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क्या हो राज्यों के पुनर्गठन की कसौटी

जागरण मेहमान कोना
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Pankaj Jhaतेलंगाना पर राजनीतिक दलों द्वारा बिछाई जा रही तरह-तरह के बिसात के बीच आंध्र के एक पड़ोसी राज्य उड़ीसा के गांव में लोगों ने सामूहिक धरना-प्रदर्शन किया। उनकी मांग इस मायने में अनोखी थी क्योंकि वे चाहते थे कि उनके गांव समेत कुछ हिस्से को छत्तीसगढ़ में मिला दिया जाए ताकि वहां हो रहे विकास से वे लोग भी लाभान्वित हों। उड़ीसा का वह इलाका उस बस्तर से लगता हैं जहां दुनिया की नजर में तो गृहयुद्ध जैसे हालात हैं, लेकिन किसी छोटे इकाई में समेट कर अगर राज्य को स्थायित्व मिले और खासकर जमीन से जुड़ा नेतृत्व हो तो किस तरह से जनभावनाओं की पूर्ति हो सकती है इसका उदाहरण माना जा सकता है। राज्य चाहे छोटा हो या बड़ा। कुशल नेतृत्व की दरकार तो हमेशा होती है, लेकिन भारत जैसे प्रभुतासंपन्न राष्ट्र की छतरी के नीचे अधिकार संपन्न छोटी-छोटी इकाइयां विकास का पैमाना बन सकती हैं। यहां एक मौलिक सवाल यह जरूर है कि आखिर हम छोटा कहें किसे? मोटे तौर पर जनसंख्या को आधार बनाकर ही हम यह निर्धारित करते हैं कि किस राज्य को छोटा या बड़ा कहा जाए। अन्यथा, छोटा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ तो बिहार से भी बड़ा है। यहां तक कि प्रदेश का बस्तर ही केरल जैसे राज्यों से बड़ा है। अगर हम जनसंख्या के आधार पर ही आकार निर्धारित करें तब तो अमेरिका को भारत की तुलना में काफी छोटा देश कहा जाएगा, क्योंकि आकार में तिगुना होने के बावजूद उसकी जनसंख्या भारत की लगभग एक तिहाई ही है। आजादी के सातवें दशक में आने के बाद भी आज तक हम यह नहीं तय कर पाए हैं कि आखिर भारत में राज्यों के निर्माण का आधार क्या हो? उसका आकार-प्रकार, जनसंख्या, संस्कृति, भाषा या किसी स्थापित मानदंड के अभाव में सत्ताधारी दल अपनी सुविधा या वोटों के समीकरण के लिहाज से राज्यों का निर्माण करते रहते हैं। फलत: अलग-अलग क्षेत्रों में अलग तरह के आक्रोश पनपने स्वाभाविक हैं।


आजादी से अभी तक देश के लगभग हर कोने में नए राज्यों की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन, खून-खराबा, हिंसा का दौर जारी है। तमाम हिंसक आंदोलनों के बावजूद दशकों से तेलंगाना का मामला लंबित है, लेकिन बात केवल तेलंगाना की ही नहीं है। कहीं हलके तौर पर तो कहीं काफी मुखरता के साथ मिथिलांचल, गोरखालैंड, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड, बघेलखंड, विदर्भ आदि की मांग सामने है। अभी तक के राज्य निर्धारण में बस एक आधार सामने आया जब आंध्र प्रदेश का सबसे पहले भाषा के आधार पर निर्माण हुआ। उस समय तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध कर रहे थे, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास से आंध्र प्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद मौत ने उन्हें अलग तेलगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया। न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग रिपोर्ट आने के बाद ही 1956 में नए राज्यों का निर्माण हुआ और 14 नए राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश बने। फिर 1960 में पुनर्गठन के दूसरे दौर में 1960 में बंबई राज्य को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाया गया। 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा और हिमाचल प्रदेश दो नए राज्यों का गठन हुआ। इसके बाद अनेक राज्यों में बंटवारे की मांग उठी। 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। इसी तरह वर्ष 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आए।


हालांकि पहले राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश में राज्यों के बंटवारे का आधार भाषाई होने के पीछे तर्क दिया गया था कि प्रशासन को आम लोगों की भाषा में काम करना चाहिए ताकि प्रशासन लोगों के नजदीक आ सके, लेकिन पिछले छह दशक का अनुभव यही कहता है कि सत्ताधारियों की नीयत ही सबसे बड़ा आधार हो सकता है। देश के सामने सिर उठाए खड़े आतंकवाद एवं आंतरिक चुनौतियों के संकट के बीच यह सबसे ज्यादा जरूरी है कि देश की विभिन्नताओं का सम्मान करते हुए उसकी वास्तविक जरूरतों के मुताबिक कदम उठाकर यथाशीघ्र राज्य निर्माण संबंधित मुद्दे का निपटारा किया जाना चाहिए। फिलहाल जरूरत एक तीसरे निष्पक्ष राज्य पुनर्गठन आयोग की है जिसमें हर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व हो। अगर वास्तव में इस मुद्दे का निपटारा करने की इच्छाशक्ति हो तो अलग-अलग क्षेत्रों की उप संस्कृतियों को आधार बनाया जाना सबसे सही तरीका हो सकता है। इस तरह एक बार देश में नए राज्य गठन आयोग का गठन कर विशेषज्ञों की सिफारिशों को अमल में लाते हुए नए सिरे से राज्यों का निर्माण किया जाए।


निश्चय ही अगर दस-पंद्रह नए राज्य भी बनाने पड़ जाएं तो यह संघ को मजबूती ही प्रदान करेगा। इससे तंत्र तक लोक का पहुंचना भी सुगम होगा। जिस तरह संसदीय सीटों के लिए 2020 तक सीटों की संख्या नहीं बढ़ाने का प्रावधान किया गया है उसी तर्ज पर एक बार राज्यों का निर्माण हो जाने के बाद संविधान संशोधन के द्वारा यह तय कर दिया जाए कि अगले पचास साल तक किसी नए राज्य का निर्माण संभव नहीं होगा तो जैसे आज लोकसभा में सीटों को बढ़ाए जाने के लिए कोई आंदोलन कहीं नहीं होता उसी तरह राज्य निर्माण का संघर्ष भी समाप्त होना संभव होगा। अपने कार्यकाल में तीन राज्यों का निर्माण करने वाली भाजपा और उसके पूर्ववर्ती जनसंघ सदा से ही छोटे-छोटे राज्यों के पक्षधर रहे हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय पूर्व के 54 जनपदों की तर्ज पर इतने ही राज्य बनाए जाने के पक्षधर थे। इस तरह अभी भी देश में करीब बीस और राज्यों की गुंजाइश शेष है। इसके अलावा एक ही देश में जम्मू-कश्मीर को विशेष हैसियत देना या दिल्ली राज्य का अनोखा मामला जिसमें अन्य तमाम राज्यों के उलट कानून व्यवस्था को राज्य के बदले केंद्र का विषय बना दिया गया है। इसी तरह सात केंद्र शासित प्रदेशों के अस्तित्व की विसंगतियों को भी समाप्त किए जाने की जरूरत है। एक देश में एक ही तरह के राज्य हों, जिन्हें निश्चय ही अधिकाधिक अधिकार दिए जाएं। सत्ता का अधिकतम विकेंद्रीकरण हो, हर जगह ग्राम पंचायतों को मजबूत किया जाए। कानूनी अधिकार और संवैधानिक हैसियत के मामले में सारे राज्य सामान हों।


जनसंख्या तथा क्षेत्रफल में भी यथासंभव जमीन-आसमान का फर्क न हो। इस तरह साफ नीयत और सच्चे मन से अगर राजधर्म का पालन करें तो शायद तेलंगाना के लिए खून की नदियां नहीं बहेंगी और न ही किसी राज्य को बनाने के लिए उत्तराखंड की तरह बलात्कार जैसी किसी प्रताड़ना से आम लोगों गुजरना होगा। इस तरह निर्मित हर राज्य खुद मजबूत हों ताकि वह राष्ट्र की मजबूती में सहायक की भूमिका निभाने में सक्षम हों।


लेखक पंकज झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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