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जिहादी आतंकवाद के उभार के संदर्भ में अमेरिकी नीति-नियंताओं की विफलता रेखांकित कर रहे हैं जगमोहन
अमेरिका के नीति-नियंता 9/11 की भयावह घटना का अंदाज लगाने और उसे रोकने के उपाय करने में क्यों असफल रहे? वे क्यों उन शक्तियों के इरादे नहीं समझ सके जो उनके देश के भीतर आतंकवाद का तूफान लाने का ताना-बाना बुन रही थीं? क्या कारण रहा कि अमेरिका के प्रतिष्ठित थिंक टैंक एक नई अमेरिकी शताब्दी का खाका खींचते हुए इस ओर निगाह भी नहीं डाल सके कि मजहबी कट्टरता से लैस आतंकवादियों ने पूरी दुनिया को हिला देने के लिए कैसे खतरनाक मंसूबे पाल रखे हैं और उन्हें पूरा करने के लिए वे किस हद तक जा सकते हैं? 9/11 की घटना के दस साल पूरे होने पर हाल ही में अनेक लेख प्रकाशित हुए, लेकिन शायद ही किसी ने ऊपर उठाए गए सवालों के जवाब देने की कोशिश की हो। मेरे विचार से ऐसा करना बहुत जरूरी है, क्योंकि जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक 9/11 के पीछे की पूरी तस्वीर नहीं उभर सकेगी और न तो भारत, न अमेरिका और न ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय आतंकवाद के दानव को जड़ से उखाड़ फेंकने में कामयाब हो सकेंगे। 1990 के दशक में अमेरिका अफगान युद्ध की समाप्ति के बाद न तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्र की जमीनी सच्चाइयों को समझने में सफल रहा और न ही आने वाले समय में इसके संभावित असर का आकलन कर सका।
अफगान युद्ध के दौरान अमेरिका ने अफगान और अन्य मुजाहिदीनों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ की मदद से बड़े पैमाने पर आधुनिक हथियार, संचार उपकरण और धन उपलब्ध कराया था ताकि वे अफगानिस्तान में मौजूद सोवियत सेनाओं का मुकाबला कर सकें। इतना ही नहीं, अमेरिका ने जिहाद की भावना को भी प्रोत्साहित किया। गैर-इस्लामी और नास्तिक माने जाने वाले रूसियों का मुकाबला करने के लिए उसने अफगान लड़ाकों में मजहबी कट्टरता भरना जरूरी समझा। अमेरिका ने केवल अफगानिस्तान में ही नहीं, बल्कि विश्व के अन्य मुस्लिम समाजों में भी कट्टरता की भावना फैलाने में मदद दी। यह इसलिए समझ में आता है, क्योंकि युद्ध में जीत का लक्ष्य हासिल करने के लिए सब कुछ जायज माना जाता है, लेकिन अमेरिका ने गलती यह कर दी कि उसने नई शक्तियों को युद्ध की समाप्ति के बाद भी अपने आप में एक शक्ति बने रहने दिया। अमेरिका ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि उसने जिन ताकतों के सहारे अपना मकसद हासिल किया है वे आतंक का इस्तेमाल करना जारी रखे हुए हैं और अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का भी सहारा ले रहे हैं। अपने पूर्व सहयोगी होने के कारण अमेरिका ने उन्हें एक हद तक आगे बढ़ने में प्रोत्साहन भी दिया। 1990 में जब मैं कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से मुकाबला कर रहा था तो मैंने साफ देखा कि अमेरिका ने सब कुछ जानते-समझते भी अपने विशेष उपकरणों के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। न तो उसने पाकिस्तान से आतंकवाद के ठिकानों के बारे में कुछ कहा और न ही उसने आइएसआइ को युद्ध में संलग्न जिहादियों को कश्मीर भेजने से बाज आने के लिए कहा।
मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि यदि अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र छोड़ने के बाद अमेरिका ने तनिक भी समझ दिखाई होती और क˜रपंथी समूहों को कमजोर करने की कोशिश की होती तो तमाम जगहों पर ऐसी अशांति नहीं दिखाई देती जैसी आज नजर आ रही है। तब अल कायदा इतना ताकतवर नहीं होता कि वह 9/11 जैसी घटना को अंजाम दे सकता। दुर्भाग्य से तब अमेरिकी नीति-नियंताओं को कश्मीर में मानवाधिकारों के कथित उल्लंघन की अधिक चिंता सता रही थी। यही कारण था कि वे आतंकवादियों द्वारा फैलाई जा रही तबाही को देखने से लगातार इंकार करते रहे। चूंकि अमेरिका ने सही को सही और गलत को गलत कहने से इंकार किया इसलिए संतुलन नाटकीय तरीके से उलटा हो गया। जिन लोगों ने आम जनता के जान-माल की रक्षा के लिए आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय में तरह-तरह से बदनाम किया गया, जबकि जो लोग हिंसा फैलाने में लिप्त थे अथवा आतंकवादियों को वैचारिक समर्थन दे रहे थे उन्हें अच्छे संदर्भ में प्रस्तुत किया गया।
अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं के पीछे हटने के कई कारण थे। इनमें से एक था अमेरिका द्वारा मुजाहिदीनों को अत्यंत आधुनिक हथियार उपलब्ध कराना। स्टिंगर मिसाइलों ने सोवियत सेनाओं को बहुत क्षति पहुंचाई, लेकिन मुजाहिदीन नेताओं ने कुछ ऐसा दर्शाया जैसे सोवियत संघ पर जीत सिर्फ इस्लामिक आस्था की शक्ति के बल पर मिली है। मुस्लिमों में इसके साथ ही यह भावना भरी गई कि इस्लाम के अन्य दुश्मनों का भी यही हाल होगा। इसी विश्वास के साथ अल कायदा और अल जिहाद जैसे संगठनों ने प्रमुखता हासिल करना शुरू किया। ओसामा बिन लादेन ने अल कायदा को संगठित किया और अयमान अल जवाहिरी ने अल जिहाद को। वे अलग-अलग अफगानिस्तान आए, लेकिन युद्ध का अंत करीब आने के साथ उन्होंने आपस में हाथ मिलाकर अपने-अपने संगठनों को एक कर लिया। उसका मुख्य मकसद वैश्विक स्तर पर जिहाद फैलाना था। अमेरिका को नैतिक भ्रष्टाचार का शिखर बताया गया और यह कहा गया कि जब तक अमेरिका का इस्लाम में मतांतरण नहीं होता तब तक पूरी दुनिया में इस्लाम का राज कायम होने का लक्ष्य नहीं पूरा होगा। इसी मकसद को पूरा करने के लिए अमेरिकी शक्ति को तबाह करने की साजिश रची गई। इसी के तहत 9/11 ही नहीं, अनेक स्थानों पर अमेरिकी दूतावासों को भी निशाना बनाया गया। इन हमलों ने अमेरिकी प्रशासन को चौकन्ना किया और उसने आतंकियों पर लगाम लगाने के लिए अनेक कदम उठाए, जिनके सार्थक परिणाम भी सामने आए हैं।
लेखक जगमोहन पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं
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