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गलत है खेल विधेयक का विरोध

जागरण मेहमान कोना
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Ajay Makenखेल एवं युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। उनके प्रस्तावित राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक के खिलाफ खेल परिसंघों, खासतौर से बीसीसीआइ और उनमें अर्से से जमे बैठे राजनेताओं में खलबली मच गई है। दुनिया के सबसे धनवान और शक्तिशाली खेल संगठन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड [बीसीसीआइ] ने माकन के खेल विधेयक को सिरे से खारिज कर दिया है। भारत में खेल की प्रशासकीय संस्थाओं में पारदर्शिता लाने के नाम पर लाए जा रहे इस खेल विधेयक को मंत्रिमंडल ने भी स्वीकृति नहीं दी है। इतना ही नहीं, मंत्रिमंडल में मौजूद सरकार के पांच मंत्रियों [जो विभिन्न खेल संघों में पदाधिकारी हैं] ने भी माकन के इस विधेयक को बीसीसीआइ के साथ-साथ खेल संघों की स्वायत्तता खत्म करने की साजिश बताया है। इस विवादास्पद विधेयक पर राजकिशोर ने अजय माकन से सीधे सवाल पूछे। पेश हैं प्रमुख अंश:


आपके खेल विकास विधेयक को खेल संघों-परिसंघों की स्वायत्तता के लिए खतरा बताया जा रहा है। आखिर इतना विवाद क्यों?

यह ठीक बात नहीं है। संशोधित विधेयक खेल संगठनों को मजबूत करेगा, न कि कमजोर। सरकार सिर्फ खेल संघों को मिलने या खर्च करने वाले धन के प्रति जवाबदेह बनाना चाहती है। यह केवल भारत में ही नहीं है। अमेरिका 1978 में तो 1997 में मलेशिया खेल गतिविधि अधिनियम और फ्रांस, श्रीलंका समेत 30 देश इस तरह का कानून बना चुके हैं।


ओलंपिक चार्टर खेल संगठनों में सरकारों को किसी भी तरह के दखल से रोकता है। क्या खेल विधेयक खेल संगठनों को नियमित करने के नाम पर उन्हें नियंत्रित करने का हक सरकार को नहीं देता?

विधेयक को ठीक से पढ़ें तो पाएंगे कि यह खेल संघों पर नियंत्रण की कोशिश या उनकी स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं है। उल्टे यह भिन्न खेलों को जवाबदेह निकाय के माध्यम से व्यवस्थित अनुशासन के जरिये एकरूपता लाने और उन्हें अनिवार्य स्वायत्तता दिलाने में मददगार होगा। ओलंपिक चार्टर के दुनिया भर के अच्छे तरीकों को सिद्धांतों के अनुरूप खेल संघों और सरकार के बीच अच्छे संबंध और समन्वय को बढ़ाने में यह मदद करेगा।


मगर इसका विरोध तो सबसे ज्यादा खेल संघ ही कर रहे हैं?

सरकारी दखल का हल्ला बिल्कुल गलत है। जिन लोगों के गहरे निहित स्वार्थ हैं वही इसे बढ़ावा दे रहे हैं। वरना किसी भी खेल संघ ने आज तक सरकार का विरोध नहीं किया। बावजूद इसके कि खेल संघों में चुनाव के दौरान पर्यवेक्षक नियुक्त करने, राष्ट्रीय कोचों की नियुक्ति से लेकर, प्राथमिकता वाले खेलों का नुस्खा तय करने से लेकर खेलों के लिए दीर्घकालिक योजना का मद तक तय करने में दशकों से सरकार का दखल रहा है।


सभी राष्ट्रीय खेल संघों को आरटीआइ के तहत लाने के पीछे क्या तर्क और जरूरत महसूस की जा रही है?

केंद्र सरकार और राज्य सरकार के अधिकारी जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए इस कानून के अधीन हैं। भारतीय संविधान के सेक्शन 2 के तहत खेल संघों के पदाधिकारी भी लोक प्राधिकारियों की श्रेणी में आते हैं। हाल में ही न्यायविदों की राय के मुताबिक उन्हें आरटीआइ के तहत लाना बिल्कुल उचित है।


मगर आरटीआइ के तहत खेल संघों को लाने का बीसीसीआइ खुलकर विरोध कर रही है और आपको पत्र भी लिख चुकी है। इनमें कांग्रेस नेता और मंत्री भी आपकी आलोचना कर रहे हैं।

विरोध करने वालों में बीसीसीआइ अकेली है। उसका विरोध गले नहीं उतरता। कानून और संविधान का तकाजा है कि दूसरे खेल संगठनों की तरह बीसीसीआइ भी आरटीआइ के दायरे में आए। वास्तव में अगर बीसीसीआइ के पास अपने प्रमुख शेयरधारकों से छिपाने को कुछ नहीं है तो उन्हें अपने प्रशासनिक और आर्थिक मामलों को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने से कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।


अगर समान कानून की बात है तो फिर प्रस्तावित विधेयक में क्रिकेट खिलाड़ियों के चयन, प्रदर्शन, फिटनेस, चोट नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी के परीक्षणों और खिलाड़ियों के ठिकानों को आरटीआइ के दायरे से बाहर रखने का प्रावधान क्यों हुआ? क्या मंत्रालय बीसीसीआइ के दबाव के आगे झुक गया?

देखिए.इस विधेयक के केंद्र में एथलीट हैं जिन जानकारियों की बात है उस पर विभिन्न खिलाड़ियों और खेल संघों की आपत्तियां थीं। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में इन जानकारियों का फायदा दूसरे देश के खिलाड़ी उठा सकते थे। लिहाजा खिलाड़ियों और भारतीय खेल के हित में इसे छोड़ा गया। इसी तरह दौरे के दौरान खिलाड़ियों के ठिकाने की जानकारी की बात सिर्फ उन्हीं खेल संगठनों पर लागू होगी, जिनकी अंतरराष्ट्रीय इकाई वाडा के इन दिशा-निर्देशों के तहत आती हो। इसलिए, किसी को झुकाना या स्वायत्तता पर अंकुश तो हमारा उद्देश्य ही नहीं है।


पदाधिकारियों के कार्यकाल और उम्र की शर्तो का भी विरोध हो रहा है, आखिर यह जरूरत क्यों महसूस की गई?

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ की नियमावली ही उसके पदाधिकारियों की उम्र और कार्यकाल की सीमा तय करती है। इसी हिसाब से नए विधेयक में पदाधिकारियों की अधिकतम उम्र 70 साल और 12 सालों का अधिकतम कार्यकाल तय किया गया है। यह खेल संघों में एकरूपता और वर्चस्व तोड़ने के लिए बेहद जरूरी हैं।


भारतीय संविधान की राज्य सूची की 33वीं प्रविष्टि के मुताबिक खेल राज्य का विषय हैं। फिर केंद्र इस विधेयक के जरिये क्या अतिक्रमण नहीं कर रहा?

राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक भारतीय ओलंपिक संघ समेत सिर्फ राष्ट्रीय खेल संघों के नियमन के उद्देश्य से बना है, न कि राज्य खेल संघों के। साथ ही भारत सरकार केंद्र-राज्य, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय खेलों के नियमन के लिए कानून बना सकती है। यह अधिकार किसी राज्य सरकार को नहीं हो सकता।


उत्तर प्रदेश में अभी निजी उद्यमी ने राज्य सरकार के सहयोग से फार्मूला-वन का सफल आयोजन कराया है। अगर राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हुई गड़बड़ियों से तुलना करें तो आपको नहीं लगता कि खेलों को निजी व्यावसायिक घरानों को दे देना चाहिए?

देखिए.अगर यह खेल कानून होता तो राष्ट्रमंडल जैसा घोटाला नहीं होता। तथ्य यह है कि यह कानून भारतीय ओलंपिक संघ समेत सभी खेल संघों को निजी संस्थाओं की तरह स्वायत्तता देता है। सरकार सिर्फ इन संघों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिलने वाले या खर्च होने वाले धन के प्रति जवाबदेह करना चाहती है। इसके अलावा सरकार खेल में निजी भागीदारी का स्वागत करती है।


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