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अमेरिकी-पाक तनाव और चीन

जागरण मेहमान कोना
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एक तरफ अमेरिका-भारत सहित तमाम देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एकजुट हो रहे हैं तो वहीं चीन की रुचि पाकिस्तान की बढ़ती जा रही है। इसके बावजूद कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ जुबानी जुगाली से ज्यादा कुछ नहीं कर रहा है। अब तो अमेरिका ने भी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ सबूत जुटा लिए हैं। अमेरिका आतंकी संगठन हक्कानी नेटवर्क और आइएसआइ के संबंधों पर अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए पाक के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किए हुए है। इस बीच चीन के उप-प्रधानमंत्री मेन जियांग्झू का पाकिस्तान को उसकी संप्रभुता के मसले पर हर तरह की मदद देने का वादा करना मौजूदा समीकरणों को उलझाने वाला है। कहीं न कहीं जियांग्झू की पाक को यह पेशकश भारत के लिए भी चिंता का विषय है। दरअसल, चीन भारत का लंबे अरसे से प्रतिद्वंद्वी रहा है और उसकी नीति भारत को चारों तरफ से घेरने की है। अभी दक्षिणी चीन सागर पर अपना हक जताते हुए चीन भारतीय कंपनी ओएनजीसी के तेल उत्खनन कार्यो को वियतनाम द्वारा सौंपे जाने का विरोध कर रहा है। यही नहीं, भारतीय भू-भाग को भी अपना बताकर चीन भारतीय क्षमता और शक्ति को निरंतर चुनौती देता रहा है।


पाक-अधिकृत कश्मीर में भी चीन की उपस्थिति भारत के लिए चिंता का विषय है। इस क्षेत्र का 45 प्रतिशत भौतिक कब्जा भारत के पास है तो वहीं 35 प्रतिशत पाकिस्तान के पास और शेष 20 प्रतिशत चीन के कब्जे में है। चीन की भारत से बढ़ती प्रतिद्वंद्विता और उसका पाकिस्तान प्रेम कई मायने में विश्व शांति के पक्ष में नहीं है। चीन-पकिस्तान साझा सहयोग का इतिहास 1960 के दशक से शुरू होता है। पिछले तीन दशक से भी ज्यादा समय से चीन पाकिस्तान को लड़ाकू विमान उपलब्ध करा रहा है। 1991 में चीन-पाकिस्तान परमाणु करार किया गया था, जो अंतरराष्ट्रीय नियमों और संधियों की अवहेलना करते हुए किया गया था। यह भारत-अमेरिका दोनों के लिए चिंता का विषय है। हालांकि पाकिस्तान को असैन्य परमाणु शक्ति की आवश्यकता है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन पाकिस्तान के वर्तमान हालात को देखते हुए इस खतरे से भी बेपरवाह नहीं हुआ जा सकता कि वह गलत हाथों में भी जा सकता है। इससे न केवल भारत को नुकसान पहुंच सकता है, बल्कि क्षेत्रीय सुरक्षा और शांति के लिए भी यह हितकर नहीं है। इन घटनाक्रमों के बीच भारत की स्थिति एक चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है।


एक तरफ पाकिस्तान का प्रमुख सहयोगी तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्ति चीन है तो दूसरी ओर भारत का समर्थक अमेरिका है, जो आज की तारीख में महाशक्ति तो है, लेकिन आर्थिक मंदी से घिरता जा रहा है। अमेरिका आतंकवाद की लड़ाई में खरबों डॉलर खर्च कर चुका है। अमेरिकी विशेषज्ञ दावीद गारटेनस्टेन रॉस ने अपनी हालिया पुस्तक बिन लादेन लेगसी में बताया है कि इसके कारण अमेरिका पर 14 खरब डॉलर का कर्ज हो चुका है। अमेरिका और यूरोपीय देशों में आ रही आर्थिक मंदी से भी आतंकवाद की लड़ाई में बाधा पहुंच सकती है। हालांकि अमेरिका को इस मामले में कम करके आंकना जल्दबाजी होगी। भारत को इन चिंताओं के बीच चीन की सैन्य-कूटनीति का जवाब अपनी आर्थिक शक्ति के अपने बल पर देने की जरूरत है। भारत की आर्थिक शक्ति को वैश्विक मान्यता प्राप्त हो चुकी है। उसे सुरक्षा परिषद में भी समर्थन मिलता जा रहा है, लेकिन चीन पाकिस्तान की तरह और उसी से प्रेरित भारत का समर्थन नहीं कर रहा। पाकिस्तान को चीन कभी भी अभी के हालात में असंतुष्ट नहीं करना चाहेगा। जिस प्रकार अमेरिका भी कभी पाकिस्तान को पाल रहा था और उसकी मांगों की पूर्ति का प्रयास करता था, बिना उसे नाराज किए। कुछ वैसे ही चीन-पाक के रिश्ते बन रहे हैं। जिसका परिणाम आने वाला समय बताएगा।


चीन को शायद यह महसूस होने में देर लगेगी, जिस प्रकार अमेरिका को काफी वक्त बाद अपनी इस गलती का एहसास हो रहा है कि उसकी मदद का हस्त्र क्या हुआ। बहरहाल, भारत को अपनी तटस्थता बरकरार रखते हुए पाकिस्तान से वार्ता को जारी रखने का प्रयास करते रहना चाहिए और चीनी कारक का पुट इसमें हावी न हो, इसके लिए कूटनीतिक प्रयासों की जरूरत होगी। चीन के दबदबे को अपने ऊपर हावी नहीं होने देने के लिए भारत को नई नीतियों के साथ चलने की जरूरत है। अपने सैन्यशक्ति को हमें विकसित करते हुए सीमा विवादों को सुलझाने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होने की दशा में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे उठाने की जरूरत है।


इस आलेख के लेखक गौरव कुमार हैं


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