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असफल आर्थिक मॉडल

जागरण मेहमान कोना
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Bharat Jhunjhunbalaकेंद्र सरकार की गलत आर्थिक नीतियों को भारत की रेटिंग घटने का मुख्य कारण मान रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला

वैश्विक रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने भारत की रेटिंग पर नजरिया स्थिर से नकारात्मक कर दिया है। रेटिंग संस्थाएं बाजार में उपलब्ध बांड की विश्वसनीयता का आकलन करती हैं। रेटिंग संस्था आकलन करती है कि कंपनी के लाभ कितने हैं, उसी क्षेत्र में कार्यरत दूसरी कंपनियों की तुलना में इस कंपनी की वित्तीय स्थिति कैसी है, जिस क्षेत्र में कंपनी कार्यरत है, उसका भविष्य कैसा है इत्यादि। संस्था द्वारा बताई गई रेटिंग के आधार पर निवेश करना आसान हो जाता है, क्योंकि संस्था के पास तमाम जानकारी होती है, जो निवेशक को उपलब्ध नहीं होती। पहले स्टैंडर्ड एंड पुअर्स का नजरिया सकारात्मक था यानी आने वाले समय में संस्था को अर्थव्यवस्था में सुधार की आशा थी। अब अर्थव्यवस्था में गिरावट की आशंका है इसलिए रेटिंग को बीबीबी-माइनस लिखा जा रहा है। नजरिये के नकारात्मक होने का उतना ही दुष्प्रभाव पड़ेगा जितना रेटिंग घटाने का। डूबते जहाज पर व्यापारी अपना माल नहीं लादता तो फिर डूबती अर्थव्यवस्था पर निवेशक अपनी पूंजी क्यों लगाएंगे? स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने नजरिया नकारात्मक करने के चार कारण बताए हैं-निवेश में गिरावट, विकास दर में गिरावट, व्यापार घाटे में वृद्धि एवं राजनीतिक अस्थिरता।


मेरी समझ में ये चारों कारण मनमोहन सिंह द्वारा लागू किए गए विकास के विकृत मॉडल से उत्पन्न हुए हैं। मनमोहन सिंह की सोच में बड़ी कंपनियों का वर्चस्व सर्वोपरि है। वह समझते हैं कि बड़ी कंपनियां भारी मात्रा में निवेश करेंगी। इससे निवेश बढ़ेगा। यह निवेश आधुनिक पूंजी सघन उद्योग में किया जाएगा। कंपनियों द्वारा सस्ता माल बनाया जाएगा। इससे विकास दर बढ़ेगी। सस्ते माल का निर्यात करके भारत विश्व अर्थव्यवस्था में अपना स्थान बनाएगा। इससे व्यापार घाटा नियंत्रण में आएगा। कंपनियों को भारी लाभ होगा। इस लाभ के एक अंश को भारत की सरकार द्वारा टैक्स के रूप में वसूला जाएगा। टैक्स की इस वसूली से सरकार का वित्तीय घाटा नियंत्रण में आएगा। टैक्स की इस रकम के एक हिस्से से मनरेगा जैसे लोक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएंगे। इससे राजनीतिक स्थिरता स्थापित होगी। इस प्रकार निवेश, आर्थिक विकास, व्यापार घाटा एवं राजनीतिक स्थिति, सभी ठीक हो जाएंगे। इस मॉडल के तहत मनमोहन सिंह ने खुदरा बिक्री में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश देने की वकालत की थी।


मनमोहन सिंह का यह आर्थिक मॉडल असफल है, क्योंकि बड़ी कंपनियों द्वारा पूंजी-सघन उत्पादन का आम आदमी पर भयंकर दुष्प्रभाव पड़ता है, जिसे मनरेगा जैसे कार्यक्रम से थामना संभव नहीं है। यूं समझें कि दूधवाला प्रतिदिन शहर दूध बेचने जाता है। वह साल के 365 दिन 250 रुपये कमाता है। मोटर साइकिल से आता-जाता है। ऐसे में बड़ी कंपनी द्वारा सस्ता दूध बाजार में पेश किया जाता है। दूधवाले का धंधा बंद हो जाता है। अब उसे मनरेगा में 125 रुपये की दर से 100 दिन का रोजगार मिलता है। उसके जीवनस्तर में गिरावट आती है। एक ओर जहां गरीबतम बेरोजगारों को मनरेगा से रोजगार मिल रहा है वहीं करोड़ों लोगों के रोजगार के हनन से भयंकर असंतोष भी उत्पन्न हो रहा है। ऋषिकेश के बस स्टैंड पर चार वर्ष पूर्व ठेले पर चना बेचने वाले से बातचीत हुई थी। वह घर से चना भूनकर लाता था। उसने बताया कि बड़ी कंपनियों द्वारा पैक किए गए नमकीन से उसके सामने प्रतिस्पर्धा कठिन हो रही है। हाल में मैं बस स्टैंड गया तो उसका ठेला नदारद था। धंधे की मार खाकर वह भी मनरेगा की शरण चला गया होगा। ऐसी ही हालत देश के करोड़ों बुनकरों की हो गई है। मनमोहन सिंह की चली तो नुक्कड़ की खुदरा बिक्री की दुकान की भी यही गति होगी। आम आदमी की दुर्गति को संभालने के लिए मनमोहन सिंह ने लोन माफी एवं मनरेगा जैसे कार्यक्रम में खर्च बढ़ाया है। डीजल, खाद्य एवं खाद सब्सिडी घटाना भी संभव नहीं हो रहा है इसलिए सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है।


कंपनियों द्वारा दिए गए टैक्स में जितनी वृद्धि हो रही है, उससे ज्यादा मनरेगा, सब्सिडी आदि में खर्च बढ़ रहे हैं। इस वित्तीय घाटे की भरपाई के लिए सरकार रिजर्व बैंक से ऋण ले रही है। रिजर्व बैंक ने नोट छापने के प्रेस की रफ्तार बढ़ा दी है। फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है। कंपनियों के बोर्ड में खतरे की घंटी बजने लगी है। उन्हें दिखने लगता है कि आज लिए गए ऋण की भरपाई करने के लिए कल सरकार को भारी मात्रा में टैक्स वसूल करना पड़ेगा और भविष्य में उनके लाभ कम होंगे। इससे निवेश कम हो रहा है। निवेश में कमी से सस्ते माल का उत्पादन नहीं हो रहा है और देश का निर्यात दबाव में है। व्यापार घाटा बढ़ रहा है और रुपया टूट रहा है। मनमोहन सिंह ने सोचा था कि बड़ी कंपनियों के कंधे पर चढ़कर वह निवेश, विकास दर और निर्यात बढ़ाएंगे, पर हो रहा है इसका ठीक उलटा। आम आदमी पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से मनमोहन सिंह अनभिज्ञ हैं अथवा अनभिज्ञ रहना चाहते हैं।


मनमोहन सिंह की पॉलिसी उसी प्रकार है जैसे जमींदार को सब्सिडी देकर सोचा जाए कि बंधुआ मजदूर की स्थिति में सुधार होगा अथवा बरगद के पेड़ को पानी देकर आशा की जाए कि उसकी छांव में पौधे पनपेंगे अथवा गली के गुंडे को तमंचा देकर विश्वास किया जाए कि मोहल्ले में सुख-शांति होगी। इसी प्रकार रोजगार भक्षण करने वाले पूंजी-सघन निवेश को प्रोत्साहन देकर आम आदमी की स्थिति में सुधार की अपेक्षा करना गलत है। बड़ी कंपनियों के आतंक से आम आदमी परेशान है और राजनीतिक अस्थिरता ने पैठ बना ली है। ऊपर से अहंकार ने स्थिति को बिगाड़ दिया है। खुदरा बिक्री में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने, तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे तथा रेल किराए में वृद्धि की योजनाओं पर ममता बनर्जी से पहले सहमति नहीं ली गई। आम आदमी के उद्वेलन के कारण ममता बनर्जी नहीं हिलीं, जो कि ठीक ही था। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स द्वारा नजरिया नकारात्मक किया जाना मनमोहन सिंह के चिंतन का तार्किक परिणाम है। स्पष्ट करना चाहूंगा कि भाजपा द्वारा भी यही मॉडल अपनाया गया है। भाजपा का दावा है कि इस मॉडल को वह ज्यादा ईमानदारी से लागू कर सकेगी। देश की दूसरी पार्टियों को कांग्रेस-भाजपा के इस दुश्चिंतन से हटकर सोचना पड़ेगा अन्यथा भारत की अर्थव्यवस्था के फिसलने की आशंका बढ़ती जा रही है।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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