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इस वर्ष टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारत का कोई विश्वविद्यालय स्थान नहीं बना पाया है। यह संस्था शोध की गुणवत्ता, स्नातक स्तर पर रोजगार के अवसरों की उपलब्धता, वैश्विक स्तर पर शिक्षा, विषयवस्तु व शिक्षण प्रतिबद्धता और संस्था की अंतरराष्ट्रीय साख जैसे 13 महत्वपूर्ण बिंदुओं के आधार पर विश्व की उच्च शिक्षण संस्थाओं का मूल्यांकन करती है। हालांकि इस वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन भी इस लिस्ट में नीचे आए हैं, लेकिन अब भी उच्च शिक्षा में उनका ही दबदबा है। शीर्ष 10 विश्वविद्यालय अमेरिका और ब्रिटेन के ही हैं। सूची में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी शीर्ष पर है, जबकि ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी दो स्थान की बढ़त हासिल करते हुए अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ ही दूसरे स्थान पर है। दुनिया के श्रेष्ठ 200 संस्थाओं की सूची में अमेरिका के 76 और ब्रिटेन के 31 संस्थानों को स्थान मिला है। इस सर्वेक्षण में भारत के आइआइएम जैसे संस्थान तक किसी श्रेणी में नहीं हैं।
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दूसरी ओर आइआइटी संस्थानों की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग भी लगातार गिर रही है। चीन, जापान, फ्रांस, फिनलैंड, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, थाइलैंड, इजरायल और ताइवान जैसे छोटे देश उच्च शिक्षा के मामले में भारत से काफी आगे निकल गए। इस संदर्भ में मैकेंजी की रिपोर्ट पर भी ध्यान देना चाहिए, जिसमें साफ कहा गया है कि भारत में हर साल पास होने वाले छह लाख इंजीनियरों में से तीन-चौथाई ऐसे होते हैं, जो अपना काम पेशेवर तरीके से नहीं कर पाते। यानी विदेशी विश्वविद्यालय अपने शैक्षिक बाजार व नौकरीयुक्त ढांचे को उच्च रैंकिंग पर रख अपनी ब्रांडिंग हमसे बेहतर कर रहे हैं। तभी उनसे जुड़ी रैंकिंग देने वाली संस्थाएं अपने ब्रांड को श्रेष्ठ बताकर विकासशील देशों में प्रस्तुत कर रही हैं। पूरी दुनिया में भारत के टेक्नोक्रेट अपनी मेधा का लोहा मनवा रहे हैं। दूसरी ओर जिस आउटसोर्रि्सग को लेकर अमेरिका आज डरा हुआ है उसमें भारतीय युवाओं का बड़ा हिस्सा है।
भारत अपनी शैक्षिक श्रेष्ठता के बलबूते अंतरराष्ट्रीय आउटसोर्रि्सग बाजार का सबसे बड़ा हिस्सेदार है, जो कई विकसित देशों को चुनौती दे रहा है। भारत की इसी चुनौती से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा चिंतित हैं। अब यहां सवाल यह पैदा होता है कि फिर ऐसा क्या है जो भारत की उच्च शिक्षण संस्थाओं को विश्व स्तर पर कमतर आंकने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, देश में उच्च शिक्षा से जुड़ी कड़वी सच्चाई यह है कि भारत में उच्च शिक्षा का विकास समान आधार पर न होकर मिस्र के पिरामिड की तरह हुआ। इसके सर्वोच्च शिखर पर आइआइटी, आइआइएम, एम्स और केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसी लगभग 200 संस्थाएं हैं, जिनमें मुश्किल से एक लाख छात्र प्रवेश पाते हैं। दूसरी ओर इस पिरामिड के निचले पायदान पर करीब 300 विश्वविद्यालय और बीस हजार कॉलेज हैं, जिनमें लगभग डेढ़ करोड़ छात्रों का भविष्य तय होता है। इनके बीच डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं, जिनमें से कुछ को छोड़कर शेष को औसत अथवा निम्न स्तरीय श्रेणीक्रम में रखा जाता है। इन सबके बाद कुकुरमुत्तों की तरह फैलती स्ववित्त पोषित संस्थाएं हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना खुद को एक बड़े बाजार के रूप में विकसित कर लिया है। सही मायनों में इन संस्थाओं ने प्रवेश की पात्रता को ध्वस्त करते हुए उच्च शिक्षा के स्तर को गिराया ही है।
इसी कारण राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में साफ कर दिया है कि भारत में 68 फीसद विश्वविद्यालयों और 90 फीसद कॉलेजों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता या तो मध्यम दर्जे की है या दोषपूर्ण है। इन संस्थाओं के 75 फीसद डिग्रीधारी छात्र बेरोजगार हैं। उच्च शिक्षा के आंतरिक ढांचे को देखने से पता लगता है कि उच्च शिक्षा के बजट का 90 फीसद भाग शिक्षकों के वेतन में खप जाता है। पाठ्यक्रम, ज्ञान, कौशल और परीक्षा पद्धति अब भी पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। असल में यही वे मानक बिंदु हैं, जो शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क का निर्धारण करते हैं। उच्च शिक्षा के इन्हीं मानकों पर हम लगातार कमजोर पड़ रहे हैं। विकसित देश आज भारत को एक विशाल बाजार के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में आज शिक्षा बहुत बड़ा बाजार है। तीन लाख से अधिक छात्र ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं। यानी अब भी भारत का बहुत बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लालायित है। भारत सरकार के लिए यह मुमकिन नहीं कि मौजूदा ढांचे में वह इतनी बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा मुहैया कराए। यही कारण है कि सरकार भी विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने को मजबूर है।
इसीलिए अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और जर्मनी जैसे देश अपने संस्थानों की ब्रांडिंग में लगे हैं। इसी सोची-समझी रणनीति के तहत विकसित देशों की प्रायोजित संस्थाएं विश्व स्तर पर रैंकिंग कर उच्च शिक्षा में ज्ञान के नए बाजारवाद को जन्म दे रही हैं। हम विदेशी विश्वविद्यालयों के पिछलग्गू क्यों बनना चाहते हैं? क्यों हम अपनी उच्च शिक्षण संस्थाओं में विश्व स्तर के ढांचागत विकास से कतराते हैं? वह इसलिए क्योंकि हम खुद उच्च शिक्षा से जुड़ी संस्थाओं के लचर ढांचे से पूर्णतया अवगत हैं। एक ओर हमें राजनीति की सीमाओं से बाहर आकर राष्ट्रीय हितों व आवश्यकताओं के अनुरूप उच्च शिक्षा के ढांचे को वैश्विक स्वरूप प्रदान करना होगा। दूसरे, अपनी संस्थाओं को भी वैश्विक फलक पर परचम लहराने के लिए तैयार करना पड़ेगा। तभी भारत उच्च शिक्षा की ग्लोबल रैंकिंग में ऊपर उठ सकेगा।
लेखक विशेष गुप्ता समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं
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