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क्या कुपोषण से मिलेगा छुटकारा

जागरण मेहमान कोना
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Annu Anandकैबिनेट ने आखिरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी दे दी है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं कि इस सत्र में खाद्य सुरक्षा विधेयक को पेश करना उनकी पार्टी की प्राथमिकता होना चाहिए। इसके पीछे यह सोच भी है कि उनकी सरकार सूचना का अधिकार और मनरेगा जैसी योजनाओं को लागू कर आम आदमी का समर्थन पहले ही हासिल कर चुकी है। अब भोजन के अधिकार संबंधी विधेयक को संसद में पेश करने से एक बार फिर देश के आमजन का विश्वास पार्टी में लौट सकता है। लोकपाल और काला धन सहित कई मामलों में उलझी सरकार के लिए खाद्य सुरक्षा का मसला अब राहत दे सकता है। भ्रष्टाचार से बड़ी भूख की दुहाई देकर मंत्रिमंडल ने आनन-फानन में खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी दे दी, लेकिन बिल के प्रारूप और उसके मुख्य प्रावधानों की खामियों और उसमें सुधार करने पर बहस करना उचित नहीं समझा गया। चुनावों की राजनीति में गरीबों की भूख दांव पर लग गई। लेकिन विधेयक के जिस मौजूदा स्वरूप को मंजूरी मिली है, अगर संसद में वह उसी स्वरूप में पारित हो गया तो देश की अधिकतर जनसंख्या की भूख की समस्या और बढ़ जाएगी। विधेयक में आम लोगों को प्राथमिकता और सामान्य दो हिस्सों में बांटा गया है।


बीपीएल को प्राथमिकता वाले परिवारों में और एपीएल को सामान्य परिवारों में रखा गया है, लेकिन समस्या इन प्राथमिकता वाले और सामान्य परिवारों की पहचान की है। विधेयक में गरीबों की पहचान के लिए सरकारी दिशा-निर्देश की बात कही गई है, लेकिन अभी तक सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना यानी सोशल इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीएस) के तहत गरीबों की पहचान करने की योजना बनाई गई है। भोजन के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले अधिकतर समूह इस तरह की जनगणना को असंगत बताते हुए विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस तरह गरीबों की पहचान मुश्किल है। सरकार ने एसईसीएस के तहत किसी भी व्यक्ति को प्राथमिकता की सूची में डालने के लिए सात मापदंड बनाए हैं, जिनके आधार पर तय होगा कि व्यक्ति गरीब है या नहीं और वह बीपीएल की श्रेणी में आएगा या नहीं।


वास्तव में गरीबों की पहचान के लिए जो मापदंड बनाए गए हैं, अगर उसी के आधार पर समूचे देश में गरीबों की पहचान कराई गई तो निश्चित ही देश के अधिकतर इलाकों में 70 प्रतिशत पात्र गरीब पीडीएस सहित दूसरी सरकारी सुविधाओं से बाहर हो जाएंगे। इसी सर्वे के मापदंडों के चलते जयपुर जिले के एक गांव में के 67 फीसदी लोग बीपीएल की सूची से बाहर हो गए, क्योंकि इन मापदंडों के मुताबिक अगर किसी का घर कच्चा है तो उसे बेघर नहीं माना जाएगा। अगर किसी किसान के पास सरकार द्वारा दिया गया हैंडपंप है या वह ऋण लेने के लिए पात्र है तो उसे बीपीएल से बाहर माना जाएगा। इसी प्रकार अगर किसी परिवार में 16 साल का बेटा है तो उसका बीपीएल स्तर खत्म हो जाएगा, क्योंकि बच्चा वयस्क माना जाएगा। यह अलग बात है कि मनरेगा के तहत 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को काम नहीं दिया जाता। भोजन के अधिकार अभियान के मुताबिक यह सर्वे लाखों जायज लोगों को नई बनने वाली बीपीएल सूची से बाहर कर रहा है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सदस्य जॉन द्रेंज के मुताबिक गरीबों की पहचान के उचित मापदंड के बिना बिल को लागू करना गरीबों के साथ बहुत बड़ा धोखा है। सोशल आर्थिक और जातिगत जनगणना द्वारा प्राथमिक और सामान्य लोगों की पहचान का आधार गलत होते हुए भी यह सर्वे राजस्थान और उड़ीसा में जारी है।


त्रिपुरा के कई हिस्सों में इसे पूरा किया जा चुका है। विधेयक में पोषण के स्तर पर सुरक्षा की कोई गांरटी नहीं है। इस विधेयक में पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म कर राशन की बजाय नकद का प्रावधान भी है। यानी इसमें नकद राशन प्रदान करने की सिफारिश की गई है। गरीबों के लिए यह एक घातक कदम साबित होगा। नकद राशि घर का अनाज खरीदने पर ही खर्च हो, इसकी कोई गारंटी नहीं। घर में आने वाले पैसे पर पुरुषों का अधिकार होता है। पीडीएस से घर में खाने के लिए अनाज तो आ जाएगा, लेकिन पैसा कहां खर्च हो यह महिलाओं के अधिकार में नहीं रहता। वास्तव में पीडीएस तभी सफल साबित हो सकता है, जब वह सब पर लागू हो और वह भी बिना किसी रेखा के बंटवारे के।


लेखिका अन्नू आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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