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नक्सलियों का खात्मा जरूरी

जागरण मेहमान कोना
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छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस समय नक्सलवाद के मुद्दे पर काफी मुखर हैं। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का रुख नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था वहीं ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गई हैं। सवाल यह भी है कि क्या सत्ता में होने और विपक्ष में रहने के दौरान आचरण अलग-अलग होने चाहिए। अब जबकि आतंक का पर्याय किशन उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा रही हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए। सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे माओवादी अचानक खलनायक कैसे बन गए? दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। कल तक जो नक्सली मुक्तिदूत थे वही आज ममता के शत्रु हैं । कारण है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वह प्रतिपक्ष की नेता नहीं, राज्य की मुख्यमंत्री हैं जिन पर राज्य की कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है। वह एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं।


दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद्व है। यह दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गई। नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से ठन गई है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी को सुरक्षा बल पूरे दशक नहीं ढूंढ़ पाए वही किशनजी ममता बनर्जी के शासनकाल में आसानी से मार दिए गए। माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने हेतु लड़ाका बताने वाली ममता आज किशनजी के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। साफ है कि हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वह राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। अगर आज की ममता सही हैं तो कल वह जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने-पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी जताते हैं। इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को सही रूप में पहचाना और केंद्र को भी आगाह किया।


नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की वकालत की। हालांकि परिणाम उत्सावर्धक नहीं रहे और नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया। पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे वैसे अधिकारी न मिलने से अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, दूसरे छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना विस्तार करते रहे। कई बार शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है? ममता बनर्जी की तारीफ करनी होगी कि देर से ही सही उन्होंने वास्तविकता को समझा। नक्सलियों से कड़ाई से ही निपटा जा सकता है और किसी तरह की नरमी ठीक नहीं। नक्सलियों के अर्थतंत्र को भी तोड़ने की आवश्यकता है। हमारी सरकारें अभी भी भ्रम का शिकार हैं। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी होंगी।


नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम फैला रहे हैं। सवाल यह है कि नक्सली अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है उसके रहते क्या हम यह लड़ाई जीत पाएंगे। इस सबके पीछे विदेशी शक्तियों का भी हाथ है जिस कारण यह खतरा काफी बढ़ जाता है। इस सबके बीच आदिवासी पिस रहे हैं। राजनीतिज्ञ, प्रशासन, ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु आम लोग परेशान हो रहे हैं और इसका खामियाजा उठा रहे हैं। आदिवासियों को हथियार देकर माओवादी जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाजहित कर रहे हैं? यह कैसी जनक्रांति की लड़ाई है जिसमें जन ही पिस रहा है। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ और देश के तथाकथित बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगे।


लेखक संजय द्विवेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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