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भारत-अफगान संबंधों के मायने

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों तुर्की में 27 देशों की बैठक अफगानिस्तान के मुद्दे पर हुई। सम्मेलन सुरक्षा सद्भावना और मध्य एशिया के थीम पर था। 27 देशों के बीच विचार विमर्श हुआ और कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति बनाने की कोशिश की गई। यह स्वीकार किया गया कि भविष्य में किसी भी तरह अफगानिस्तान को आपसी क्षेत्रीय रंजिश और हिंसक प्रतिस्पर्धा का शिकार नहीं होने दिया जाएगा। तालिबानी शक्तियों से अफगानिस्तान को हर कीमत पर बचाया जाएगा। तीसरे महत्वपूर्ण शर्त के रूप में यह बात कही गई की कि अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने की हर कोशिश की जाएगी जिससे वहां की युवा पीढी़ ड्रग माफिया और आंतकवाद के चंगुल में नहीं फंसे, लेकिन क्या ये वादे पूरे होंगे? सम्मेलन में सीमाई सौहार्दऔर पारदर्शिता की बात दोहराई गई। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से मिलती अपनी पूर्वी सीमा पर तकरीबन एक लाख सत्तर हजार से ज्यादा फौज तैनात की है। पाकिस्तान का खुद का अपना एजेंडा है। उसी तरह तुर्की, ईरान और अन्य देशों का भी अपना एजेंडा है। ऐसे हालात में अफगानिस्तान की समस्या का हल कैसे सुधर सकता है? पिछले वर्ष पाकिस्तान ने अपनी चाल के तहत तुर्की को अपने घेरे में ले लिया था। दोनो देशों ने भारत को अफगानिस्तान के मुदद्े पर दूध में पडे़ मक्खी की तरह बाहर फेंक दिया था।


पाकिस्तान पूरे दमखम के साथ इस कोशिश में है कि अफगानिस्तान समस्या का हल उसके इर्द-गिर्द बसे पड़ोसी देशों द्वारा ढूंढ़ा जाए। इसका अर्थ भारत और पश्चिमी देशों की कोई भूमिका नहीं होगी। दूसरी तरफ अमेरिका अफगानिस्तान मुदद्े पर सिल्क रूट के रास्ते में स्थित देशों की भूमिका को महत्वपूर्ण मान रहा है। इस समीकरण में न केवल भारत, चीन और रूस जैसे महत्वपूर्ण देश आ जाएंगे बल्कि कई क्षेत्रीय घटक मसलन शंघाई को-आपरेशन की भूमिका निर्णायक होगी। अफगानिस्तान के विषय पर रूस, चीन और ईरान की गोटी भी समय और परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रही है। नए समीकरण में रूस अमेरिकी नीति और सोच के पक्ष में नही है। रूस पाक समर्थित कट्टरवादी इस्लामिक तालिबानी सरकार की स्थापना के पक्ष में है।


रूस चीन द्वारा संचालित बहुआयामी आर्थिक और राजनीतिक समीकरण को बढ़ावा देना चाहता है। ऐसे बहुकोणीय संघर्ष और मतभेद की स्थिति में भारत का पक्ष भी आहत होता है। अगर निर्णय चीन के द्वारा लिया जाएगा तो भारत का एजेंडा भी कमजोर होगा, क्योंकि ईरान भी अमेरिकी खेमे का विरोधी है। चूंकि ईरान अमेरिका विरोधी है इसलिए उसकी दलील पाकिस्तानी समीकरण को मजबूत करेगी। पाकिस्तान ने अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए पिछले दिनों रूस से भी बात की थी। इस पूरे समीकरण को सर्कस की तरह देखा जाए तो यह समझ पाना अत्यंत ही मुश्किल है कि कौन, कब तक और किसके पक्ष में है। पिछले दिनों जब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई भारत आए थे तब भारत और अफगानिस्तान के बीच कई सामरिक समझौते पर संधि की गई। यह समझौता दोनों देशों के बीच मील का पत्थर माना गया, क्योंकि समझौते के निशाने पर पाकिस्तान की सामरिक नीति भी है। भारत अफगानिस्तान में पाकिस्तान की छद्म सरकार की स्थापना को हर तरह से रोकना चाहता है, क्योंकि इसका सीधा असर भारत को झेलना पड़ेगा। भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण मुहिम को विकास के मुद्दे से जोडकर देखता है जिसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि धर्मनिरपेक्षता की है। पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान द्वारा भारत की विकास की मुहिम को क्षति पहुंचाने की कोशिश की गई।


आतंकियों ने भारतीय ठिकानों को निशाना बनाया। अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार पाकिस्तान की सामरिक नीति को नापसंद करती है, क्योंकि पूर्व सोवियत संघ समर्थित सरकार के विस्थापन के बाद जिस तरह की सरकार सत्ता में आई और जिस तरह से घेराबंदी की शुरुआत की गई उस अनुभव को अफगानिस्तान की जनता भूल नहीं पाई है। तालिबान की क्रूर शासन व्यवस्था ने न केवल वहां के जातीय समीकरण को तोडमरोड़ दिया बल्कि अफगानिस्तान को इस्लामिक आंतकवाद को गढ़ के रूप में बदल दिया। भारत और अफगानिस्तान के बीच सामरिक समझौते के तहत अफगान के सैनिकों को प्रशिक्षण देने की बात भी की गई है यानी अफगान की राष्ट्रीय फौज एक ऐसे ढांचे के रूप में तैयार हो, जो जातीय विद्वेष और धार्मिक उन्माद से अलग हो।


भारत अफगानिस्तान में ऐसे राजनीतिक समीकरण की खोज में है, जहां विद्वेष और संघर्ष की प्रतिस्पर्धा न्यूनतम हो, क्योंकि भारत की दृष्टि अफगानिस्तान के माध्यम से मध्य एशिया तक फैली हुई है। अगर अवरोध अफगानिस्तान ही बन जाएगा तो भारत और मध्य एशिया के बीच तैयार हो रहीं बहुमुखी योजनाएं अधर में लटक जाएंगी। चाहे वह खनिज संपदा को लेकर हों या रेल लाइन की भावी परियोजनाएं हों। मध्य एशिया की राजनीति में उबाल अफगानिस्तान की वजह से उत्पन्न हो रहा है। जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में अफगानिस्तान को लेकर बाहरी शक्तियों की रणनीति में उलटफेर हो रहा है वह परिर्वतन भारत और मध्य एशिया के सबधों को भी प्रभावित करेगा। 10 वर्षो में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो की सैन्य टुकड़ी ने अफगानिस्तान की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ढांचे को बनाने में पूरी तरह से विफल रही है। इस बीच अमेरिकी सैन्य व्यवस्था को वापस बुलाए जाने का निर्णय अफगानिस्तान में नए सामरिक आधिपत्य की होड़ को जन्म दे चुका है। इस बीच हक्कानी ग्रुप द्वारा अमेरिकी ठिकानों पर हमला किया गया । हक्कानी नेटवर्क का मुख्यालय पाकिस्तान में स्थित है।


पाकिस्तान सेना अपनी खुफिया एजेंसी आइएसआइ की सहायता से भावी अफगानिस्तान के राजनितिक ढांचे को बनाने की तैयारी कर रही है। हक्कानी नेटवर्क के जरिये पाकिस्तान अपनी सामरिक नीति को और मजबूत करना चाहता है जैसा कि प्रतीत हो रहा है अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में इस्लामिक कट्टरवादियों का हुजूम इस तैयारी में है कि सत्ता की लगाम पुन: तालिबानियों के हाथ में होगा। ऐसा होने पर मध्य एशिया का राजनीतिक शक्ल पुन: प्रभावित होने लगेगा। इन तमाम समीकरणों को समझने के लिए जरूरी है कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया की अंदरूनी रणनीति की व्याख्या की जाए। साथ ही मध्य और अफगानिस्तान में महाशक्तियों की होड़ और उनके निहित स्वार्थ को समझना भी जरूरी है। मध्य एशिया की राजनीति में कई ऐसे तत्व मौजूद है जो स्थिति को विस्फोटक बनाते है। जातीय समीकरण से लेकर प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा का भंडार मध्य एशिया को और महत्वपूर्ण बनाते हैं। चीन और रूस मध्य एशिया के दो महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है इसके अलावा ईरान और तुर्की का अपना अलग महत्व है। पूरे क्षेत्र में इस्लामिक कट्टरता का माहौल मध्य एशिया की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को तहस-नहस करने कीे कोशिश में है जिस पर विचार करना होगा।


लेखक सतीश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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