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अमेरिका पाठ न पढ़ाए

जागरण मेहमान कोना
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Peeyush Pandeyदूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल के सोशल मीडिया पर नकेल कसने के इरादे प्रकट होने के बाद पूरी दुनिया से तीव्र प्रतिक्रिया आई है। मानवाधिकार दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बॉन की मून ने किसी का नाम लिए बगैर कहा कि वे दिन गए जब अहंकारी सरकारें सूचनाओं के प्रवाह को रोक सकती थीं। आज लोगों व संस्थाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए आलोचनाओं व सार्वजनिक बहस से बचने के लिए सरकार को इंटरनेट और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर रोक नहीं लगानी चाहिए। मून के बयान से महज दो दिन पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भी सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की कथित कोशिशों को लेकर भारत पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा जब विचारों को ब्लॉक किया जाता है, सूचनाओं को डिलीट किया जाता है, बातचीत को दबाया जाता है और लोगों को विकल्पों में सीमित किया जाता है तो इंटरनेट हम सभी के लिए कमजोर हो जाता है।


इंटरनेट पर आपत्तिजनक कंटेंट की भरमार होने के बावजूद कपिल सिब्बल की सोशल मीडिया पर पाबंदी की कथित कोशिशों को लेकर जबरदस्त हल्ला है तो इसीलिए, क्योंकि वह तर्कहीन हैं। सूचना तकनीक कानूनों को सख्त बनाए जाने के बाद आपत्तिजनक कंटेंट प्रसारित करने वाले के खिलाफ कार्रवाई संभव है, लेकिन यहां बात कपिल सिब्बल की नहीं अमेरिका की है। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र भारत को आईना दिखाने समय भूल गए कि पहले उन्हें अपने घर में झांकने की जरूरत है। विकीलीक्स का उदाहरण हमारे सामने है। अमेरिका ने विकीलीक्स को आर्थिक मदद प्राप्त करने में सहायता करने वाली वीजा, मास्टरकार्ड आदि कंपनियों को साइट से संबंध तोड़ने के लिए बाध्य किया। ट्विटर पर विकीलीक्स से जुड़े लिंक्स की प्राथमिकता को कम कराया। सूचनाओं के मुक्त प्रवाह की हिमायती हिलेरी क्लिंटन के विदेश मंत्रालय ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर काम करने वाले छात्रों को चेताया कि वे विकीलीक्स के केबल को न तो पढ़ें न लिंक करें और न ही उन पर चर्चा करें।


व्हाइट हाउस ने सरकारी कर्मचारियों को चेताया कि विकीलीक्स द्वारा लीक केबल अभी भी गोपनीय दस्तावेज की श्रेणी में हैं। इसके बाद ओबामा प्रशासन ने लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस समेत कई संस्थानों में इन दस्तावेजों को ब्लॉक कर दिया। विकीलीक्स प्रकरण के बाद ओबामा प्रशासन एक नए संघीय कानून पर काम कर रहा है जिसके तहत ई-मेल, इंस्टैंट मैसेजिंग और दूसरे संचार तकनीक प्रदानकर्ताओं को कानूनी एजेंसियों के चाहने पर सारा डाटा दिखाना होगा। उन्हें एक साल तक अपने ग्राहकों का डाटा सुरक्षित रखना होगा। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र को भी देखना होगा कि अभी 40 से ज्यादा देशों में इंटरनेट पर किसी न किसी तरह की पाबंदी है और वहां सूचनाओं को फिल्टर किया जाता है। चीन में तो यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर जैसी साइटों पर पूर्ण पाबंदी है। जहां तक भारत का सवाल है तो सिब्बल ने सही समस्या का गलत तरीके समाधान निकालने की कोशिश की। सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कंटेंट की भरमार है।


आपत्तिजनक सामग्री भी सापेक्षिक है यानी कोई सामग्री अगर भारत में आपत्तिजनक है तो आवश्यक नहीं कि वह अमेरिका में आपत्तिजनक कहलाए। सोशल नेटवर्किग साइट्स का भी तर्क है कि वे अमेरिकी कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं न कि भारतीय कानूनों का। कंपनियों के मुताबिक कपिल सिब्बल चाहते थे कि भारतीय यूजर्स के कंटेंट को सार्वजनिक करने से पूर्व पूर्वपरीक्षण की कोई प्रणाली विकसित की जाए। तकनीकी रूप से यह आसान नहीं है। भारत में अभी फेसबुक के करीब चार करोड़ बीस लाख ज्यादा यूजर्स हैं तो उनके कंटेंट को मॉडरेट करना लगभग नामुमकिन है। दरअसल, सिब्बल के इरादे इंटरनेट सेंसरशिप की तरफ ले जाते हैं, जिसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन सिब्बल की गलती के बावजूद अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र को हमें पाठ पढ़ाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।


इस आलेख के लेखक पीयूष पांडे हैं


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