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लोगों की निजता में सेंध का खतरा

जागरण मेहमान कोना
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कोई ढाई साल पहले विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानी यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (यूआइडीआइए) का गठन किया गया था। इसका मकसद नागरिकों की पहचान और सामाजिक योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाने के लिए एक सुरक्षित तकनीकी बॉयोमेट्रिक डाटाबेस मुहैया कराना था। नॉसकॉम के पूर्व सहसंस्थापक नंदन नीलकेणी को इसका निदेशक बनाकर पांच साल में करीब 60 करोड़ लोगों को विशिष्ट पहचान पत्र यूआइडी या आधार कार्ड देने का लक्ष्य रखा गया। यूआइडी को शुरुआती तौर पर 3,000 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया। हालांकि अब सरकार के भीतर से ही योजना के औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं। योजना आयोग, गृह मंत्रालय के बाद वित्त मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने भी सुरक्षा जोखिम, निजता के संरक्षण के प्रावधानों की कमी और फिंगर प्रिंट और पुतलियों के स्कैन की तकनीक को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। संसदीय समिति ने नेशनल आइडेंटिफिकेशन विधेयक को खारिज कर दिया है। हालांकि प्रधानमंत्री की दिलचस्पी और दखल से यूआइडीआइए को व्यापक अधिकारों के साथ यह जिम्मेदारी दी गई थी। अब कुछ केंद्रीय मंत्री ही कह रहे हैं कि आधार कार्ड नागरिकता या सामाजिक योजनाओं का लाभ पाने की गारंटी नहीं है।


आधार समर्थकों का तर्क है कि यूआइडीआइए को मिली स्वायत्तता से नौकरशाही छटपटा रही है और यही विरोध की वजह है। संसद में कोई विधेयक पारित किए बिना यूआइडी को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपना, 3,000 करोड़ का बजट देना और कार्यक्षेत्र में स्वायत्तता देना मंत्रालयों को अखर रहा है। इन तर्को में भी दम नजर आता है, लेकिन कानून बनाकर कर यूआइडी को तमाम जिम्मेदारी दी जाती तो शायद आज ये आपत्तियां सामने नहींआतीं। केंद्र सरकार ने यूआइडीआइए के नीति निर्धारण, निगरानी के लिए जो मंत्रिसमूह गठित किया था, उसके सदस्य और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और गृहमंत्री पी चिदंबरम ने योजना पर दोबारा विचार करने की आवाज उठाई है, जो गंभीर सवाल खड़े करता है। माना जा रहा है कि यूआइडीआइए धीरे-धीरे योजना के तहत देश की पूरी आबादी को इसके तहत लाना चाहती है। इसका खर्च 50,000 करोड़ रुपये आंका जा रहा है। अगर सरकार ने स्थायी समिति की सिफारिशें मानीतो विधेयक लटक जाएगा और फंडिंग रुक जाएगी। सिफारिशें दरकिनार हुई तो मामला सरकार के गले की फांस बन सकता है।


आधार कार्ड के लिए सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है कि इससे सामाजिक योजनाओं का लाभ गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को चिह्नित करने में मदद मिलेगी। पीडीएस की जगह कैश सब्सिडी दिए जाने की जो योजना है। कहा जा रहा है कि आधार भी एक ऐसे स्मार्ट कार्ड का रूप लेगा और गरीबों तक सीधे मदद पहुंचाई जा सकेगी, लेकिन ऐसे सुनहरे ख्वाब पर अब धुंधले बादल गहराते जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि बॉयोमेट्रिक तकनीक के तहत इकट्ठा डाटाबेस का दुरुपयोग भी हो सकता है। खुद चिदंबरम ने नागरिकों की निजी जानकारी इकट्ठा करने के यूआइडीआइए के तौर-तरीकों पर अंगुली उठाई है। आश्चर्य है कि मंत्रिसमूह या यूआइडी पर बनी सचिवों की समिति ने इस महत्वपूर्ण पहलू पर विचार क्यों नहींकिया? यूआइडीआइए को प्रारंभ में सिर्फ 20 करोड़ आबादी के बॉयोमेट्रिक डाटा एकत्र करने का जिम्मा दिया गया था और बाद में यह काम गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर को सौंपा जाना है, मगर आशंका व्यक्त की जा रही है कि यूआइडी पूरी आबादी के लिए गणना और पहचान कार्य को अपने हाथों में लेना चाहता है। इससे राज्य और संबंधित एजेंसियां पसोपेश में हैं कि वे राष्ट्रीय आबादी रजिस्टर या आधार में किसकी प्रक्रिया का पालन करें। गृह मंत्रालय का तर्क है कि आधार कार्ड पाने के लिए भी फर्जी जानकारियों और पहचान पत्रों का इस्तेमाल मुमकिन है।


निजी जानकारियों को लेकर मूल अधिकारों के उल्लंघन का सवाल भी है। कई पश्चिमी देशों ने इसी वजह से यूआइडी जैसा पहचान पत्र बनाने का ख्याल छोड़ दिया। डाटाबेस की मदद से स्मार्ट कार्ड और ई-गर्वनेंस के लाभ को जनता तक पहुंचाने का इरादा है। जाहिर है, इसमें निजी एजेंसियां भी हाथ बंटाएंगी। इससे निजता भंग होने की आशंका भी बढ़ जाएगी। बहरहाल, इतने बड़े प्रोजेक्ट, उसकी लागत और उपयोगिता के बारे में मंत्रिसमूह द्वारा व्यापक विचार-विमर्श न किया जाना अरबों-खरबों रुपये की बर्बादी का सबब बन सकता है।


इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं


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