्त शासक पर नियंत्रण करने का माध्यम बताया गया है। इस नियंत्रण व्यवस्था के कई बिंदु हैं। एक, इनके द्वारा शासक पर आरोप लगाया जा सकता है, जैसाकि राजीव गांधी पर बोफोर्स मामले में लगाया गया था। दो, इनके द्वारा शासक की आलोचना की जा सकती है। शासक के कायरें के प्रति लोग असहमति व्यक्त कर सकते हैं। तीन, इनके द्वारा धरना, अनशन, घेराव आदि किए जा सकते हैं। चार, जनता द्वारा शासक को श्राप दिया जा सकता है। श्राप से शासक की आंतरिक शक्ति का ह्रास होता है और वह गलत कार्य करने की क्षमता खो बैठता है। पांच, संतों की अग्नि को छोड़ा जा सकता है, जैसे राजा सागर के पुत्र मारे गए थे। छह, जनता शासक पर अविश्वास कर उसके कायरें में असहयोग कर सकती है, जैसे सरकार कहे कि बेटी को दहेज मत दो, परंतु जनता ने बेटी के अधिकार को छीनने से इंकार कर दिया है। इन तमाम उपायों से सरकार के मूल जनविरोधी चरित्र पर निरंतर अंकुश लगाना होगा। एक आंदोलन से सरकार का चरित्र नहीं बदल जाएगा।
लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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