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कांग्रेस के लिए सुधरते हालात

जागरण मेहमान कोना
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Swapan Dasguptaसाल भर से महानगरों में उपहास की पात्र बनी कांग्रेस के पास अब यह मानने के कारण हैं कि ज्वार अब उतरने लगा है। अगर उसके क्रिसमस उत्सव में खलल पड़ा है तो उसका कारण राज्यसभा में लोकपाल बिल पर मतदान से पहले ही आधी रात को मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना है, किंतु कांग्रेस के लिए 2012 की शुरुआत तीन कारणों से आनंददायक कही जा सकती है। पहला कारण है पार्टी की ओर से इस धारणा का प्रचार करना कि वह उत्तर प्रदेश में शानदार वापसी की राह पर है। पहले इसके चौथे स्थान पर आने की उम्मीद जताई जा रही थी। आशावादी अब प्रचार कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के बाद कांग्रेस दूसरे स्थान पर आएगी और बसपा व भाजपा से कहीं आगे रहेगी। यह दावा सच है या थोथा, यह तो 4 मार्च को ही पता चलेगा, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज दिखाई दे रहे हैं। दूसरे, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में उपजे तनाव से केंद्र में संप्रग सरकार के गिरने पर कोई प्रत्यक्ष खतरा दिखाई नहीं दे रहा है। इसके बजाय भारत की सबसे पुरानी पार्टी आश्चर्यजनक रूप से चुनौतियों पर भारी पड़ती नजर आ रही है। चर्चा है कि गठबंधन साझेदारों में बदलाव अपेक्षित है। तृणमूल कांग्रेस के स्थान पर समाजवादी पार्टी संप्रग कुनबे का हिस्सा बन सकती है।


अगर अटकलों पर भरोसा करें तो यह तय हो चुका है कि अगले रेलमंत्री मुलायम सिंह यादव या फिर उनके बेटे अखिलेश बनेंगे। पूर्वानुमान लगाया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में अगली सरकार सपा की बनेगी और कांग्रेस इसमें शामिल होगी या फिर बाहर से समर्थन देगी। और आखिरी कारण है कि मीडिया की सहायता से कांग्रेस के प्रचारकों को भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के दोहरे रवैये को जनता तक ले जाने का मौका मिल गया है। इसमें बाबूसिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल करने की खबर ने आग में घी का काम किया। चौतरफा दबाव के बाद भाजपा ने कुशवाहा की सदस्यता को स्थगित कर दिया, लेकिन तीर तो निकल ही चुका था। बेहतर यह होता कि भाजपा या तो बाबू सिंह कुशवाहा को ठुकरा देती या फिर उन्हें पार्टी में शामिल करने के फैसले पर अड़ जाती। इसके बजाय भाजपा ने पहले तो कुशवाहा को गले लगाया और फिर आंतरिक लोकतंत्र को सार्वजनिक लोकतंत्र में बदल डाला। जो खबर एक दिन की सुर्खी बननी चाहिए थी, वह तीन दिनों तक छाई रही, क्योंकि भाजपा के विभिन्न गुट टिकटों के बंटवारे पर अपनी दुश्मनी को कुशवाहा की आड़ में निकाल रहे हैं। यह सच है कि कुशवाहा पर फैसला गुटबाजी और जातीय आग्रहों के कारण लिया गया। एक पहलू यह भी है कि कि कुशवाहा को शामिल करने के बाद उच्च जातियों और ओबीसी लॉबियों में जबानी जंग छिड़ गई।


कांग्रेस के लिए तो कुशवाहा प्रकरण वरदान साबित हुआ। इसने कांग्रेस को नैतिकता की डींग मारने का मौका दे दिया। यह कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है। कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है। दुर्भाग्य से भाजपा ऐसी पार्टी है जिसका लोकाचार मध्यवर्गीय मूल्यों से निर्देशित होता है। आरएसएस की मेहरबानी से परंपरागत रूप से भाजपा ऐसी पार्टी रही है, जो शुचिता का दम भरती थी। इस मामले में वह महात्मा गांधी के आदर्शो पर चलने की बात करने वाली कांग्रेस पर भारी पड़ती थी। इसे निर्वाचन पर लागू करें तो इसमें निहित है कि कांग्रेस वाईएस राजशेखर रेड्डी के साथ अधिक सहजता से निर्वाह कर सकती है, किंतु भाजपा इतनी आसानी से बीएस येद्दयुरप्पा को हजम नहीं कर सकती। कांग्रेस में संरक्षण की परंपरा है, जबकि भाजपा में निष्कपटता को पसंद किया जाता है। इसके बावजूद भाजपा चोरी-छुपे जातीय खेल खेलेगी ही, क्योंकि इसकी एक आंख समांगी राष्ट्रवाद पर लगी रहती है।


कांग्रेस और भाजपा में एक और बड़ा अंतर है। पिछले माह कांग्रेस ने आसानी से अजित सिंह और उनके राष्ट्रीय लोकदल को संप्रग में शामिल कर लिया। यह इस तथ्य के बावजूद किया गया कि 2009 के आम चुनाव में वह भाजपा के साथ उतरे थे। बहुत से कांग्रेसी इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे, किंतु वे इसलिए चुप रहे, क्योंकि कांग्रेस इस सिद्धांत पर चलती है कि हाईकमान, दूसरे शब्दों में प्रथम परिवार, का फैसला ही अंतिम फैसला है। दूसरी तरफ, भाजपा अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक है। जिस जोरदारी के साथ योगी आदित्यनाथ, मेनका गांधी और कुछ अन्य नेताओं ने कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने पर विरोध जताया, वह कांग्रेस हाईकमान द्वारा लिए गए विवादित फैसलों पर कांग्रेसियों की चुप्पी के ठीक उलट है। सवाल यह है कि इन दोनों में से कौन सा रुख बेहतर है? एक तरफ कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव का रोना रोया जाता है, वही दूसरी ओर मध्यवर्ग पार्टी की अंदरूनी कलह को लेकर बेचैनी दिखाता है और इसे अनुशासनहीनता के दायरे में रखता है। इस तबके में विवादग्रस्त लोकतंत्र को भी उसी उत्साह से लिया जाता है जिस उत्साह से अनुशासित लोकतंत्र को।


स्पष्ट है कि यह मध्यवर्गीय मनोभाव छन कर हमेशा निचले स्तर तक नहीं पहुंचता। मायावती के जन्मदिवस के उत्सव और काशीराम के भव्य स्मारकों को लेकर मध्य वर्ग मायावती की खिल्ली उड़ाता है, किंतु यह साफ है कि मायावती के तड़क-भड़क वाले रहन-सहन को गरीब दलितों में मान्यता हासिल है। वे उनकी सफलता और संपन्नता को सामुदायिक गौरव के प्रतीक के रूप में देखते हैं। दूसरे शब्दों में भड़कीलेपन को हमेशा नापसंद नहीं किया जाता। इससे स्पष्ट होता है कि क्यों कुशवाहा मामले में भाजपा के खिलाफ नैतिक मूल्यों में ह्रास का विस्फोट उत्तर प्रदेश चुनावों में निर्णायक घटक नहीं होगा।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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