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सरकारी मशीनरी के निशाने पर टीम अन्ना

जागरण मेहमान कोना
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दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के जन आंदोलन से सबक लेने के बजाय संप्रग सरकार बदले की कार्रवाई के सिद्धांत में ही आस्था जता रही है। जिस तरह सरकार अपनी मशीनरियों को सक्रिय कर टीम अन्ना के सदस्यों की घेराबंदी तेज कर दी है, उससे तो यही लगता है कि सरकार अपनी फजीहत के लिए टीम अन्ना को ही जिम्मेदार मान रही है और अब उन्हें सबक सिखाने की भी ठान ली है। लेकिन सरकार को पता होना चाहिए कि बदले की भावना से उसकी यह कार्रवाई उसकी ही छवि खराब करेगी। अगर सरकार यह समझ रही है कि टीम अन्ना के खिलाफ कार्रवाई करके वह अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल कर लेगी तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी। सच्चाई यह है कि महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सरकार की पोल खुल चुकी है और आमजन ठगा महसूस कर रहा है। ऐसे में सरकार अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रही टीम अन्ना के साथ कूटनीतिक चालें चलती है या उन्हें फांसने का दुस्साहस दिखाती है तो यह तय है कि इसका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ेगा।


टीम अन्ना की घेराबंदी करना सरकार को अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही घातक होगा, लेकिन यह छोटी-सी बात भी सरकार की समझ में नहीं आ रही है। आखिर सरकार को क्या हक बनता है कि वह जनतंत्र की भावना को कुचलने के लिए सत्ता का चाबुक चलाए या लोगों के मुंह पर ताला झुलाए। ऐसा करना लोकतंत्र के उच्च आदर्शो और नैतिक मापदंडों के खिलाफ माना जाता है। फिर भी सरकार के नुमाइंदे टीम अन्ना के सदस्यों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलते देखे जा सकते हैं। आमतौर पर आंदोलन की समाप्ति के बाद यह माना जा रहा था कि शायद सरकार को अपनी गलतियों का अहसास हो गया होगा और अब वह जनहित की दिशा में ठोस पहल कर अपनी छवि दुरुस्त करने की कोशिश कर सकती है, लेकिन सरकार ने अपने आचरण से जन सामान्य के पूर्वानुमान को गलत साबित कर दिया है। न तो वह जन आंदोलन से सबक लेने को तैयार दिख रही है और न ही अपने पुराने अडि़यल रुख में नरमी लाने पर विचार कर रही है। पहले की तरह अब भी सरकार के नुमाइंदे टीम अन्ना पर जहर बुझे तीर छोड़ रहे हैं।


सरकारी मशीनरियों की अचानक बढ़ी सक्रियता और टीम अन्ना के सदस्यों की तेज होती घेराबंदी कुछ अच्छा संकेत नहीं दे रही है। टीम अन्ना के चाणक्य कहे जाने वाले अरविंद केजरीवाल को आयकर विभाग की ओर से दिए गए नौ लाख रुपये के बकाए भुगतान की नोटिस को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा के आइआरएस अधिकारी रहे हैं और उन्होंने 2006 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन हैरत की बात यह है कि विभाग द्वारा उनका इस्तीफा अभी तक मंजूर नहीं किया गया है। उससे भी मजेदार बात यह है कि कई साल गुजर जाने के बाद अब जाकर राजस्व विभाग को होश आया है कि केजरीवाल ने सेवा-शर्तो का उल्लंघन किया है। इन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए अगर टीम अन्ना इस खेल में सरकार की भूमिका तलाश रही है तो इसे अनुचित कैसे कहा जा सकता है? सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर केजरीवाल ने सेवा-शर्तो का उल्लंघन किया है तो अभी तक विभाग क्या कर रहा था? आंदोलन के दरम्यान ही विभाग की सक्रियता क्या यह नहीं दर्शाती है कि जान-बूझकर केजरीवाल को परेशान करने की कोशिश की जा रही है? कुछ इसी तरह की सक्रियता बाबा रामदेव को लेकर भी जांच एजेंसिया द्वारा दिखाया जा रही है।


सत्याग्रह से पहले बाबा रामदेव सरकार के लिए आदरणीय थे। सरकार के चार-चार मंत्री दिल्ली एयरपोर्ट पर आगवानी करते देखे गए, लेकिन जब सरकार को लगा कि बाबा रामदेव उसकी साख के लिए खतरा बनने जा रहे हैं तो उनसे शत्रुओं की तरह व्यवहार करने लगी। दिल्ली के रामलीला मैदान में फिर बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के साथ जो कुछ भी हुआ, यह सबको पता है। आज की तारीख में बाबा रामदेव सरकार के निशाने पर हैं। उन पर सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का डंडा जोर से चल रहा है। आए दिन जांच एजेंसिया द्वारा उनकी कंपनियों पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया जा रहा है। अब फेमा के तहत भी कार्रवाई की चर्चा सुनी जा रही है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सरकार बाबा रामदेव की तरह टीम अन्ना को भी अर्दब में लेने के लिए इसी तरह का हथकंडा अपनाने जा रही है? संकेत तो कुछ ऐसे ही मिल रहे हैं।


केजरीवाल के अलावा टीम अन्ना की महत्वपूर्ण सदस्य किरण बेदी के खिलाफ कुछ सांसदों ने विशेषाधिकार हनन का नोटिस दे रखा है। उन पर आरोप है कि वे रामलीला मैदान में मंच पर अभिनय कर सांसदों की खिल्ली उड़ाई है और यह कहा है कि राजनीतिज्ञ एक साथ कई मुखौटे लगाए रहते हैं। इसके अलावा किरण बेदी पर यह भी आरोप है कि उन्होंने अपनी बेटी को गलत तरीके से कॉलेज में प्रवेश दिलाया था। हालांकि किरण बेदी ने साफ कर दिया है कि उन्हें ऐसे किसी भी नोटिस की परवाह नहीं है और न ही वे माफी मांगने वाली हैं। टीम अन्ना के ही एक और सदस्य कुमार विश्वास जो रामलीला मैदान में मंच का संचालन करते देखे गए, उन्हें भी आयकर विभाग द्वारा नोटिस थमा दिया गया है। इसके अलावा प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल को संसद के विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया गया है। प्रशांत भूषण पर आरोप है कि उन्होंने कहा है कि सांसद विधेयक पारित कराने के लिए रिश्वत लेते हैं। भूषण अपने बयान पर अब भी कायम हैं। उनका मानना है कि जनहित में सच बोलना संसद के विशेषाधिकार का हनन नहीं है। यदि ऐसा है तो समय आ गया है कि हम संसद के सारे विशेषाधिकारों की समीक्षा करें। मतलब साफ है कि सरकार और टीम अन्ना के बीच शुरू हुई जुबानी जंग अभी थमने वाली नहीं है, लेकिन इसकी चरम परिणति क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है।


रालेगण सिद्धि के संत अन्ना ने केजरीवाल का बचाव करते हुए सरकार के कुछ नुमाइंदों पर तानाशाही रवैया अपनाने का इल्जाम लगाया है। वह तमाम सवालात को लेकर अब भी सरकार के खिलाफ आंदोलन की मशाल जलाए रखने का हुंकार भर रहे हैं। अगर सरकार अपने रवैए में बदलाव नहीं लाती है और टीम अन्ना पर आक्रमण जारी रखती है तो आने वाले दिनों में सरकार की मुश्किलें बढ़नी तय है। वैसे भी दूसरी आजादी के गांधी ने चुनाव सुधार को लेकर मैदान में उतरने का संकेत दे दिया है। ऐसे में सरकार के लिए अच्छा यह रहता कि वह टीम अन्ना के सदस्यों को फांसने की रणनीति को किनारे रख एक सार्थक लोकपाल बिल पर अपना माथा खपाती। इसके अलावा उन अन्य मसलों पर भी राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श करती, जो टीम अन्ना द्वारा उठाया जा रहा है। इससे सरकार की साख और उसका इकबाल दोनों ही मजबूत होते और आम जनता का उसमें भरोसा भी बढ़ता, लेकिन सरकार अब भी अतीत की कटुता को ही ढोती फिर रही है। वह टीम अन्ना के सदस्यों को झुकाकर क्या हासिल कर लेगी, यह समझ से परे लगता है। यह सही है कि लोकतंत्र के नाम पर सिविल सोसायटी के लोगों को संसद, संविधान और सम्मानित संस्थाओं पर कीचड़ उछालने की छूट नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन यह छूट जनता के प्रतिनिधियों को भी नहीं प्राप्त होनी चाहिए। फिर भी देखा जा रहा है कि जनता के कुछ प्रतिनिधि सिविल सोसायटी और मीडिया पर अनर्गल लांछन लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या जनप्रतिनिधि होने मात्र से उन्हें सबके अपमान की छूट मिल जाती है।


सत्ता पक्ष को तो जाने दीजिए, अभी चंद दिन पहले ही जेडीयू के अध्यक्ष और राजग के संयोजक शरद यादव राष्ट्रपति और राज्यपाल के पद को लेकर अनुचित टिप्पणी करते देखे गए। यह वही शरद यादव हैं, जो जन लोकपाल बिल पर बहस के दौरान संसद में टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी पर फब्तियां कसते देखे गए। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने भी आपत्तिजनक बातें कही। क्या इसे जनप्रतिनिधियों द्वारा उनके विशेषाधिकारों का दुरुपयोग नहीं माना जाएगा? फिर टीम अन्ना पर ही देश के कर्णधारों की नजरें टेढ़ी क्यों है?


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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