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इंसाफ के घर देर है, अंधेर नहीं। पिछले दिनों यह कहावत गुजरात में एक बार फिर चरितार्थ हुई। सूबे की एक विशेष अदालत ने वर्ष 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के एक मामले में 31 लोगों को गुनहगार ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई। नौ साल बाद आए इस फैसले ने सूबे के बाकी दंगा पीडि़तों में भी एक आस जगा दी है कि एक दिन उन्हें भी इंसाफ मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त एसआइटी का यह पहला मामला है, जिसमें फैसला आया। गौरतलब है कि एसआइटी की दोबारा जांच के बाद वर्ष 2009 में मेहसाणा की एक फॉस्ट ट्रैक अदालत में मुकदमा शुरू हुआ था, जिसमें अब फैसला आया है। अदालत में कुल 73 लोगों के खिलाफ मुकदमा चला, जिनमें से 31 लोगों पर हत्या, दंगा और आगजनी के इल्जाम साबित हुए।
वर्ष 2002 की 28 फरवरी और 1 मार्च की दरमियानी रात को जब सारा गुजरात दंगों की आग में झुलस रहा था, तब दंगाइयों ने सरदारपुरा के शेख वास नाम के इलाके को चारों ओर से घेरकर उस घर को आग लगा दी, जिसमें 22 महिलाओं समेत 33 लोग दंगों से बचने के लिए पनाह लिए हुए थे। जाहिर है, नफरत की आग में ये सारे लोग मारे गए। एक लंबा अरसा गुजर गया, लेकिन अपराधी कानून की गिरफ्त से बचे रहे। अफसोसनाक बात यह है कि इस नृशंस कांड की जांच शुरुआती खानपूर्ती के बाद न सिर्फ रोक दी गई, बल्कि मोदी सरकार गुनहगारों को भी बचाती रही। बहरहाल, गुजरात दंगों के बाबत सूबे में अभी तक पीडि़तों को जो भी इंसाफ मिला है, उसका सेहरा अगर किसी को बंधता है तो वह है अदालत। सूबे की पुलिस तो पर्याप्त सबूत न होने का बहाना बनाकर कई मामलों को अपनी तरफ से बंद कर चुकी थी कि फरवरी 2008 में दंगों के मामले में पहली सजा हुई। मुंबई की एक विशेष अदालत ने गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो के सामूहिक बलात्कार और उसके रिश्तेदारों की हत्या के मामले में 11 दागियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके कुछ दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को एसआइटी के गठन का निर्देश दिया और उसे सूबे के नौ बड़े नरसंहारों की नए सिरे से तहकीकात करने को कहा गया। जिसमें अहमदाबाद, आणंद, साबरकांठा, मेहसाणा और गुलबर्ग सोसायटी के नरसंहार शामिल हैं।
एसआइटी की दोबारा जांच के बाद ही सरदारपुरा में हुए नरसंहार के खिलाफ अदालत में मुकदमा शुरू हो पाया। साल 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में सूबे के अंदर अल्पसंख्यकों के जान-माल की बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। इंसानियत को शर्मसार करने वाले इन दंगों में उस वक्त दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए और लाखों बेघर हो गए। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरपरस्ती और सरकारी अमले की मिलीभगत से पूरे सूबे में दंगे कई दिन तक चलते रहे। यही नहीं, दंगों के बाद सूबे में जिस तरह से गुनहगारों को बचाने के लिए न्यायिक प्रक्रिया में कदम-कदम पर रुकावट डाली गई, वह भी किसी से छिपी नहीं। सबूतों को खत्म करने, गवाहों को डराने-धमकाने और आरोपियों को बचाने की सुनियोजित कोशिशें पुलिस की मदद से होती रहीं।
गुजरात सरकार सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों की प्रति कितनी गंभीर है, इसे जानने के लिए इतना ही काफी है कि गोधरा और गुजरात दंगों की जांच कर रहा नानावटी आयोग अपनी रिपोर्ट दंगों के नौ साल बाद भी मुकम्मल नहीं कर पाया है। जबकि दंगों की जांच के लिए गठित एक गैर सरकारी संगठन कंसर्न सिटिजन ट्रिब्यूनल गुजरात 2002 ने मौखिक एवं लिखित साक्ष्यों, दंगों में मारे गए लोगों के परिजनों एवं अन्य पीडि़तों के बयानों, महिला संगठनों और पुलिस में दर्ज मुकदमों की गहन विवेचना के बाद जारी अपनी रिपोर्ट में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को दंगों का दोषी ठहराते हुए कहा था कि मोदी फरवरी 2002 के बाद गुजरात में जो कुछ हुआ, उसके मुख्य शिल्पकार थे। ऐसे में मेहसाणा की विशेष अदालत का फैसला ऐतिहासिक है। मुल्क में सांप्रदायिक दंगों के मुकदमों के इतिहास में यह पहला मुकदमा है, जिसमें एक साथ इतने सारे लोगों को सजा हुई। सरदारपुरा गांव के अल्पसंख्यक परिवार भले ही इंसाफ की लड़ाई जीत गए हों, लेकिन आज भी ऐसे सैंकड़ों लोग हैं, जो अपनी हारी हुई लड़ाई पुरजोर तरीके से लड़ रहे हैं। इंसाफ उनसे दूर सही पर मुल्क की अदालत और उसके कानून पर उनका यकीन हौसला बंधाता है कि जम्हूरियत और इंसानियत की लड़ाई हम इतनी जल्दी हारने वाले नहीं।
लेखक जाहिद खान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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