- 1877 Posts
- 341 Comments
लंदन में 2005 के धमाके और अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के बाद वहां ऐसी एक भी घटना नहीं हुई तो इसका श्रेय वहां की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था को जाता है, लेकिन हमारी सरकार आंतरिक सुरक्षा के प्रति आंखें बंद किए हुए है। इसी का नतीजा है कि भावी हमलों को रोकना तो दूर हम 26/11 हमलों के बाद देश में हुए पांच आतंकी हमलों में किसी को भी सुलझा नहीं सके हैं। आतंकवाद से लड़ाई में लचर रवैये के कारण ही हम समय से कदम नहीं उठा पाते। उदाहरण के लिए दिल्ली हाईकोर्ट के जिस स्थान पर बुधवार को बम विस्फोट की घटना घटी, वहां करीब साढ़े तीन महीने पहले एक हल्का बम फटा था, लेकिन उसे मामूली शरारत कहकर नजरअंदाज कर दिया गया। यदि उस घटना के बाद सतर्कता बरती जाती, खुफिया कैमरों और जांच मशीनों को दुरुस्त रखा जाता तो ऐसी घटना को रोकना मुमकिन था। हमारी खुफिया एजेंसियां इसीलिए बार-बार असफल होती हैं, क्योंकि न तो निचले स्तर पर पूरा स्टाफ है और न ही उन्हें इस महत्वपूर्ण काम के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। वर्ष 2002 में मंत्रियों के समूह ने आतंकवाद से लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जांच एजेंसी बनाने की अनुशंसा कर दी थी, लेकिन एनआइए का गठन 2009 में हुआ। इसके पास भी संसाधनों का अभाव है और यह किसी भी मामले में बेहतर एजेंसी साबित नहीं हुई है।
एनआइए के गठन के समय कहा गया था कि यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआइ की तरह होगी, लेकिन जहां 2011 के लिए एफबीआइ का बजट 16 अरब डॉलर है, वहीं इसका बजट महज 55.6 करोड़ रुपये है, जो एफबीआइ के बजट का महज 0.07 फीसदी है। रणनीतिक खामियों की वजह से भी सुरक्षा व्यवस्था को अधिक चौकस बनाने में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाती। सरकार आतंकवाद से एकाकी रूप से लड़ती है, जबकि आज आतंकवाद संगठित अपराध बन चुका है। मादक पदार्थो की तस्करी, फर्जी पासपोर्ट बनाने, हवाला, एनजीओ, विस्फोटकों और हथियारों की कालाबाजारी आदि आतंकवादी गतिविधियों से सीधे जुड़े हुए हैं। इसके बाजवूद इन मामलों पर नजर रखने वाली विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल का अभाव रहता है। यहां तक कि पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और खुफिया एजेंसियों के बीच भी सूचनाओं का उचित आदान-प्रदान नहीं हो पाता है।
आतंकवाद से निपटने के लिए संगठित अपराधों को खत्म करना जरूरी है। यह तभी संभव है, जब खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को बदलती तकनीक और रणनीतियों के मुताबिक प्रशिक्षण मिले और वे आपस में मिलजुल कर काम करें। भले ही केंद्र सरकार दावा करे कि प्रति एक लाख लोगों पर 166 पुलिसकर्मियों के वैश्विक औसत का लक्ष्य पा लिया गया है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह अनुपात वर्ष 2001 की जनसंख्या पर आधारित है और तब से अब तक आबादी में 20 करोड़ की बढ़ोतरी हो चुकी है। फिर पुलिसकर्मियों की एक बड़ी संख्या अतिविशिष्ट लोगों की सुरक्षा में तैनात है। पुलिस बलों की मौजूदा संख्या, तैनाती, काम के बोझ, उनके हथियार, प्रशिक्षण आदि को देखें तो आतंकवाद से लड़ने का मंसूबा नहीं पाला जा सकता।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में आंतरिक सुरक्षा की तैयारी पर अपने भाषण में कांस्टेबल को आतंकवाद से मुकाबले में सक्षम बनाने की बात कही थी, लेकिन यदि देखा जाए तो आज भी कांस्टेबल के अधिकार, क्षमता और दक्षता में कोई सुधार नहीं हुआ है। फिर स्थानीय स्तर पर पुलिस आम जनता का विश्वास हासिल नहीं कर सकी है। लोग पुलिस थाने में जाने, शिकायत करने, सूचना देने, सच्चाई बताने में डरते हैं। आम आदमी और पुलिस के बीच संवाद के अभाव के कारण ही आतंकियों के पनाह लेने, स्लीपिंग सेल विकसित करने, आतंकी माड्यूल बनाने और बम विस्फोट जैसी वारदातों को अंजाम देना आसान हो गया है। संसाधनों के मामले में भी हमारी पुलिस दशकों पीछे है। उदाहरण के लिए 26/11 हमले बाद सीसीटीवी कैमरों से निगरानी, स्पीड बोट, रडार, पुलिस के आधुनिकीकरण के जरिए राज्यों की सुरक्षा को मजबूत बनाने का संकल्प सरकार ने दोहराया था, लेकिन तीन साल बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। पुलिस के आधुनिकीकरण का काम तो दशकों पीछे छूट चुका है।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Read Comments