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पचास और साठ के दशक में भारत एक नरम राज्य के तौर पर जाना जाता था। संस्कृतियों और संस्थानों में प्रतिकूल परिवेश के कारण भारत कठोर निर्णय नहीं ले पाता था। अन्ना हजारे का प्रकरण यही दर्शाता है कि हम अभी भी नरम राज्य ही हैं। अनशन के 12वें दिन सरकार और अन्ना हजारे अपनी टीम के साथ झुकते हुए से यही चाह रहे थे कि संसद एक प्रस्ताव पारित कर दे ताकि उसी दिन अनशन समाप्त हो जाए। 24 घंटे पहले तक सरकार का रवैया यही था कि ‘किसी नियम के तहत’ चर्चा की व्यवस्था तो हो सकती है, किंतु कोई प्रस्ताव पारित कराना संभव नहीं है। अन्ना हजारे पक्ष इस बात पर अड़ा था कि अनशन समाप्त करने से पूर्व लोकपाल विधेयक पारित होना ही चाहिए। अन्ना हजारे ने लोकपाल विधेयक का अपना प्रारूप पारित कराने पर जोर नहीं दिया। वह तो बस इतना चाहते थे कि ऐसा प्रस्ताव पारित हो जाए, जिसमें उनकी तीन मांगों पर सदन की सम्मति हो। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख, जो व्यक्तिगत तौर पर अन्ना हजारे को जानते हैं, प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के आश्वासन से अवगत कराने के लिए सीधे ही हजारे के पास गए। इस तरह हजारे की टीम को किनारे कर दिया गया। अनशन समाप्त करने के लिए संसद के सर्वसम्मत प्रस्ताव का ही असर हुआ।
तथ्य यह है कि सिविल सोसाइटी के सदस्यों का दमखम खत्म हो रहा था। मैंने अनेक लोगों से सुना कि टीम अन्ना कुछ और ही सुनना चाहती थी। एक ‘कमजोर राष्ट्र’ से ऐसी ही अपेक्षा थी। वर्षो से मैं यह महसूस करता रहा हूं कि सिविल सोसाइटी वार तो करना चाहती थी, परंतु घायल करने से डरती थी। स्वभाव से ही हम विवाद में नहीं पड़ना चाहते। यदि वैसी स्थिति उपस्थित हो जाए तो हम चाहते हैं कि समझौते की खोज कर ली जाए। ऐसा समझौता जो हमारी मांग के करीब हो या फिर जिसमें हम विजयी होने का भ्रम पाल सकें। सच्चाई यह है कि हम हालात को उबाल बिंदु तक नहीं पहुंचने देना चाहते, क्योंकि हम उस स्थिति को झेलने के लिए तैयार नहीं रहते। सत्य है कि हम ‘रेडिकल’ नहीं हैं। न ही हम यथापूर्व स्थिति में बदलाव के पक्षधर हैं। व्यवस्था ने कुछ दिया या नहीं, यह अनशन का मुद्दा नहीं था। मुद्दा यह था कि लोग यह आशा संजो रहे थे कि कुछ ऐसा होगा जिससे उनके जीवन में बदलाव आएगा। तात्पर्य यह है कि अलग-अलग लोगों की अलग-अलग अपेक्षाएं थीं, किंतु साझा चाहत थी परिवर्तन की। फिर भी इस तथ्य से तो इंकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध हजारे के आंदोलन ने 1974 में गांधीवादी जयप्रकाश नारायण द्वारा किए गए परिवर्तन के बाद पहली बार मध्यम वर्गीय युवा वर्ग आंदोलित और एकजुट हुआ। फिर यह भी कि दोनों ही आंदोलनों ने लोगों के आक्रोश और क्षोभ को विस्फोटित नहीं होने दिया और इस ओर निगाह रखी कि कहीं आंदोलन ‘नियंत्रण’ से बाहर न हो जाए। जयप्रकाश आंदोलन यदि लंबा चलता तो उससे राष्ट्र अवांछनीय तत्वों के खिलाफ संघर्ष के लिए खुद को तैयार करता, परंतु इस आंदोलन की भी मंशा यही थी कि यथापूर्व स्थिति बनी रहे।
जेपी के आंदोलन का कुछ लोगों ने लाभ उठाया और उनके सपनों को तोड़ दिया। हजारे के मामले में परेशानी पैदा करने वाला भाग था अनशन। अन्यथा उनका आंदोलन क्रांतिकारी युग का परिचायक होता-दूसरी आजादी के प्रभात के समान। मेरी कामना थी कि हजारे आंदोलन को अनशन से अलग रखते, किंतु शुरू से ही उन्हें कुछ ऐसे लोगों ने घेर रखा था, जो ध्यान खींचने के लिए कोई नाटकीय कदम उठाना चाहते थे और अनशन को आंदोलन का अविभाज्य अंग बनाना चाहते थे। नतीजा यह रहा कि कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ। इसमें मांगा तो बहुत कुछ गया, पर हासिल कुछ खास नहीं हो पाया। यदि आंदोलन अनशन का लाभ उठाने की स्थिति में आ पाता तो सरकार लोगों की धमकी भरी मुद्रा से खौफ खाती।
हजारे ईमानदारी से कह रहे हैं कि यदि उन्हें लगेगा कि उनकी उम्मीद के अनुरूप परिणाम नहीं निकल रहा है तो वह फिर से अनशन शुरू कर देंगे, परंतु मुझे नहीं लगता कि कुछ माह बाद भी उन्हें उतना जनसमर्थन मिलेगा जितना इस बार मिला है। मुंबई में वर्षा होते रहने पर भी विजय जलूस निकाला गया तो उसमें एक लाख लोग शामिल हुए। मैं यह देख सकता हूं कि हजारे देश भर में उन लाखों लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं का प्रतीक बन गए हैं, जो उनके समर्थन में सड़कों पर उतरे थे। इस बात को दोहराने की आवश्यकता नहीं कि संसद सर्वोच्च है। संसदीय लोकतंत्र में यही सर्वोच्च निकाय है, किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि वे सख्त लोकपाल लाते हैं तब भी उनकी सर्वोच्चता पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हो सकता है कि राइट टु रिकाल आदर्श व्यवस्था न हो, किंतु यह निर्वाचितों के सिर पर जन स्वीकृति की लटकती तलवार सरीखी तो है ही। मुझे अभिनेता ओमपुरी का यह तर्क अजीब सा लगा कि सांसद पढ़े-लिखे ही हों। शुरुआती लोकसभाओं में करीब एक-चौथाई सांसद पढ़े-लिखे नहीं होते थे, पर देशहित साझा ही था। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने के पक्ष में थे। नेहरू ने इस सुझाव का विरोध किया। उनका तर्क था कि स्वतंत्रता संग्राम में अशिक्षित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने ही बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सुझाव रद हो गया। हजारे के आंदोलन का शिक्षितों के समान अशिक्षितों ने भी समर्थन किया है। प्रयास सभी को शिक्षित करने का होना चाहिए, अशिक्षितों को सजा देने का नहीं। लोकपाल के तहत जो चीज नहीं आती वह है निर्धनता। चुनाव सुधार अपरिहार्य हैं ताकि सही ढंग के लोग ही लोकसभा और राज्य विधानमंडलों में पहुंचें। साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार के समान ही निर्धनता भी समाप्त नहीं की जा सकती। इनका कोई सरल विकल्प नहीं है।
लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं
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