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कांग्रेस की नाकाम कोशिश

जागरण मेहमान कोना
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कांग्रेस भयभीत है-किसी दूसरे से नहीं, बल्कि स्वयं से, स्वयं की डरावनी छवि से और केंद्र की असफलताओं से। संप्रग-2 के कार्यकाल ने उसे देश और शेष विश्व में अलोकप्रिय बनाया है। भ्रष्टाचार संस्थागत हुआ है और महंगाई जानलेवा। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री आर्थिक मोर्चे पर भी विफल हुए हैं। आमजन हताश और निराश हैं। अनेक मंत्रियों पर आरोप हैं। घटक दल भी पटक रहे हैं। सो कांग्रेस अपना चेहरा बदलने की कोशिश में है। संगठन और सरकार, दोनों में ही फेरबदल की कवायद है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार का चेहरा हैं। प्रधानमंत्री मुख्य नीति निर्माता और भारत के सर्वोच्च प्रतिनिधि होते हैं। प्रख्यात राजनीतिक चिंतक हेराल्ड लास्की ने प्रधानमंत्री को मंत्रिपरिषद के जीवन और मृत्यु का केंद्र बिंदु बताया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र के विद्वान, अतिरिक्त शालीन, लेकिन अपने कर्तव्य पालन में हद दर्जे तक उदासीन हैं। कोयला घोटाले की जद में वह भी आए। मुख्य विपक्ष ने उनसे त्यागपत्र मांगा था।


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उन पर कॉरपोरेट प्रभाव में नीतियां बनाने के आरोप ताजा हैं। मनमोहन सिंह यही शालीन और उदासीन भाव लेकर हट जाते तो सरकार का चेहरा बदल जाता। सरकार नए रूप और स्वरूप में होती। सरकार की छवि का नया अध्याय शुरू होता, लेकिन सरकार का असली रूप-स्वरूप जस का तस है। इस फेरबदल से राष्ट्र को कुछ नहीं मिला? अब कांग्रेस संगठन में भी फेरबदल की चर्चा है। कांग्रेस के सामने जीवन-मरण का प्रश्न है। उसके पास असफलता के बहाने भी नहीं हैं। वह लगातार दूसरी बार अपना कार्यकाल पूरा कर रही है। बेशक दोनों कार्यकाल गठबंधन के हैं, लेकिन नीति नियंता कांग्रेस ही रही है। सफलता और विफलता उसी की है। प्रधानमंत्री बुरी तरह विफल हुए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की हैसियत और प्राधिकार का सदुपयोग नहीं किया। जो कुछ कहा गया उन्होंने उतना और वैसा ही किया। उनकी आलोचनाएं हुईं। उन्हें आतंकवाद से लड़ने में कमजोर बताया गया। वह अनिर्णय के दोषी कहे गए।


अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उन्हें अंडर अचीवर यानी विफल कहा। सरकार की छवि खराब हुई। भ्रष्टाचार को लेकर देश की साख को भी बट्टा लगा। मूलभूत प्रश्न है कि आम चुनाव के महायुद्ध की तैयारी में जुटी कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विदाई क्यों नहीं दी? आखिरकार असफल सेनापति के नेतृत्व में ही सरकार चलाने और आम चुनाव में जाने का आत्मघाती निर्णय कांग्रेस ने क्यों लिया? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं ही देशहित में क्यों नहीं हट गए? उनके त्यागपत्र से कांग्रेस और समूची भारतीय राजनीति में नया उत्साह आता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मंत्रिपरिषद में फेरबदल प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है। उन्होंने तीसरी बार मंत्रिमंडल बनाया। ताजा फेरबदल को अंतिम कहा जा रहा था, लेकिन चलते-चलाते फेरबदल के भीतर भी चौथा फेरबदल हो गया। लालचंद्र कटारिया घोषित रक्षा राज्यमंत्री का विभाग बदला गया। कपड़ा राज्यमंत्री लक्ष्मी को पेट्रोलियम विभाग दिया गया। राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह के विभाग में फेरबदल हुआ। अनेक मंत्रिगण रुष्ट हुए और अनेक तुष्ट, लेकिन आमजन तो भी असंतुष्ट हैं। विकलांगों की धनराशि में घपले के आरोपी सलमान खुर्शीद अब भारत की विदेश नीति के संवाहक हैं। पेट्रोलियम मंत्रालय बदलने को लेकर भी गंभीर आरोप हैं। जयपाल रेड्डी आहत बताए गए।


कोयला घोटाले को लेकर संसद नहीं चली। पहले यह विभाग प्रधानमंत्री के पास था और बाद में श्रीप्रकाश जायसवाल के पास आया। कोयला घोटाला फेरबदल से मुक्त रहा। मंत्रिपद आवंटन में राज्यवार असंतुलन की भी शिकायतें हुईं। दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी बिना बोले नहीं रह सके। फेरबदल की कवायद बेकार सिद्ध हुई। सरकार जैसी थी वैसी ही चलेगी। आम चुनाव सामने हैं। आठ साल की अलोकप्रियता सरकारी फेरबदल से ही ठीक नहीं हो सकती। कांग्रेस के पास ऐसा निष्ठावान और प्राधिकार से उदासीन कोई दूसरा नेता नहीं है। राहुल गांधी अभी प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व नहीं बना पाए। मनमोहन सिंह मध्यवर्ती प्रबंधन है और प्रबंधक भी। राहुल अपनी सरकार से भी दूर हैं। 2013 या 2014 में होने वाले चुनाव उन्हें सरकार से बहुत दूर ले जाने वाले हैं, लेकिन अब संगठन में फेरबदल की चर्चा है। जैसे प्रधानमंत्री सरकार का मुख्य चेहरा होता है वैसे ही नेहरू परिवार कांग्रेस संगठन का मुख्य चेहरा। कांग्रेस में इस परिवार के बाहर के पदाधिकारियों की कोई हैसियत नहीं होती है। जिनकी होती है वे इसी परिवार के कृपापात्र होते हैं। मंत्रिमंडल में फेरबदल की तरह कांग्रेस संगठन में फेरबदल की चर्चा भी छवि सुधार की प्रायोजित सनसनी है। आखिरकार कांग्रेस संगठन में क्या फेरबदल होगा? क्या कांग्रेस में परिवारतंत्र की जगह लोकतंत्र आएगा? क्या कांग्रेस एक परिवार की प्रॉपर्टी की जगह वास्तव में एक जनतांत्रिक पार्टी बनेगी? सोनिया-राहुल ही कांग्रेस हैं।


सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और राहुल महासचिव। वह कार्यकारी अध्यक्ष हों तो क्या अंतर पड़ेगा? वह महासचिव या कार्यकारी अध्यक्ष न भी रहें तो भी क्या फर्क पड़ेगा? कांग्रेस उनकी है। वह इस पद पर रहें या उस पद पर? कांग्रेस और सरकार वह और उनका परिवार ही चलाएंगे? कांग्रेस उनका निजी पारिवारिक उद्यम है। इसी कांग्रेस पर अब अस्तित्व का संकट है। कांग्रेस मूलभूत राष्ट्रीय चुनौतियों पर चर्चा नहीं चाहती। राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा, विदेशी घुसपैठ और चीन की कुदृष्टि पर कोई चर्चा नहीं। बहस न भ्रष्टाचार पर और न ही महंगाई या अर्थव्यवस्था पर। कोयला घोटाले पर देश उत्ताप में था। कांग्रेस ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मुद्दा उछाला। बहस की दिशा मुड़ गई। वाड्रा पर लगे आरोप कांग्रेस के प्रथम परिवार पर थे। केंद्र और कांग्रेस, दोनों गंभीर आरोपों के घेरे में आए तो फेरबदल का शिगूफा आ गया। सरकार और संगठन में फेरबदल की बातें बेमतलब हैं। कांग्रेस के नीचे की जमीन खिसक रही है। परिधान परिवर्तन व्यक्तित्व नहीं बदलते। कॉस्मेटिक्स वास्तविक सौंदर्य नहीं लाते। बदलाव आते हैं नीति, इच्छाशक्ति और वैचारिक निष्ठा से। नई मंत्रिपरिषद की असली निष्ठा आगामी आम चुनाव है, भारत की ऋद्धि, सिद्धि, समृद्धि नहीं। संगठन में फेरबदल का लक्ष्य भी आगामी चुनाव है, एक आदर्श जनतांत्रिक और अनुकरणीय राजनीतिक दल बनाना नहीं। रूप परिवर्तन पर्याप्त नहीं होता। कांग्रेस की प्राणऊर्जा क्षीण हो चुकी है। आइसीयू के रोगी जैसी। भारत के जनगणमन में कांग्रेस के प्रति कोप है। कांग्रेस चेहरा बदलने की कवायद छोड़े, जननिष्ठा का संकल्प ले, अपनी गलतियां स्वीकार करे, तभी पुनुरुद्धार की आशा करे। चेहरा नहीं दिल-दिमाग बदलें। जाना-पहचाना चेहरा रंगरोगन के बावजूद छिपाए नहीं छिपता।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं


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