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बजट नहीं संकट

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
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रकारें दुर्भाग्‍य भी ला सकतीं (ग्रीस) हैं। सियासत अभिशाप भी बन सकती है और बजट संकटों की शुरुआत भी कर सकते हैं। अब से छह माह बाद जब देश में महंगाई की दर दहाई को छू रही होगी, ग्रोथ यानी आर्थिक विकास की दर अपनी एडि़यां रगड रही होगी और बजट का संतुलन बिखर चुका होगा तब हमें यह समझ में आएगा बजट कितने बदकिस्‍मत होते हैं। उम्‍मीदें टूटने का गम भूल कर बस यह देखिये कि सरकार कितनी जल्‍दी इस बजट के बुरे असर कम करने के लिए मोर्चे पर लगती है। यह हाल के वर्षों का पहला बजट होगा, जिससे मुसीबतों के समाधान की नहीं बलिक समस्‍याओं के नए दौर की शुरुआत होती दिख रही है। लड़खड़ाती अर्थव्‍यवस्‍था, थके उपभोक्‍ता और ह‍ताश निवेशक बजट से बेहद तर्कसंगत सुधार (रियायतें नहीं) चाहते थे तब प्रणव के बजटने उपभोक्‍ताओं की कमर और ग्रोथ की टांगे तोड़ दी हैं। सियासत और सरकार दोनों ने मिलकर अब अर्थव्‍यव्‍स्‍था को अंधी गली में धके‍ल दिया है, जहां से निकलने में जहां से निकलने में कम से कम तीन वर्ष लगेंगे।

भयानक मार
आप जिंदा मक्‍खी निगल सकते हैं मगर जिंदा मेढक नहीं। 45000 करोड़ रुपये के नए अप्रत्‍यक्ष करों (पिछले एक दशक में सर्वाधिक) के बाद महंगाई नहीं तो और क्‍या बढेगा। टैक्‍स बुरे नहीं हैं क्‍यों कि इनसे देश चलता है मगर जब ग्रोथ डूब रही तो सर पर टैक्‍स का बोझ रख देना पता नहीं कहां की समझदारी है। समझना मुश्किल है कि वितत मंत्री इस कदर टैक्‍स बढाकर आखिर हासिल क्‍या करना चाहते हैं। अगर वित्‍त मंत्री घाटे को थामने के लिए इतने टैक्‍स लगा रहे थे तो फिर घाटे को के अनुमान को पांच फीसदी से नीचे होना चाहिए था मगर 2012-13 का राजकोषीय घाटा 5.1 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर है यानी कि राजकोषीय असंतुलन कायम है और बढ़ेगा। अगर महंगाई सरकार की सबसे बड़ी चिंता है तो फिर एक मुश्‍त टैक्‍स से बचना चाहिए था। अगर ग्रोथ की जरुरत थी तो मांग के दुश्‍मनों को रोकना चाहिए था। अब टैक्‍स व कीमतें बढ़ने के बाद मांग बढ़ने की बात मजाक ही है। । बजट में पेट्रो सब्सिडी के मद में करीब 25000 करोड़ रुपये की कमी की गई है, स्‍पष्‍ट है संसद का सत्रावकाश होते ही पेट्रो पदार्थ महंगे होंगे। यह बजट अपने पैर पर कुल्‍हाड़ी मारने की कला सिखाता है। पिछले तीन साल से सता रही महंगाई बस इसी दिसंबर से कुछ कम होना शुरु हुई थी जो अगले तीन माह में नई ताकत के साथ लौट आएगी। जब अपनी जेब को कटते और सरकार को महंगाई से जूझते देखें तब यह याद रखियेगा कि यह तोहफा इस बजट ने दिया था।

संभावनाओं पर वार
कोई खौलते पानी से खेल सकता है मगर उसमें बर्फ नहीं जमा सकता। अलबत्‍ता इस बजट के बाद रिजर्व बैंक से ऐसी ही उम्‍मीद की जाएगी। अपेक्षा होगी कि ब्‍याज दर घटे, बाजार में रुपया बढे कर्ज सस्‍ते हों और उद्योग जगत निवेश का ईंधन डाल कर ग्रोथ का जहाज उडा ले जाएं। ..लेकिन इस बजट ने महंगाई के नाखूनों में जहर लगाकर ब्‍याज दर कम होने संभावनायें खत्‍म कर दी हैं। बजट के बाद रिजर्व बैंक वापस वहीं खड़ा है जहां वह पिछले साल जुलाई में था। वित्‍तीय संतुलन का दम भरने वाली सरकार नए वित्‍त वर्ष में 4,79000 करोड़ रुपये का रिकार्ड कर्ज लेगी अर्थात रिजर्व बैंक को अब महंगाई भी थामने के साथ सरकार के लिए बाजार में पैसा भी रखना है। अर्थात अगर बाजार में बढ़ा भी वह सरकार के कर्ज कार्यक्रम को मिलेगा। इस बजट से सस्‍ते कर्ज और बाजार में पूंजी दोनों की उम्‍मीद खत्‍म हो गई है। टैक्‍स की मार और मरी हुई मांग के बाद महंगे ब्‍याज पर निवेश की हिम्‍मत कोई सरफिरा ही दिखायेगा। इस बजट के बाद अगर आपको महंगाई और महंगा होम लोन दोनों की मार खानी पडे़, समझियेगा कि बजट ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया है।

ग्रोथ का शिकार
अगर बजट भाषणों से ग्रोथ रीझ जाती तो अमेरिका यूरोप के वित्‍त मंत्री जादूगर हो गए होते। ग्रोथ बड़े जतन से संवरती है और नाजों पर पलती है। इस बजट ने बड़ी बेरहमी के साथ तेज विकास दर की बची खुची उम्‍मीदों का शिकार कर लिया है। मांग और सस्‍ती पूंजी के बाद नीतियां ग्रोथ का तीसरा कच्‍चा माल हैं। यह शायद पहला ऐसा बजट होगा है, जिसमें किसी भी क्षेत्र में बेहतरी की उम्मीदों की एक किरण भी नहीं है। खेती बैंकों के कर्ज से चलेगी जो पहले ही किसानों के गले में फंसा है। बुनियादी ढांचा तब बनेगा जब विदेशी वाणिज्यिक ऋण (ईसीबी) मिलेंगे। औद्योगिक निवेश कम होना आर्थिक समीक्षा मुताबिक सबसे बड़ी मुसीबत है, मगर इस बजट को सुनने और रेल बजट का हश्र देखने के बाद कौन सा निवेशक नई इकाई लगाने की बात करेगा। इसमें तो जमीन अधिग्रहण, कानूनों की कमजोरी, विभिन्‍न सरकारी स्‍वीकृतियों जैसी उन बुनियादी मुसीबतों पर चिंता तक नहीं दिखी जिन्‍हें लेकर उद्योग (बकौल आर्थिक सवेक्षण) पस्‍त हो चुके हैं। वित्‍त मंत्री की सियासी मजबूरियां सबको मालूम थीं, मगर यह किसी को नहीं मालूम था कि सरकार अपने सहयोगियों से इतनी डर जाएगी कि वह सुधारों की बात भी न कर सके। इससे तो यूपीए-एक वाले मनमोहन अचछे थे नाभिकीय संधि पर करो या मरो के लिए तैयार हो गए थे। वित्‍त मंत्री से किसी क्रांति की अपेक्षा नहीं थी, बस कुछ ऐसे साहसी कदमों की दरकार थी जिसे यह लगे देश में सरकार काम कर रही है। यदि अगले कुछ माह में विकास दर तेजी से गिरे, गवर्नेंस का शून्‍य, जल्‍दी चुनावों की चर्चा हो और सरकार की साख ढहती दिखे तो इसके लिए इस बजट को जरुर बिसूरियेगा। यह चौतरफा ग्रोथ तोड़ बजट है।

इस बजट में साहस, सूझ और संकल्प का घाटा सबसे बडा है और इसका सबसे ताकतवर असर यह है कि भारत के लिए दस फीसदी की ग्रोथ का लक्ष्‍य अब बहुत दूर हो गया है, अगले कुछ वर्षों में अब आठ फीसदी तक पहुंचना भी असंभव है। यह बजट हमें महंगाई, महंगा कर्ज, भारी घाटा, कम उत्‍पादन और घटती ग्रोथ के दुष्‍चक्र में धकेल रहा है। एसे दुष्‍चक्र खतम होने में कम से कम देा साल लेते हैं। 2007 के बाद से इस देश को नीतियों या सुधारों के मामले में कुछ भी नया नहीं हुआ। यूपीए की पहली सरकार के आखिरी दो साल चुनावों की तैयारी में गए जबकि पिछले तीन साल के नीतियो शून्‍य और भ्रष्‍टाचार में। अगला बजट चुनावी होगा और अगले दो साल कई राज्‍यों व अंत में बड़े चुनावों के नाम होंगे। 2014 में जब हमें इस नीतियों की शूनय की साढे साती से मुक्ति मिलेगी तब तक देश बहुत कीमती सात साल गंवा चुका होगा। हमें एक घटिया सियासत और कमजोर सरकार से हमें एक आत्‍मघाती बजट मिला है जिसकी मार से बच पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

बजट 2012-2013 : जानें मंहगा क्या हुआ और सस्ता क्या हुआ


इस आलेख के लेखक अंशुमान तिवारी हैं


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