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हिंसा के बीज बोता छोटा पर्दा

जागरण मेहमान कोना
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bharat dograआज के बच्चे और किशोर जिस माहौल में बड़े हो रहे हैं, उसमें टीवी का उनकी जिंदगी में बहुत दखल हो गया है। भारतीय समाज पर पड़ने वाले टीवी के असर को समझने के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे टीवी पर फिल्म उद्योग का बहुत बड़ा असर दिखता है। टीवी देखने वाले लोगों में सिनेमा देखने वालों का हिस्सा बहुत बड़ा होता है। टीवी के असर के बारे में बात करते हुए हमें कई बार टीवी/सिनेमा के मिले-जुले प्रभाव के बारे में बात करनी पड़ती है। इसका प्रमुख कारण ऐसी फिल्मों का प्राय: टीवी पर दिखाई देना होता है। टीवी के असर के बारे में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह के प्रभाव में बच्चे कितने समय तक रहते हैं। मलेशिया में कुछ समय पहले हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि औसतन यहां एक बच्चा वर्ष में 1040 घंटे स्कूल की कक्षा में बिताता है, जबकि टीवी के सामने वह वर्ष में 1200 घंटे गुजारता है। दूसरे शब्दों में टीवी बच्चों के लिए स्कूल से अधिक महत्वपूर्ण हो चुका है। हमारे देश में भी बच्चों के संदर्भ में टीवी का प्रभाव भी कुछ इसी तरह का है या होने जा रहा है। प्रति वर्ष 200 दिन के हिसाब से कई बच्चे किशोर और युवा लगभग 1000 घंटे कक्षा में गुजारते हैं और प्रतिदिन 3 घंटे औसत से अधिक टीवी देखने के हिसाब से एक वर्ष में 1100 घंटे टीवी देखते हैं।


सवाल केवल इस बात का नहीं है कि बच्चे टीवी में क्या देख रहे हैं, बल्कि यह भी है कि वे क्या चीजें बार-बार देख रहे हैं और उनका कितना समय टीवी पर यह सब देखने में बीत रहा है। कुछ चीजें ऐसी हैं जो अपवाद के रूप में कभी-कभी देख लेने से अधिक नुकसान नहीं होता है पर बार-बार देखने से वे दर्शक में विकृति पैदा कर सकती हैं विशेषकर जब दर्शक अबोध बच्चे हों। हिंसा एक ऐसी ही चीज है। एक ही दिन में कोई बच्चा टीवी पर अनेक हत्याएं, बलात्कार और हिंसा की घटनाएं देखता है। अमेरिकन टीवी के एक अध्ययन से तो पता चला है कि वहां हर अठारह मिनट में एक हिंसक घटना दिखाई जा रही थी। टीवी पर हिंसा रोज-रोज देखने से बच्चों और किशोरों के व्यवहार में आक्रामकता आती है। विशेषकर यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि टीवी पर बहुत सी हिंसा की कार्यवाही आकर्षक और अच्छे लगने वाले पात्रों के हाथ से होती है, इसलिए बच्चों, किशोरों और युवकों में उनके जैसी शैली अपनाने की प्रवृत्ति और भी अधिक होती है। आसपास की जिंदगी में इतने खतरनाक खलनायक तो नजर आते नहीं हैं जितने टीवी पर होते हैं। इसलिए कई बार बिना वजह विरोध प्रगट कर, झगड़ा करके या ऊंचा बोलकर टीवी के ये दर्शक अपने अंदर उमड़ रही हिंसक प्रवृत्ति को बाहर निकालते हैं। टीवी पर हिंसा दिखाने का जो सबसे बुरा असर होता है वह दीर्घकालीन होता है, जो शायद ही स्पष्ट नजर आता है।


निरंतर हिंसा, हत्या, उत्पीड़न आदि घटनाओं को देखने से मनुष्य के मन में जो कोमल भावनाएं हैं और हिंसा के प्रति जो स्वाभाविक वितृष्णा है, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है। वह हिंसा को दैनिक जीवन के एक ऐसे हिस्से के रूप में समझ लेता है, जिसके लिए संवेदनशीलता की कोई खास आवश्यकता नहीं होती है। जब बहुत से लोग ऐसा सोचने लगते हैं तो समाज में हिंसक शक्तियों और प्रवृत्तियों के हावी होने के लिए अनुकूल मौके पैदा होते हैं। बहुत तेजी से या लापरवाही से वाहन चलाना, भीड़ भरी सड़कों पर या अन्य खतरनाक रास्तों पर तरह-तरह के जोखिम लेना जैसी बातों को प्राय: टीवी पर इतने आकर्षक ढंग से पेश किया जाता है कि कई किशोर भी ऐसे ही जोखिम बिना किसी वजह के उठाना शुरू कर देते हैं, जिसका खामियाजा खुद उन्हें या दूसरों को उठाना पड़ता है। सिनेमा और टीवी की एक बड़ी समस्या यह है कि प्राय: महिलाओं को सेक्स प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है। महिलाओं की समाज में बहुपक्षीय सार्थक भूमिका को सही ढंग से दिखाने वाली कुछ फिल्में भी बनी हैं, पर अधिकतर व्यावसायिक मसाला फिल्मों में महिलाओं को सेक्स प्रतीक के रूप में ही उभारा जाता है। उनके तरह-तरह के हाव-भाव, वेश-भूषा, अंग-प्रदर्शन पर फिल्म निर्माताओं या निर्देशकों का ध्यान केंद्रित रहता है। इसी तरह फिल्म, फिल्मी गीत व अन्य कार्यक्रम टीवी पर दिखाई देते हैं। केबल टीवी आने पर यह चलन और बढ़ गया है और इस सबमें अ‌र्द्धनग्नता व अश्लीलता की प्रवृत्ति तो और भी बढ़ गई है। केबल टीवी के कुछ कार्यक्रमों में दर्शकों और उसके साथ विज्ञापन को अधिकाधिक आकर्षित करने के लिए सेक्स का अधिक खुला प्रदर्शन और उसकी खुली चर्चा आम बात हो गई है।


महिलाओं को एक के बाद अनेक फिल्मों व कार्यक्रमों में सेक्स प्रतीक के रूप में देखने का बुरा असर यह होता है कि उनके प्रति स्वस्थ मित्रता का भाव विकसित होने के बजाय नई पीढ़ी में गंदे भाव उत्पन्न होते हैं। इसकी अभिव्यक्ति छेड़छाड़ और तरह-तरह की अश्लील हरकतों के रूप में देखने को मिलती है। कई बार देखा गया है कि छेड़छाड़ की जो शैली किसी हिट फिल्म में देखी गई, वही सड़कों व गलियों में भी दोहराई जाती है। यही नहीं, कई फिल्मों व कार्यक्रमों में महिलाओं को इस रूप में भी दिखाया जाता है, जिससे लगे कि वे तो चाहती ही हैं कि उनसे कोई छेड़छाड़ या अश्लील हरकतें करे। इस तरह की छवि दिखाना बहुत घातक रहा है। बीते दिनों एक कार्यक्रम में ऐसी लगभग दस घटनाओं के उदाहरण दिए गए, जिसमें 10 से 20 वर्ष की लड़कियों से पहले लड़कों ने छेड़छाड़ की और मनोनुकूल उत्तर न मिलने पर उनकी हत्या कर दी या उनके साथ हिंसक वारदातें कीं।


फिल्मों और टीवी पर सेक्स और हिंसा के प्रदर्शन के मिलेजुले असर अब बहुत चिंताजनक बनते जा रहे हैं। हाल में प्रकाशित कुछ समाचारों के मुताबिक एक फिल्म से प्रेरित होकर कुछ लड़कों ने एक लड़की का अपहरण किया, उसे जबरन शराब पिलाई और फिर उसके शरीर पर कुछ चित्र बनाए। इस खतरे को हमारे युवक स्वयं भी पहचान रहे हैं। ऐसा दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के एक सर्वेक्षण से जाहिर होता है, जिसमें 69 प्रतिशत विद्यार्थियों ने कहा कि युवा पीढ़ी में हिंसा में वृद्धि के लिए फिल्मों में सेक्स और हिंसा का अधिक प्रदर्शन जिम्मेदार है। टीवी और फिल्मों का मिला-जुला असर एक अन्य तरह से भी व्यापक स्तर पर कुंठा पैदा कर रहा है और इसमें विशेषकर टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों की विशेष भूमिका है। ऐसे कार्यक्रमों में और विशेषकर इनके साथ दिखाए जाने वाले विज्ञापनों से तरह-तरह की आकर्षक उपभोक्ता वस्तुओं की एक लुभावनी दुनिया अमीर और गरीब दर्शकों के सामने नए-नए अंदाज में पेश की जाती है। जिनके पास पैसा है, उनमें नित नए उत्पाद खरीदने के उपभोगवाद को जबरदस्त बढ़ावा मिलता है। जिसके पास इतना पैसा नहीं है, उनमें ये विज्ञापन कुंठा पैदा करते हैं। बहुत से लोगों में गलत ढंग से पैसा कमाने की प्रवृत्ति को इस सबसे बढ़ावा मिलता है।


लेखक भारत डोगरा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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