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ताकत और दुस्साहस का प्रदर्शन

जागरण मेहमान कोना
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gauri shankar rajhansगत रविवार को तालिबानों ने काबुल तथा अफगानिस्तान के दूसरे शहरों में जिस तरह का नरसंहार किया उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। काबुल में अफगान संसद, डिप्लोमेटिक एनक्लेव, अफ्रीकी दूतावास, तुर्की दूतावास, राष्ट्रपति आवास, ईरानी दूतावास पर श्रृंखलाबद्ध तरीके से हमले हुए। हमला तो अमेरिकी दूतावास के करीब भी हुआ। इसके अलावा तालिबान आतंकवादियों ने देश के कई प्रांतों में सरकारी कार्यालय, हवाई अड्डों, राजनयिकों के कार्यालयो, उनके निवासों और नाटो शिविरों पर हमले किए। सौभाग्य से भारतीय दूतावास पर हमला नहीं हुआ, लेकिन तालिबान इसे पहले दो बार निशाना बना चुके हैं। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि तालिबान आतंकवादियों ने संसद भवन में उस समय घुसने का प्रयास किया जब संसद का सत्र चल रहा था। तलिबानी प्रवक्ता ने ई-मेल संदेश में कहा है कि यह तो खतरनाक हमलों की सिर्फ झलक मात्र है। जब काबुल में तालिबान आतंकवादियों का हमला हो रहा था उसके कुछ घंटों पहले उसके एक धड़े ने उत्तर पश्चिम पाकिस्तान की एक जेल पर हमला करके 384 कट्टर आतंकवादियों को जेल से छुड़ा लिया। इन दोनों घटनाओं को मिलाकर देखने से लगता है कि तालिबान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मजबूत हो रहे हैं और अमेरिका का यह प्रयास कि शरीफ तालिबानों के साथ समझौता किया जाए और उन्हें अफगानिस्तान की राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने का लालच दिया जाए, बेकार साबित हुआ।


एबटाबाद दोहराना होगा


पिछले कुछ महीनों से अमेरिका यह प्रयास कर रहा था कि वह शरीफ तालिबानों से बातचीत करे। उन्हें यह समझाया जाए कि जब 2014 में अमेरिका और नाटो की फौज अफगानिस्तान से चली जाएगी तब सत्ता की कमान तालिबानों को ही मिलेगी। शुरू में तो कुछ तालिबान अमेरिकी और करजई सरकार के प्रतिनिधियों से बातचीत करने को तैयार हो गए, परंतु बाद में जब खूंखार आतंकवादियों ने उन्हें डराया-धमकाया और उनमें से कुछ लोगों के परिजनों की हत्या कर दी तब सभी शरीफ तालिबान भाग खड़े हुए। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका की नीति उसी तरह असफल हो रही है जैसी वियतनाम में हुई थी। 80 के दशक में जब सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में दखल दिया था तभी अमेरिका ने पाकिस्तान को यह समझाया था कि वह अफगानिस्तान के विद्रोहियों को अपनी जमीन पर हथियार चलाने की ट्रेनिंग दे। इसके लिए बेशुमार धन अमेरिका ने दिया। 90 का दशक शुरू होते-होते सोवियत संघ की आर्थिक हालत अत्यंत ही खस्ता हो गई और उसने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली। सोवियत सेना के वापस होते ही उनसे लड़ रहे तालिबानी गुटों में संघर्ष शुरू हो गया। अंत में पश्तूनों के नेतृत्व में तालिबानों का एक गुट उभरा जिसने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को हटाकर काबुल पर कब्जा कर लिया।


शुरू में तालिबान अफगानिस्तान में आम जनता में बहुत ही लोकप्रिय थे और अमेरिका को ऐसा लगने लगा कि अफगानिस्तान का शासन शरीफ लोगों के हाथों में आ गया है, परंतु देखते ही देखते तालिबान कट्टरपंथी हो गए और उन्होंने आम जनता पर खासकर महिलाओं और लड़कियों पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए। उन्होंने अफगानिस्तान में बामियान में विश्व प्रसिद्व बुद्ध प्रतिमा को ग्रेनेडों के हमलों से नष्ट कर दिया और यह एलान कर दिया कि अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में केवल इस्लामिक कानून लागू होगा। जब 9/11 को अमेरिका पर तालिबानों ने भयानक नरसंहार किया तब बदला लेने के लिए और बिन लादेन को खोजने के लिए अमेरिका ने 7 अक्टूबर, 2001 को अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और तालिबानों को सत्ता से बेदखल कर दिया। पिछले एक दशक से अमेरिका और नाटो की फौज अफगानिस्तान में तालिबानों के खिलाफ लड़ रही है। हाल में नाटो फौज के शीर्ष अधिकारियेां ने अपनी एक गुप्त रिपोर्ट में कहा है कि जब 2014 में विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान से वापस चली जाएंगी तब पूरे अफगानिस्तान में तालिबान फिर अपना कब्जा जमा लेंगे। इसमें संदेह नहीं कि अफगानिस्तान की स्थिति अत्यंत ही उलझी हुई है। जब गत दिनों तालिबानों ने करजई के राष्ट्रपति भवन पर गोलों से हमला किया तो करजई के अंगरक्षक उन्हें सुरक्षित रूप से किसी गुप्त स्थान पर ले गए।


ऐसा लगता है कि करजई को अपनी जान का पूरा खतरा है। इसीलिए उन्होंने हाल में यह एलान किया है कि वह 2014 के बदले 2013 में ही राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे देना चाहते हैं। कारण यह दिया गया है कि 2014 में जब अमेरिका और नाटो की फौज अफगानिस्तान से रवाना हो जाएगी और तब अफगानिस्तान में घोर अराजकता फैल जाएगी। प्रश्न यह उठता है कि जब तालिबानों ने काबुल और अफगानिस्तान के दूसरे शहरों में इस तरह का तांडव मचाया था उसकी खबर पहले से ही करजई सरकार तथा अमेरिकी और नाटो के गुप्तचरों को क्यों नहीं हुई? निष्पक्ष विश्लेषकों का मानना है कि अफगानिस्तान की आम जनता अब यह समझ बैठी है कि करजई सरकार या अमेरिका और नाटो की फौज उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है। इसलिए डरकर या लाचारीवश वे अपने संरक्षण के लिए तालिबानी आतंकवादियों के पास ही जा रहे हैं। लगता यह है कि अमेरिका और नाटो की फौज के चले जाने के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भयानक गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाएगी और भारत निश्चित रूप से उससे प्रभावित होगा। भारत सरकार को आम जनता को यह बताना चाहिए कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हो रहे तालिबानी नरसंहार के दुष्परिणामों से वह भारत को कैसे बचाएगी?


डॉ. गौरीशंकर राजहंस पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं


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