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बंगारू लक्ष्मण को सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा रिश्वतखोरी के मामले में चार साल की सजा भाजपा की साख पर आघात तो है ही, उन सभी राजनीतिक दलों के लिए भी एक शर्मिदगी भरा सबक है, जिन्होंने भ्रष्टाचार पर दोहरा मापदंड अपना रखे हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण भ्रष्टाचार की बीमारी नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के लक्षण भर हैं। भ्रष्टाचार की असल बीमारी तो राजनीतिक दलों की नस-नस में प्रवाहित है, जिसे खत्म करने को वे तैयार नहीं हैं। बंगारू के जेल जाने से भले ही राजनीतिक दलों को भाजपा पर वार करने का मौका हाथ लग गया हो, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है। विडंबना यह है कि अपना भ्रष्टाचार किसी को नजर नहीं आ रहा है और दूसरे का भ्रष्टाचार हिमालय जैसा दिख रहा है। बंगारू लक्ष्मण को सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद जिस तरह कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एक सुर में भाजपा पर हमला बोला, वह हैरान करने वाला रहा। वह इसलिए कि हमाम में सभी नंगे हैं। ऐसे में केवल भाजपा के नीतिपरक मूल्यों और उसके चाल, चरित्र और चेहरे पर सवाल उठाना बेमानी लगता है। भ्रष्टाचार पर एकांगी नहीं, सम्यक बहस होनी चाहिए। बंगारू के मामले में भाजपा की भूमिका संदिग्ध नहीं रही है।
तहलका डॉट काम के स्टिंग ऑपरेशन की सीडी सार्वजनिक होने के तत्काल बाद ही पार्टी ने बंगारू लक्ष्मण को अध्यक्ष पद से हटा दिया। कोई भी राजनीतिक दल ऐसी स्थिति में इससे बड़ा फैसला नहीं ले सकता। जहां तक बंगारू लक्ष्मण के ग्यारह साल तक भाजपा में बने रहने का सवाल है तो चूंकि मामला न्यायालय के अधीन था, इस नाते आरोप पुष्टि न होने तक उनका पार्टी में बने रहना गलत नहीं लगता है। अन्य राजनीतिक दल भी अपने आरोपी किरदारों को बचाने के लिए अक्सर यह दलील देते हैं कि जब तक आरोपों की पुष्टि नहीं हो जाती, तब तक किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। फिर उनकी इस कुतर्कबाजी का क्या मतलब रह जाता है कि बंगारू लक्ष्मण भाजपा में क्यों बने रहे? लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि बंगारू लक्ष्मण के मामले में भाजपा को अधिक नैतिक और पारदर्शी दिखने की कोशिश नहीं करना चाहिए था।
व्यक्तिगत तौर पर जहां बंगारू लक्ष्मण की जिम्मेदारी बनती थी कि वह नैतिकता को ध्यान में रखते हुए भाजपा से तब तक दूरी बनाए रखते, जब तक कि न्यायालय उन्हें क्लीन चिट नहीं दे देता। लेकिन ऐसा न कर उन्होंने अपनी राजनीतिक दुर्बलता का परिचय दिया। वहीं भाजपा की जिम्मेदारी बनती थी कि वह बंगारू लक्ष्मण को पार्टी से तब तक दूर रखती, जब तक कि न्यायालय द्वारा उनके पक्ष में निर्णय नहीं आ जाता। लेकिन भाजपा ने सब्र से काम न लेकर अपने नीतिपरक मूल्यों की बलि चढ़ा दी। पार्टी विद द डिफरेंस को झुठला दिया। विरोधियों को अपने चाल, चरित्र और चेहरे पर फब्तियां कसने का मौका दे दिया। अब अपने बचाव में भाजपा जो भी तर्क दे, लेकिन वह अपनी राजनीतिक अनैतिकता को नैतिकता में नहीं बदल सकती। दूसरी ओर अन्य राजनीतिक दल भले ही बंगारू लक्ष्मण के बहाने भाजपा पर निशाना साध रहे हों, लेकिन वे इसकी आड़ में अपने राजनीतिक भ्रष्टाचार की पर्दादारी नहीं कर सकते। सभी दल भ्रष्टाचार के कीचड़ में ऊपर से नीचे तक सने हुए हैं। राजनीतिक दलों के छोटे-छोटे मोहरों को छोडि़ए, दलों के मुखियाओं तक पर संगीन आरोप हैं। वे सत्ता के साथ मिलीभगत कर किसी तरह जेल जाने से बचे हुए हैं।
आय से अधिक संपत्ति मामले में देश के कई नामचीन राजनेता आज भी न्यायालय का सामना कर रहे हैं। जब एक लाख रुपये की रिश्वत लेने के मामले में बंगारू को चार साल की सजा सुनाई जा सकती है तो फिर गलत ढंग से जमा की गई संपत्ति के आरोप में राजनेताओं को तो उम्रकैद की सजा होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य कि वे केंद्रीय सत्ता और सीबीआइ की मेहरबानी से बचे हुए हैं। लगे हाथ भ्रष्टाचार पर उपदेश भी सुना रहे हैं। कांग्रेस का यह कहना कि बंगारू लक्ष्मण का जेल जाना भाजपा के लिए एक सबक है, निश्चित रूप से यह सही है। लेकिन समझ से परे यह है कि वह खुद भ्रष्टाचारियों को संरक्षण क्यों दे रही है। किसी से छिपा नहीं है कि संप्रग सरकार के कई मंत्री हजारों करोड़ के घोटाले के आरोप में जेल की सलाखों के पीछे हैं। बंगारू लक्ष्मण का जेल जाना निश्चित रूप से आमजन के लिए राहत की बात है, लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी केंद्र सरकार का सत्ता में बने रहना किसी त्रासदी से कम नहीं है।
इस आलेख के लेखक अभिजीत मोहन हैं
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