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मुंबई एक बार फिर दहली है। बयानवीर फिर सक्रिय हो गए हैं। संवेदनशील शहरों में हाई अलर्ट घोषित हो गया है। पुलिस मुस्तैद हो गई है। बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया है। यानी एक बार फिर वही सबकुछ हो रहा है, जो अब तक नहीं हो रहा था, जिसे होना चाहिए था। हमारे प्रधानमंत्री भले ही कमजोर न हों, पर हमारा खुफिया तंत्र अवश्य कमजोर है। यह मुंबई के दहलने से सिद्ध भी हो गया। इन तीन धमाकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इसके पहले हुए धमाकों से हमने कोई सबक नहीं लिया है। हम तो कसाब को कबाब खिलाना जानते हैं। अफजल गुरु की हिफाजत करना जानते हैं। इंसान ही नहीं, सरकार भी यदि सुधरना चाहे तो उसकी हर गलती उसे सुधार सकती है। पर सुधरने की इच्छा होनी चाहिए। बयानवीर यही कहते हैं कि अब हुआ सो हुआ, पर अगली बार सहन नहीं करेंगे। लोग यही पूछते हैं कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? क्या निर्दोष इसी तरह मारे जाते रहेंगे? राजनेताओं के लिए भारी सुरक्षा प्रबंध और आम आदमी के लिए कुछ भी नहीं। हम सभी ने देखा है, खून से सने, हाथ जोड़े इंसान को, जिसे ट्रक में ले जाया जा रहा था। बस एक प्रश्न, क्या कभी किसी नेता को इस तरह से ट्रक में ले जाते हुए किसी ने देखा है? कभी नहीं देखा जा सकता, कम से कम इस देश में।
अभी आंकड़े जमा किए जा रहे हैं। मौतों की संख्या के आधार पर हमारे बयान और तीखे हो सकते हैं। पूरा देश भयभीत है, क्योंकि आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं। मुंबई में हुए क्रमवार विस्फोट बताते हैं कि मायानगरी को दहलाने वाले शहर के भूगोल से अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे आए, बम रखे और भीड़ में खो गए। आखिर वे हमारे जैसे ही तो दिखते हैं। उनकी सोच थी कि इन धमाकों से बहुत से लोग मारे जाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। भला हो बारिश का, जो थोड़ी देर पहले हुई थी। इस बारिश ने बचा ली कई जानें। पर जो निर्दोष मारे गए हैं, उनका क्या? मुंबईवासियों के लिए बम के धमाके अब चिरपरिचित हो गए हैं। उनकी आदत पड़ने लगी है इन धमाकों के बीच रहने की। 1993 के मार्च महीने में दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन ने मायानगरी को दहला दिया था।
ये लोग आज भी कानून के लंबे हाथों से बहुत दूर हैं। इन्हें पाकिस्तान से भारत लाने में ही सरकार के पसीने छूट गए हैं। वर्ष 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए बम धमाके से शहर दहला था। उसके बाद तो 2008 में कई आतंकवादियों ने ताज होटल में घुसकर पूरे शहर को बंधक बना लिया था। यह मंजर भी लोगों ने देखा। इसके बाद भी हम शांतिपूर्ण वार्ता में विश्वास रखते हुए आतंकवादियों की सूची देकर चुपचाप बैठ गए। इस बार भी हमारा जासूसी तंत्र पूरी तरह से निष्फल साबित हुआ। वोट बैंक की खातिर इस देश में लोग मारे जा रहे हैं। बम धमाकों के बाद कुछ महत्वपूर्ण लोगों के इस्तीफे से बात कभी नहीं बनती। बात तब बनती है, जब तुरंत ही कुछ ठोस कार्य सामने आएं। जब भी मुंबई में हमला करना हो तो आतंकी कई महीनों तक लगातार परिश्रम करते हैं। उनकी तैयारी गजब की होती है।
इसे तो अपने इकबालिया बयान में पाकिस्तानी मूल के आतंकी हेडली ने भी स्वीकारा है। आतंकियों की तैयारियों की गंध तक पुलिस के पास नहीं पहुंच पाती। पुलिस और जासूसों के बीच होने वाली राजनैतिक अंतर्कलह के कारण आतंकी अपनी कार्रवाई में सफल हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि आतंकी अपना काम करने के लिए भीड़-भाड़ वाली जगह ही पसंद करते हैं ताकि अधिक से अधिक निर्दोष मारे जाएं। याद करें, 1993 में जब मुंबई में 14 बम धमाके हुए थे, उसमें झवेरी बाजार भी एक था। आज वही झवेरी बाजार एक बार फिर खून से सना हुआ है। जिस मुंबा देवी के नाम से इस मायानगरी का नाम पड़ा है, वह मंदिर भी झवेरी बाजार में ही है। इतने बम धमाके करने वाले आज भी पड़ोसी देश में खुलेआम घूम रहे हैं। हम केवल सूची में उनके नाम देकर ही खामोश हो जाते हैं।
इन धमाकों से प्रजा कितनी नाराज है, यह तो इसी बात से पता चल जाता है कि लोगों ने नेताओं को अस्पताल के बाहर ही रोक दिया। अब सभी समझने लगे हैं कि इन नेताओं से आम आदमी की हिफाजत हो नहीं सकती। ये केवल देश को लूटने ही आए हैं। संवेदना जगाने का ये लोग ढोंग करते हैं। जब मुंबई आतंकियों के हाथों में बंधक थी, उसके बाद हमारे राजनेताओं के बयान आए थे कि अब ऐसे बंदोबस्त किए जा रहे हैं कि देश में मुंबई हमले जैसी स्थिति कहीं भी कभी न आए। आज उनका यह दावा तार-तार हो चुका है। घोटालों में फंसी सरकार से किसी कड़े कदम की अपेक्षा करना ही नहीं चाहिए। लादेन को जब अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर मारा था, तब लोगों ने यही अपेक्षा की थी कि भारतीय कमांडो भी पाकिस्तान जाकर दाऊद इब्राहिम को इसी तरह से मारे गिराएं, पर ऐसा नहीं हो पाया। यह भी एक संयोग है कि सबसे अधिक बम धमाके जुलाई महीने में ही हुए हैं।
तारीखों पर जाएं तो 11 जुलाई 2006 में मुंबई लोकल ट्रेन में सात सीरियल ब्लास्ट (174 मौतें), 25 जुलाई 2008 में बेंगलूर में सात सीरियल ब्लास्ट (2 मौतें), 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में 21 सीरियल ब्लास्ट (58 मौतें), 13 जुलाई 2011 में मुंबई में तीन बम धमाकों में 31 मौतें। वैसे मुंबई में अब तक जो बम धमाके हुए हैं, तारीखों में वे कुछ इस प्रकार हैं, 12 मार्च 1993, 2 दिसंबर 2002, 6 दिसंबर 2002, 27 जनवरी 2003, 11 जुलाई 2006 और 13 लुलाई 2011। इन हालात में ए वेडनेस डे फिल्म याद आती है। वे 200 को मारें तो कोई हल्ला नहीं, मैं केवल चार को मार रहा हूं तो इतना हल्ला? क्या हमारी सरकार यह सोच रही है कि इस देश के युवाओं में जोश नहीं है, उनका खून उबाल नहीं मारता? तो वह गलत सोच रही है। हमारे युवा भी अब कुछ जोश के साथ सोचने लगे हैं। निश्चित ही इसमें होश नहीं होगा। हमारे योद्धा तैयार हो रहे हैं। वे यदि कुछ करें, तो तमाम मानवाधिकार आयोग सक्रिय हो जाते हैं। यह आयोग बम धमाकों के समय कहां चले जाते हैं, जहां मानव को धिक्कारने की बात आती है। मानवता रोती रहती है, उनके आंसू पोछने वाले यही युवा होंगे, जो भविष्य में तैयार होंगे। ये नेताओं की तरह सुरक्षा के घेरे में नहीं होंगे। न ही विशेष सेल में रहकर अपनी मौत का इंतजार करेंगे। ये वे युवा होंगे, जो ठानकर निकलेंगे, सिर पर कफन बांधकर निकलेंगे और देश से आतंकवादियों का सफाया कर देंगे। भले ही इतिहास में इनका नाम न हो, लेकिन वे कुछ तो ऐसा करेंगे ही, जो देश के लिए गर्व की बात होगी।
लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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