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फिर चौंका सकता है यूपी

जागरण मेहमान कोना
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Prashant Mishraविधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर निगाह डाल रहे हैं प्रशांत मिश्र


उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल को चार बड़े दलों और रालोद, पीस पार्टी तथा जदयू जैसे छोटे दलों ने दिलचस्प बना दिया है। बीते एक साल में सभी बड़े दलों ने रैलियों, यात्राओं और धरना-प्रदर्शनों से पूरे प्रदेश को मथ डाला है। यह जनतांत्रिक जोश सराहनीय है, क्योंकि इसके जरिए जनजागरण हुआ है और मतदाताओं को चुनने के लिए विकल्प भी मिले हैं। यह तय है मुकाबला मोटे तौर पर चतुष्कोणीय होगा, लेकिन इसी वजह से मतदाताओं के मन को समझ सकना भी कठिन हो गया है। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने बड़ा उलटफेर करके पहले से ही राजनीतिक पंडितों का भरोसा तोड़ दिया है। उस समय किसी को यह अनुमान नहीं था कि कांग्रेस पार्टी सिर्फ दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव से दोगुने से भी अधिक मत प्राप्त कर सकती है।


बहुकोणीय मुकाबलों में अनुमान लगा पाना वैसे भी थोड़ा कठिन होता है। ऐसे चुनाव में वोटों और सीटों का अनुपात अत्यधिक असंतुलित हो जाता है। इसका एक उदाहरण बसपा है, जिसे उत्तर प्रदेश में 2009 लोकसभा चुनाव में 2007 विधानसभा चुनाव की तुलना में सिर्फ तीन प्रतिशत वोट कम मिले। अगर विधानसभा की सीटों के हिसाब से गणना करें तो बसपा को सिर्फ तीन प्रतिशत वोट गंवाने पर अपनी 206 सीटों में से 106 सीटें गंवानी पड़ी। आमतौर पर संशय की ऐसी स्थिति में अस्पष्ट जनादेश की संभावना बनती है। इसमें दुविधा बढ़ने का एक कारण यह भी है कि चुनाव नतीजों के तुरंत बाद सभी दल सरकार बनाने के लिए नए तरीके के समीकरण बनाने में भी संकोच नहीं करते। तब के लिए आज इतना ही कहा जा सकता है कि सपा-बसपा और भाजपा-कांग्रेस में गठजोड़ नहीं हो सकता।


बसपा को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत के साथ पूरा कार्यकाल मिला है। इसलिए, बाकी सभी दलों का सबसे प्रबल प्रहार बसपा पर ही है। इससे प्रदेश में बसपा की नकारात्मक छवि भी तारी होती जा रही है, लेकिन इससे बसपा की चुनावी संभावनाओं पर बहुत अधिक असर पड़ने का अनुमान लगाना अभी जल्दबाजी होगी। यह सही है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को शहरी और सवर्ण मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिला था, लेकिन बसपा शासन की अराजकता से असंतुष्ट होकर ये वर्ग बसपा का साथ छोड़ सकते हैं। बसपा की शक्ति यह है कि उसके पास 11 प्रतिशत जाटवों और नौ प्रतिशत अन्य अनुसूचित जनजातियों का थोक वोट लगभग सुरक्षित है। मूर्तियों, स्मारकों पर बेशुमार खर्च कर मायावती प्रबुद्ध वर्ग में अलोकप्रिय अवश्य हुई हैं। मंत्रियों के भ्रष्टाचार और उनकी विदाई ने भी बसपा के खिलाफ माहौल बनाया है, लेकिन उनके अपने 20 प्रतिशत दलित मतदाता मूर्तियों और स्मारकों को आज भी अपने सांस्कृतिक सशक्तीकरण का प्रतीक मानते हैं। बसपा ने सत्ता में सवर्णो को चाहे जितनी अधिक अहमियत क्यों न दी हो, वास्तव में दल के अंदर बहुत गंभीरता से दलित प्रभुत्व बनाए रखा है। बसपा सरकार ने पहली बार बिखरी हुई अति पिछड़ी जातियों को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है।


इधर प्रदेश का मुख्य विरोधी दल होने के नाते सपा खुद को लखनऊ की सत्ता का सबसे सशक्त दावेदार मान रही है। बसपा के पांच साल के शासन ने सपा की पुरानी सरकार की अराजकता को धुंधला कर दिया है। मुलायम सिंह यादव ने पहले से ही अपनी जिम्मेदारियां अपने उत्तराधिकारी अखिलेश यादव को सौंप रखी हैं। सपा की साइकिल बीते साल भर से प्रदेश की धूल भरी सड़कों पर दौड़ रही है। यह भी सही है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सपा दूसरी जातियों के प्रभावशाली नेताओं और पुराने समाजवादियों के व्यापक गठजोड़ को बनाए रखने में अभी तक सफल रही है। सपा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अब उसके मंडलवाद की एकजुटता काफी कमजोर हुई है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा का एक प्रभावशाली तबका भी बसपा, भाजपा और कांग्रेस में चला गया है। केंद्र द्वारा मुसलमानों को दिए गए साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण ने सपा के लिए चुनौती बढ़ा दी है। ऐसी स्थिति में सपा को अपनी सफलता के लिए यादवों के एकमुश्त वोट के अलावा अन्य कई जातियों से थोड़े-थोड़े वोटों की व्यवस्था करनी पड़ेगी।


उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर पर रहने वाली भाजपा में आज सबसे अधिक दिशाहीनता दिखती है। दिल्ली और लखनऊ, दोनों सत्ता केंद्रों में विरोधी दल होने के नाते उसका अभियान मतदाताओं को आकर्षित कर सकता था, लेकिन भाजपा नेतृत्व की आम जनता के बीच गिरी साख के चलते भाजपा चुनाव के एक महीने पहले तक मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में उतनी सफल नहीं दिखती। प्रदेश में उसकी स्थिति ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली है। प्राय: तीनों दलों ने अपने प्रत्याशियों की सूची जारी करना शुरू कर दिया है, लेकिन भाजपा अपने माननीयों की मान मनौव्वल में लगी हुई है। प्रदेश में भाजपा अपनी सांगठनिक समस्याओं और नेतृत्व की व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं से ही जूझती नजर आ रही है।


इधर उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस फिर से 2009 लोकसभा चुनाव के चमत्कार की पुनरावृति की उम्मीद संजोये है। राहुल गांधी अपनी साख को दांव पर लगाकर प्रदेश को मथने में लगे हैं। राहुल की युवा तुर्क की नई छवि बनाने की कोशिशें हो रही हैं। अब वह प्रदेश में अपनी मीटिंगों, रैलियों के अपने भाषण में लगातार बाहें चढ़ाते नजर आते हैं। उनका लहजा आक्रामक है। वह मीटिंग में आई जनता को भ्रष्टाचार पर गुस्सा न होने पर थोड़ा फटकारते भी हैं। साफ है कि कांग्रेस ने राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान के आरंभ से ही उतार कर एक बड़ा दांव खेला है। राहुल ने भट्टा पारसौल में हस्तक्षेप करके उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति के चलते एक प्रकार से पूरे देश की भूमि अधिग्रहण नीति, एसईजेड नीति और यहां तक कि रियल एस्टेट तथा औद्योगिक नीति को झटका देने में संकोच नहीं किया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 22 साल से सत्ता से बाहर है। एक बार मौका देने की कांग्रेस की अपील को जनता कैसे लेती है, यह देखना होगा। दिक्कत केवल एक ही है कि केंद्र के शासन की खराब छवि से उसे समस्या हो रही है। अगर अन्ना ने यूपी में प्रचार किया तो इसका नुकसान कांग्रेस और बसपा को कितना होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है।


हालांकि, कांग्रेस ने चुनाव घोषित होने के ऐन पहले अल्पसंख्यक आरक्षण कार्ड खेलकर सपा, बसपा और पीस पार्टी, तीनों के लिए ही चुनौती खड़ी की है। वैसे मुलायम सिंह यादव को अभी भी भरोसा है कि मुस्लिम मतदाताओं की वरीयता सपा ही होगी। पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में भी विधानसभा चुनाव है, लेकिन दोनों ही राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा के लिए इन राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश अभी तक ज्यादा फोकस में है।


लेखक प्रशांत मिश्र दैनिक जागरण में राजनीतिक संपादक हैं


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