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आंतरिक सुरक्षा के लिए बढ़ती चुनौतियों के प्रति नीति-नियंताओं की बेरुखी पर निराशा जता रहे है प्रकाश सिंह
भारत की आंतरिक सुरक्षा का ढांचा चरमरा रहा है। मुंबई में 26 नवंबर 2008 को आतंकवादी हमले के बाद जब पी. चिदंबरम ने गृहमंत्रालय की बागडोर संभाली थी तो ऐसा लगा था कि आंतरिक सुरक्षा अब सुदृढ़ हो जाएगी। गृहमंत्री ने कुछ ठोस कदम उठाए भी। नेशनल सिक्योरिटी गार्ड की इकाइयां हैदराबाद, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में स्थापित की गई। काउंटर इनसर्जेसी स्कूल स्थापित किए गए। अभिसूचना के लिए गठित मल्टी एजेंसी सेंटर को सक्रिय किया गया। नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी का सृजन हुआ। राज्य सरकारों को पुलिस बल में वृद्धि और उसके आधुनिकीकरण हेतु निर्देश जारी किए गए तथा धन आवंटित किया गया। उन दिनों चिदंबरम के बयानों में भी तल्खी थी। पाकिस्तान को उन्होंने खुले शब्दों में चेतावनी दी कि यदि मुंबई जैसी घटना की पुनरावृत्ति हुई तो जबरदस्त जवाबी कार्रवाई की जाएगी, परंतु कई कारणों से गृह मंत्रालय की गति में शिथिलता आती गई। दो कारण प्रमुख थे-पहला तो कांग्रेस का अंतरविरोध। सत्तारूढ़ पार्टी में कुछ गुट ऐसे थे जो चिदंबरम को ज्यादा सफल नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने यह भी प्रचार किया-सही या गलत कि चिदंबरम महत्वाकांक्षी हैं और प्रधानमंत्री पद पर उनकी नजर है। दिग्विजय सिंह ने उन पर खुला प्रहार किया और उनकी नक्सल नीतियों की आलोचना की। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर भी चिदंबरम विवादों में हैं। इन सबका परिणाम यह हुआ है कि गृहमंत्री अपने आपको कमजोर पा रहे हैं और महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने में अक्षम महसूस करते हैं।
आंतरिक सुरक्षा को चार क्षेत्रों में बड़ी चुनौतियां हैं-आतंकवाद, कश्मीर, पूर्वोत्तर और माओवादी हिंसा। आतंकवाद की वर्ष 2011 में तीन बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें से दो तो दिल्ली हाईकोर्ट में हुई थीं, पहली 25 मई को और दूसरी 7 सितंबर को। इसके अलावा मुंबई में 13 जुलाई को झावेरी बाजार, दादर और ओपेरा हाउस में विस्फोट हुए, जिनमें 26 लोग मारे गए। स्पष्ट है कि हम आतंकवादी घटनाओं पर रोक नहीं लगा पा रहे हैं। अभियोगों के अन्वेषण में भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। आतंकवाद से लड़ने में दो कमजोरियां आड़े आ रही हैं। पहला तो आतंकवाद निरोधक सख्त कानून का अभाव और दूसरा आतकवाद से लड़ने की नीति की व्याख्या न होना। एक तरफ तो हम आतंकवाद से त्रस्त होने का ढिंढोरा पीटते हैं और दूसरी तरफ आतंकवाद से लड़ने का सख्त कानून बनाने में हिचकिचाते हैं। यह एक विचित्र विरोधाभास है। आतंकवाद से लड़ने की क्या नीति होनी चाहिए, इस बारे में अभी तक मतैक्य नहीं हो सका है।
कश्मीर में इस वर्ष हिंसा की घटनाओं में अवश्य कमी हुई है। सुरक्षा बलों को भी कम नुकसान हुआ है, परंतु यह भी अकाट्य तथ्य है कि सीमा पार 42 प्रशिक्षण कैंप हैं, जहां घुसपैठियों को ट्रेनिंग दी जाती है। इसके अलावा करीब 2500 आतंकवादी सीमा पार करने के लिए तैयार बैठे हैं। फौज के जनरल अफसर कमांडिंग 15 कोर ने 12 अक्टूबर को एक बयान में कहा कि इतने ज्यादा आतंकवादियों का समूह नियंत्रण रेखा के दूसरी ओर कभी नहीं एकत्रित हुआ था। स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने अब आतंकवादियों को ढील देना शुरू कर दिया है। निकट भविष्य में लश्करे तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद की गतिविधियों में विशेष तौर से वृद्धि हो सकती है।
पूर्वोत्तर की समस्याएं छह दशक बाद भी भारत सरकार को अभी तक ठीक से समझ में नहीं आई हैं। ढुलमुल नीति चली जा रही है। अभी हाल में कूकी विद्रोहियों ने राष्ट्रीय राजमार्ग 39 और 53 पर एक अगस्त से नाकेबंदी कर दी थी। यह सब तीन महीनों तक चलता रहा। राज्य सरकार ने तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला ही झाड़ लिया। मणिपुर में करीब 20 आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इनमें से कुछ अब प्रचार करने लगे हैं कि मणिपुर भारत का कभी अंग नहीं था और भारत सरकार ने इसे जबरदस्ती 21 सिंतबर 1949 को तत्कालीन महाराजा पर दबाव डालकर इसे भारत में शामिल कर लिया था। भारत सरकार की मणिपुर के प्रति उदासीनता से ऐसे आतंकवादी तत्वों को बल मिलेगा। नागालैंड में विद्रोहियों का आइजक-मुइवा संगठन बराबर मनमानी कर रहा है। युद्धविराम के शर्तो का खुला उल्लंघन करता है और भारत सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती। शांतिवार्ता के करीब 60 दौर हो चुके हैं, परंतु कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आए हैं। असम में अवश्य हालात में कुछ सुधार हुआ है। उल्फा के चेयरमैन अरविंद राजखोवा और भारत सरकार के बीच 14 फरवरी और 25 अक्टूबर 2011 को वार्ता हुई। चिंता का केवल एक बिंदु रह गया है-उल्फा के सैन्य संगठन के प्रमुख परेश बरुआ अभी भी भूमिगत हैं और असम की स्वाधीनता की बात करते हैं। संभवत: उन्हे चीन से समर्थन भी मिल रहा है।
माओवादियों की हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। गृहमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया कि माओवादी 20 राज्यों के 223 जनपदों में अपना फैलाव कर चुके हैं। देश के करीब 2000 पुलिस थानों के क्षेत्र में उनकी उपस्थिति देखी गई है। 2010 में पहली बार माओवादी हिंसा की घटनाओं में मरने वालों की संख्या एक हजार के ऊपर पहुंच गई थी। करीब दो वर्ष पहले जब सुरक्षा बलों को भारी संख्या में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भेजा गया तो ऐसा लगा था कि 2-3 वर्ष में भारत सरकार इस समस्या पर अंकुश लगाने में सफल हो जाएगी, परंतु ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस में इस विषय पर गंभीर मतभेद हैं। एक वर्ग केवल आर्थिक प्रगति द्वारा ही समस्या का समाधान चाहता है। यह लोग यह नहीं समझ रहे हैं कि माओवादियों की 10 हजार की पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी को निष्प्रभावी किए बिना कोई प्रगति नहीं हो सकती। जो भी योजनाएं चलाई जाती हैं उनका माओवादी विरोध करते हैं। सड़क नहीं बनने देते, स्कूल की बिल्डिंग उड़ा देते हैं, मोबाइल टावर ध्वस्त कर देते हैं, जबरन पैसे वसूलते हैं।
सरकार की अस्पष्ट नीतियों के चलते सुरक्षा बल भी ढीले पड़ गए हैं। प्रभावित क्षेत्रों में कोई आक्रामक अभियान नहीं चलाए जा रहे हैं। फलस्वरूप स्थिति यथावत बनी हुई है। माओवादी यदा-कदा जब भी मौका मिलता है हिंसा की घटनाएं कर लेते हैं। राज्यों में पुलिस की हालत जर्जर है। मुख्यमंत्रियों ने पुलिस बल को सक्षम और प्रभावी बनाने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपये आवंटित हो रहे हैं, परंतु इसका बड़ा भाग भ्रष्ट नेता, अधिकारी और ठेकेदार आदि खाए जा रहे हैं। जिन वर्गो को लाभ मिलना चाहिए वे वंचित रह जाते हैं। कुल मिलाकर स्थिति बड़ी सोचनीय और चिंताजनक है। आज आवश्यकता है प्रभावी नेतृत्व की, सही नीतियों की और सुरक्षा तंत्र को सुदृढ़ बनाने की।
लेखक प्रकाश सिंह सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं
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