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कटते वन, घटता धरती का आवरण

जागरण मेहमान कोना
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राष्ट्र की अद्वितीय और अटूट प्राकृतिक संपदा तथा आदिम जातियों की आजीविका के प्रमुख साधन रहे जंगल समूचे भारत में तेजी से लुप्त हो रहे हैं। देश का वन विभाग अब तक यह दावा करता रहा था कि भारत के कुल भू-भाग में 19 प्रतिशत जंगल हैं, लेकिन हाल ही में भारतीय वन सर्वेक्षण ने खुलासा किया है कि बीते 10 साल के भीतर 3000 वर्ग किमी जंगलों का सफाया हो चुका है। अगर यही रफ्तार रही तो सौ सालों में दो तिहाई घने जंगल नष्ट हो जाएंगे। इसके पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने उपग्रह के माध्यम से दुनिया भर के जंगलों के छायाचित्र लेकर एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें सरकारी दावों को पूरी तरह झुठलाते हुए दावा किया गया था कि देश में केवल आठ प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित रह गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 3290 लाख हेक्टेयर में फैले भू-क्षेत्र में 1989 तक 19.5 भू-भाग में जंगल थे, जिनकी कटाई 15 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से जारी रही। नतीजतन ये वन घटकर केवल आठ फीसदी बताए गए थे। वनों का आकलन दस साल पहले की रिपोर्ट में दर्शाए गए आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन से होता है। दस साल पहले देश में कुल 7.83 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में वन थे, जो अब घटकर 24 फीसदी शेष बचे हैं। इनका विनाश विकास के बहाने औद्योगीकरण की भेंट चढ़ गया। इस रिपोर्ट के अनुसार बीते दो साल के भीतर ही 367 वर्ग किमी वन्य क्षेत्र नष्ट हो गया। इसके चलते देश के कुल क्षेत्रफल में जंगल और पेड़ों की मौजूदगी घटकर 23.81 फीसदी रह गई है, जो 33 फीसदी होनी चाहिए थी। इस स्थिति ने जंगल से जुड़े 20 करोड़ लोगों की आजीविका पर संकट के बादल गहरा दिए हैं।


आधुनिक और औद्योगिक विकास के चलते पहले भी करीब 4 करोड़ वनवासियों को विस्थापित करके उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। ऐसा नहीं है कि वन केवल हमारे देश में ही नष्ट हो रहे हैं? दुनिया भर में तेजी बढ़ रही आबादी के दबाव और मनुष्य द्वारा वन संपदा से ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की लालसा के कारण पूरी दुनिया में जंगलों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पिछले दस सालों के भीतर वन विनाश में तेजी आई है। ब्राजील में 17 हजार, म्यांमार में 8 हजार, इंडोनेशिया में 12 हजार, मेक्सिको में 7 हजार, कोलंबिया में 6 हजार पांच सौ, थाईलैंड में 6 हजार और भारत में भी 4 हजार प्रति वर्ग किमी के हिसाब से वनों का विनाश हो रहा है। वनों के इस महाविनाश का सबसे ज्यादा खामियाजा हमारे देश को उठाना होगा, क्योंकि जैव विविधता की दृष्टि से सबसे ज्यादा भारत संपन्न देश है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारत की जलवायु में विविधता है और भौगोलिक बनावट में भी भिन्नता है। करीब 3290 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हमारे देश में एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में शीतल और तरल जलवायु वाला हिमालय का भूखंड है। दूसरी तरफ राजस्थान और गुजरात के रेगिस्तान हैं। जहां केवल 20 सेंटीमीटर एक साल में औसत वर्षा होती है। इसके ठीक विपरीत असम के कुछ ऐसे भू-भाग हैं, जहां वर्षा का वार्षिक औसत 1100 सेमी है। लगभग 7500 किमी लंबे हमारे समुद्र तट हैं, जहां समुद्री जीव और वनस्पतियों का अनूठा भंडार है। जंगलों के विनाश के कारण भू-क्षरण में भी तेजी आई है। दुनिया में 2600 करोड़ टन मिट्टी की पृथ्वी पर ऊपरी परत है, जो बरसात में जल धाराओं से कटाव आ जाने के कारण निरंतर समुद्र में समाती जा रही है। देश में भू-क्षरण की रफ्तार 1200 करोड़ टन है। लिहाजा, प्रति मिनट पांच हेक्टेयर भूमि का क्षरण हो रहा है। प्रत्येक बरसात में एक हेक्टेयर भूमि में से 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। यदि इस दिशा में सुधार नहीं किया गया तो अगले 20 सालों में एक तिहाई कृषि भूमि नष्ट हो जाने की आशंका है।


वर्तमान में अकेले भू-क्षरण के कारण प्रति वर्ष 2800 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। पूरी दुनिया में जीवों और वनस्पतियों की एक करोड़ प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें अभी तक 14 लाख जीवों और वनस्पतियों की पहचान कर उन्हें सूचीबद्ध किया गया है। इनमें से 50 से लेकर 90 प्रतिशत प्रजातियां भारत के जंगलों में पाई जाती हैं। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के जंगल कितने उपयोगी हैं, लेकिन अफसोस कि बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हो रही है। वन माफिया तो वनों के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। अगर वनों के विनाश को सख्ती से काबू नहीं किया जाता तो हालात विकराल होना तय है।


लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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