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भाजपा को भारी पड़ते ये दो चेहरे

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh Parimalभ्रष्टाचार के खिलाफ अब तक भाजपा कांग्रेस को खूब कोसती थी। कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के काले कारनामों को छिपाने की कोशिश में उनकी महत्वाकांक्षाओं को ही हवा देते रही। अब बंगारू लक्ष्मण के दोषी साबित होने और तिहाड़ के मेहमान बनने से भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ भी नहीं बोल पा रही है। इस मामले के बाद कई बातें सामने आई हैं। पहली तो यही कि भाजपा ने इस पर अपना बचाव करते हुए कहा है कि रिश्वत लेना बंगारू का निजी आचरण था। इसलिए मामला सामने आते ही उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। भाजपा का यह तर्क खोखला और हास्यास्पद है। अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति का क्या निजी आचरण है और क्या सार्वजनिक। अगर भाजपा में इतनी ही हिम्मत थी तो उन्हें कार्यकारिणी से भी हटा देना था। पार्टी ने ऐसा नहीं किया। इसी से उसकी नीयत सामने आती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने की बात कहने वाली भाजपा न तो कर्नाटक में येद्दियुरप्पा को रोक पा रही है और न ही ऐसा कोई आचरण प्रस्तुत कर रही है, जिससे उसकी छवि बेदाग साबित हो। एक बात और, अदालत में बंगारू लक्ष्मण ने कहा कि उनकी सजा पर भावनात्मक रूप से विचार किया जाए। उनका परिवार है और उनके दिल का दो बार ऑपरेशन किया गया है। क्या यह सब उन्हें रिश्वत लेते समय याद नहीं आया? जो रिश्वत लेते हैं, उन सभी का परिवार होता है। सभी कहीं न कहीं से अशक्त होते हैं। तो क्या उन पर किसी तरह का रहम किया जाए? सत्ता का नशा बहुत ही मादक होता है। इसे हर कोई पचा नहीं पाता। हर साख पर रिश्वतखोर भाजपा में रिश्वत लेने वाले बंगारू लक्ष्मण अकेले ही नहीं हैं।


सावधान ! भ्रष्टाचार प्रगति पर है


दिलीप सिंह जूदेव भी रिश्वत लेते कैमरे में कैद किए गए थे। यानी बंगारू लक्ष्मण के बाद भी भाजपा पर एक के बाद एक कई दाग लगे। कर्नाटक में येद्दियुरप्पा ने पद के दुरुपयोग और रेड्डी बंधुओं ने मंत्रिमंडल में रहते हुए अवैध कमाई का रेकॉर्ड बनाया। हाल में सीएजी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ में किस तरह कोयला खदान के आवंटन में नियम-कायदों को ताक पर रखकर भाजपा के एक नेता को उपकृत किया गया। इस सिलसिले को देखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने बंगारू प्रकरण से कोई सबक सीखा है? इस तरह का सवाल और भी कई पार्टियों को लेकर उठाया जा सकता है। विडंबना यह है कि फिर भी भ्रष्टाचार से निपटने और सार्वजनिक जीवन को साफ-सुथरा बनाने का कोई संकल्प हमारी राजनीति में दिखाई नहीं दे रहा है। उधर कर्नाटक में भाजपा अपने ही जाल में फंस गई है। एक तरफ तो वह पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रही है, दूसरी तरफ वह भ्रष्ट शख्स को प्रश्रय भी दे रही है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा के खिलाफ सीबीआइ जांच चल रही है। साल भर बाद ही लोकसभा चुनाव हैं, ऐसे में भाजपा किसी भी तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ बोल नहीं पाएगी। उधर सीबीआइ की जांच लंबे समय तक चलने के आसार हैं। स्पष्ट है, मामला लोकसभा चुनाव तक चला जाए। तब तो भाजपा को येद्दियुरप्पा से कन्नी काटनी ही होगी। साथ ही इस धारणा को भी झूठा साबित करना होगा कि कर्नाटक ही येद्दियुरप्पा और येद्दियुरप्पा ही कर्नाटक है।


येद्दियुरप्पा बने मुसीबत सुप्रीमकोर्ट द्वारा गठित एम्पावर्ड कमेटी ने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा के खिलाफ सीबीआइ जांच के चलते उनके उस दावे पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है कि वे पुन: मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। यह तो ठीक है, पर भाजपा संगठन को इस बात पर झटका लगा है कि आखिर वह येद्दियुरप्पा को कब तक झेलती रहेगी। भ्रष्टाचार पर लोकसभा चुनाव के समय वह आखिर जनता को क्या जवाब देगी? भाजपा ने दक्षिण के एकमात्र राज्य कर्नाटक में अपने बल पर सरकार का गठन किया था। कर्नाटक के अलावा भाजपा ने दक्षिण के किसी राज्य में ऐसी सफलता प्राप्त नहीं की थी। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि आंध्र में तेलंगाना के मामले पर अपना समर्थन देकर भाजपा ने अन्य राज्यों का ध्यान आकृष्ट किया है। वह अब अन्य राज्यों में अपने पांव जमाना चाहती है, लेकिन भाजपा जब कर्नाटक की सफलता को ही नहीं पचा पाई तो फिर अन्य राज्यों में वह किस तरह से अपने पांव पसार सकती है। येद्दियुरप्पा के ट्रस्ट में कितनी ही कंपनियों ने अपना धन लगाया था। उनकेही परिवार के प्रेरणा एजुकेशन ऐंड सोशल ट्रस्ट को चार कंपनियों ने 5 से 10 करोड़ रुपये दिए थे। इसके अलावा साउथ-वेस्ट माइनिंग ट्रस्ट में दस करोड़ रुपये का निवेश है। इसी तरह इंडस्टि्रयल टेक्नो मेनपॉवर सप्लाई ने 3.4 करोड़ रुपये ट्रस्ट में जमा कराए थे। अब जब येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनना है तो उन्होंने पार्टी अध्यक्ष बनने का आइडिया छोड़ दिया है। अब वे सीबीआइ के शिकंजे से बचना चाहते हैं।


सीईसी के मुताबिक जमीन बेचने के मामले में बड़ा घोटाला किया गया है। खदानों के आवंटन के समय येद्दियुरप्पा ने कहा था कि इसका लाभ उनके परिजनों को मिला, लेकिन ऐसा ही लाभ प्राप्त करने वाली कंपनियों ने येद्दियुरप्पा के संबंधियों के नाम पर चलने वाले एजुकेशनल एंड सोशल ट्रस्ट में करोड़ों रुपये की सहायता की थी। भ्रष्टाचार के इस खुलासे से सीईसी पैनल हतप्रभ रह गया। इसीलिए इस मामले को सीबीआइ को सौंपा गया। येद्दियुरप्पा के कारनामों के कारण भाजपा की कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश में फजीहत हो रही है। प्रश्न यह है कि कर्नाटक में अब क्या? येद्दियुरप्पा के पास संगठन बनाने की ताकत है। वहां भाजपा की प्रगति के आगे कांगे्रस टिक नहीं सकती। भाजपा के नेताओं को येद्दियुरप्पा यह समझाते रहे हैं कि येद्दियुरप्पा यानी कर्नाटक। भाजपा के लिए येद्दियुरप्पा एक बड़ी जवाबदारी बन गए थे। एक बार तो यह भी हो चुका है कि वे अपने समर्थक विधायकों को लेकर एक होटल में ठहर गए थे। उनका इरादा सरकार पलटने का था। अपनी इस हरकत से उन्होंने भाजपा विधायकों की नाक ही दबाई थी। इस तरह से उन्होंने कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष या मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव बनाया था। किंतु यह संभव नहीं हो पाया। विधायकों ने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया। बेबुनियाद नहीं हैं भाजपा पर इल्जाम एक तरफ भाजपा येद्दियुरप्पा के साथी और बागी विधायकों से संपर्क बढ़ा रही थी तो दूसरी तरफ येद्दियुरप्पा को यह आदेश दे दिया गया था कि जब तक सीईसी की रिपोर्ट नहीं आती, तब तक दिल्ली मत आना। अब सीईसी की रिपोर्ट आ गई है और अब येद्दियुरप्पा को सीबीआइ का सामना करना पडे़गा।


इसका खामियाजा भाजपा को भी भुगतना होगा। कर्नाटक के लोगों को इतना तो पता चल ही गया है कि भ्रष्टाचार के संबंध में जो आरोप भाजपा पर लगाए गए हैं, वह विरोधियों की चाल नहीं थी, बल्कि विभिन्न कंपनियों द्वारा येद्दियुरप्पा को दिया गया धन ही है। भाजपा को अब येद्दियुरप्पा के मायाजाल से निकलकर अपने संगठन को विश्वास में लेना होगा। वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव तक भाजपा का संगठन कमजोर हो जाएगा, क्योंकि येद्दियुरप्पा सीबीआइ के शिकंजे में लगातार फंसते चले जाएंगे। यह मामला लंबा चलेगा। भाजपा की पूरी कोशिश है कि किसी भी तरह से येद्दियुरप्पा सीबीआइ के शिकंजे से निकल जाएं। पर यह संभव नहीं दिखता। एक तरफ भ्रष्टाचारी को संरक्षण और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम। इन दो चेहरों से काम नहीं बनने वाला। यहीं पर आकर भाजपा गच्चा खा जाती है। दो चेहरों से संगठन तो चल सकता है, पर सरकार नहीं चल सकती।


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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