Menu
blogid : 5736 postid : 5420

सियाचिन की जमीनी सच्चाई

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments


Rajeev Sharmaजनरल कयानी के भावनात्मक बयान के बावजूद यथास्थिति कायम रहने की संभावना जता रहे हैं राजीव शर्मा

सियाचिन से भारत और पाकिस्तान की सेनाओं की वापसी की निकट भविष्य में कोई सूरत नजर नहीं आती। दोनों दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के शुभचिंतकों और खासकर मीडिया के एक वर्ग और शांति के लिए मोमबत्तियां जलाने में रुचि रखने वाले लोगों को इस मामले में जमीनी सच्चाई समझने की जरूरत है। आठ अप्रैल को पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने भारत की एक दिवसीय यात्रा की थी। उनकी इस यात्रा के अपेक्षित नतीजे ही सामने आए। नतीजों में सतर्कता का भाव था। सियाचिन का मुद्दा इसलिए चर्चा में आ गया, क्योंकि हिमस्खलन के कारण वहां तैनात 125 पाकिस्तानी सैनिकों की मौत हो गई और वहां के सेना प्रमुख जनरल परवेज कयानी ने घटनास्थल का दौरा करने के बाद सियाचिन की कठिन परिस्थितियों को रेखांकित किया। उनके बयान के बाद एक तात्कालिकता वाली स्थिति उभरी, जिसमें यह सवाल छिपा था कि क्या दुनिया के इस सबसे बड़े मोर्चे पर दोनों पड़ोसी देशों को हमेशा आमने-सामने रहने की जरूरत है? जरदारी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान चाहे जैसा सद्भाव प्रकट किया हो, लेकिन सियाचिन के समाधान की कोई सूरत उभरती नजर नहीं आती। यह स्थिति तब है जब पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माने जाने वाले जनरल कयानी ने सियाचिन को लेकर एक दुर्लभ टिप्पणी की।


पाक की जवाबी मिसाइल


हिमस्खलन से प्रभावित सैनिकों को संबोधित करते हुए कयानी ने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बेहद जरूरी है ताकि हर कोई जनकल्याण पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके। उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच दशकों पुरानी दुश्मनी का हल बातचीत के जरिए निकाला जाना चाहिए। कयानी ने जो कुछ कहा कि उसे एक त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए-न इससे कम और न इससे ज्यादा। न तो भारत सियाचिन से अपनी सेनाएं हटाने का जोखिम उठा सकता है और न ही पाकिस्तान। अपेक्षा के अनुसार दोनों ही पक्षों ने सियाचिन से अपने सैनिकों की एकतरफा वापसी की संभावना से इन्कार किया है। अगर चीजें इतनी ही सामान्य होतीं तो सियाचिन सरीखा दुर्गम क्षेत्र भारत और पाकिस्तान के बीच रणक्षेत्र नहीं बनता। यथार्थ तो यह है कि सियाचिन का मामला और अधिक जटिल होता जा रहा है और इसकी वजह इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती मौजूदगी है। शायद ही इससे कोई असहमत हो कि भारत के लिहाज से चीन पाकिस्तान की तुलना में कहीं अधिक बड़ा सुरक्षा खतरा है। अक्साई चिन का इलाका हो अथवा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर-चीन की इन क्षेत्रों में बढ़ती मौजूदगी ने भारत की चिंताएं बढ़ा दी हैं। अक्साई चिन का अच्छा-खासा क्षेत्र पाकिस्तान ने सामरिक उद्देश्य से चीन के हवाले कर दिया है। दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही पक्षों के न तो दिल में कोई बदलाव हुआ है और न ही दिमाग अथवा दृष्टिकोण में।


खासकर पाकिस्तान भारत के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं। पाकिस्तान के सेना प्रमुख भारत के प्रति अपने सख्त रवैये के लिए ही जाने जाते हैं। कयानी ने हिमस्खलन की त्रासदी के बाद जो कुछ कहा वह एक भावनात्मक भाषण ही था। उन्हें यह रुख इसलिए भी प्रदर्शित करना पड़ा, क्योंकि जरदारी के नेतृत्व वाली सिविलियन सरकार की भारत के साथ शांति की कोशिशों को घरेलू स्तर पर समर्थन मिल रहा है। इसके अलावा कयानी दुनिया को यह भी बताना चाहते हैं कि उनका पक्ष पीछे हटने के लिए तैयार है, जबकि भारत अपने रुख पर अड़ा है। कयानी अनेक मामलों में अमेरिकी दबाव से घिरे हैं और इसलिए भी उनके लिए यह जरूरी है कि वह अपने देश में अपना एक नरम चेहरा सामने रखें। उनकी उम्मीद यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय सियाचिन के मसले पर दोनों देशों के लिहाज से संतोषजनक समझौते के लिए भारत पर दबाव डालेगा और इसके तहत इस इलाके से दोनों देशों की सेनाओं की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। जहां तक भारत का संबंध हैं तो यहां सुरक्षा संबंधी सभी फैसले लेने वाली सिविलियन सरकार ने कयानी के बयान का स्वागत किया है। रक्षा राज्य मंत्री एमएम पल्लम राजू ने कहा कि इस मोर्चे पर सैनिकों की तैनाती में दोनों देशों को भारी धन खर्च करना पड़ता है। पाकिस्तान की अपनी चिंताएं हैं और हमारी अपनी, लेकिन इस खर्च का बेहतर इस्तेमाल विकास के कामों में हो सकता है। सियाचिन की सच्चाई यह है कि यहां दुश्मन की गोली से अधिक खराब मौसम दोनों देशों के सैनिकों की जान ले लेता है।


भारत और पाकिस्तान के अब तक चार हजार सैनिक बर्फबारी, हिमस्खलन और मौसम संबंधी दूसरी जटिलताओं के भेंट चढ़ चुके हैं। ग्लेशियर में दोनों देशों के करीब 150 सैन्य पोस्ट हैं, जिनमें लगभग तीन-तीन हजार सैनिक तैनात हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत और पाकिस्तान ने इस क्षेत्र की निगरानी के लिए क्रमश: तीस करोड़ और दस करोड़ डालर खर्च किया है। सियाचिन को लेकर अनेक मिथ प्रचलित हैं, मसलन भारत और पाकिस्तान सियाचिन में लड़ रहे हैं, भारत खराब मौसम के कारण हर वर्ष सैकड़ों सैनिक गंवा रहा है, भारत इस मोर्चे पर टिके रहने के लिए आर्थिक बोझ नहीं उठा सकता, सियाचिन का कोई सामरिक महत्व नहीं है, भारत ने राजीव गांधी और बेनजीर भुट्टो के समझौते के बाद इस इलाके से अपनी सेनाएं हटानी शुरू कर दीं अथवा सियाचिन में मोर्चेबंदी की शुरुआत भारत ने की। ऐसे सभी मिथ हकीकत से परे हैं। सियाचिन की दुर्गम स्थिति से इन्कार नहीं किया जा सकता। वहां दोनों देशों को हो रही सैन्य और आर्थिक क्षति की भी अनदेखी नही होनी चाहिए, लेकिन यह जरूरी है कि भारत इस मामले में सतर्कता से आगे बढ़े। खासकर हमारे मीडिया और बौद्धिक वर्ग को इस मसले पर भावनात्मक होने की जरूरत नहीं है। सियाचिन पर बात हर स्तर पर हो सकती है, यहां तक कि सेना को भी इसमें शामिल किया जा सकता। वास्तव में दोनों देशों की सेनाओं के परस्पर संपर्क से दोनों देश एक-दूसरे को कहीं बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। जनरल कयानी के विचार के पीछे चाहे जो इरादा हो, लेकिन उसका जवाब संतुलित तरीके से दिया जाना चाहिए। उन्हें भारत आमंत्रित करना भी एक अच्छा विचार हो सकता है। क्या यह जरूरी है कि दोनों देशों की सेनाएं केवल युद्ध के मैदान में ही मिलें?


लेखक राजीव शर्मा सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh