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एनसीटीसी के बारे में सोचना होगा

जागरण मेहमान कोना
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आतंकी हमलों को रोकने में एक बार फिर हमारी सरकार नाकाम रही। हैदराबाद में आतंकियों ने दहशत की एक और इबारत लिख डाली। इसके पीछे कौन-सा संगठन है, इसका खुलासा होगा या फिर हैदराबाद पुलिस और आतंकरोधी एजेंसियों एनआइए तथा एनएसजी हवा में तीर चलाती रहेंगी, कुछ कह नहीं सकते। हां, देश की सुरक्षा की चिंता के इतर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाएंगे। आतंकी हमलों को लेकर अमूमन सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां ही निशाने पर होती हैं। इन एजेंसियों पर आपसी तालमेल के अभाव सहित तमाम आरोप जड़ दिए जाते हैं। उस पर तुर्रा यह रहता है कि करोड़ों रुपये के खर्च से चल रही ये एजेंसियां नाकारा हैं। लेकिन इनकी बेचारगी पर चर्चा करने की जहमत सत्ता और विपक्ष कभी नहीं उठाता। किसी को इस बात की भी चिंता नहीं होगी कि आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाले लगातार अपने तरीकों में बदलाव कर रहे हैं और हमारी खुफिया एजेंसियां आज भी उसी ढर्रे पर काम कर रही हैं, जैसा कि आजादी के बाद उन्होंने शुरू किया था।


कोई राजनेता यह सवाल नहीं उठाएगा कि इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) के 20 हजार कर्मचारी आखिर कैसे सवा अरब लोगों पर निगाह रखेंगे? कोई यह सवाल नहीं उठाएगा कि 20 हजार में से कुल महज दो हजार आइबी कर्मचारी ही क्यों देश में सक्रिय हैं? अन्य अफसरों और कर्मचारियों को तो विभिन्न कामों में लगा रखा है और इस स्थिति में आखिर यह कैसे संभव होगा कि आइबी का एक अधिकारी 50 हजार से अधिक लोगों पर नजर रखेगा? वास्तव में किसी भी आतंकी घटना के बाद उसके कारणों पर चर्चा से अधिक ध्यान इस बात पर होता है कि सरकार को कैसे घेरा जाए और इस आरोप-प्रत्यारोप में असल मकसद गायब हो जाता है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण कारण है राज्यों के निजी हित। केंद्र सरकार यदि भूले-भटके कोई पहल करती भी है तो राज्य इसे अपनी सीमा में अतिक्रमण की तरह देखते हैं और जब घटना हो जाती है तो दोष सरकार पर मढ़ते हैं। चाहे पुलिस के आधुनिकीकरण का मामला हो या राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र नेशनल कांउटर टेरररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) का, दोनों ही मामलों में राज्य अपने अधिकार की बात करते रहे हैं। पुलिस आधुनिकीकरण को लेकर अव्वल तो केंद्र सरकार ही सुस्त रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों में केंद्र ने जब-जब इसकी चर्चा की, राज्यों ने इसे अपनी सहूलियत से करने देने की बात की है। ऐसा ही एनसीटीसी मामले में हुआ।


वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने मुंबई हमलों के बाद एक एजेंसी के गठन का प्रयास किया, जो अमेरिकी एजेंसी की तर्ज पर आतंकवाद से संबंधित सूचनाएं एकत्र करने, उनका समन्वय करने और विभिन्न एजंसियों के बीच उसका वितरण करने का काम करेगी। इसके लिए उन्होंने बाकायदा अमेरिका जाकर इसका अध्ययन भी किया था। उन्होंने भारत लौटकर इस पर तेजी से काम किया और एजेंसी के गठन का आदेश भी जारी करवा लिया, लेकिन एजेंसी को जो अधिकार दिए गए, उसे लेकर राज्यों का विरोध शुरू हो गया। खासतौर से गैर कांग्रेसी राज्यों की सरकारों को लगने लगा कि केंद्र सरकार इसका राजनीतिक दुरुपयोग कर सकती है।


हालांकि इसके पीछे पिछले अनुभव जिम्मेदार हैं, लेकिन अतीत से बंधे रहेंगे तो भविष्य की ओर कोई कदम कैसे उठा पाएंगे, इस पर विचार किया जाना चाहिए। हैदरबाद विस्फोट कांड में जिस तरह के सुराग मिल रहे हैं, यदि एनसीटीसी एजेंसी कार्यरत होती तो बड़ी सफलता मिल सकती थी। न्यूज चैनलों के मुताबिक बताया जा रहा है कि इसमें यासीन भटकल का हाथ हो सकता है, जो पिछले दिनों चेन्नई में देखा गया था। यदि एनसीटीसी जैसा कोई केंद्र होता तो उसके पास निश्चित रूप से यह सूचना होती। लेकिन खुफिया एजेंसियों के आपसी तालमेल ठीक न होने के कारण उन्हें यह जानकारी नहीं मिल सकी। वहीं तमिलनाडु सरकार ने एनसीटीसी को संदिग्ध की गिरफ्तारी का अधिकार दिए जाने का विरोध करते हुए खुद की पुलिस को बेहद चुस्त तो बताया है, लेकिन आज उसके पास इसका क्या कोई जवाब है कि भटकल चेन्नई में कैसे छिपा रहा। ऐसे अनेक सवाल हैं, जो इस आतंकी वारदात के बाद उठाए जा सकते हैं। लेकिन सवालों में ही उलझे रहेंगे तो अंजाम तक कब पहुंचेगे? इसलिए जरूरी है कि आतंकवाद पर राजनीतिक करने की बजाय पुलिस और खुफिया एजेंसियों की खामियों पर ध्यान दिया जाए और उन्हें दुरुस्त किया जाए।


इस आलेख के लेखक विवेकानंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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