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संयुक्त राष्ट्र संघ में शांति और लोकतंत्र थीम पर हुई बैठक में पश्चिमी देशों द्वारा विकासशील देशों को हथियारों की होड़ में न पड़ने की सलाह और कुछ नहीं, बल्कि उनकी दोहरी नीति और सोच का परिचायक है। पश्चिमी देश एक तरफ तो खुद हथियारों के बड़े उत्पादक और निर्यातक हैं दूसरी ओर वह विश्व के शेष देशों को इस होड़ में न पड़ने की सलाह देते नजर आ रहे हैं। यदि ऐसा ही मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि यह पहल विकसित देशों की तरफ से क्यों नहीं होती? अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट में विकासशील देशों पर जो अध्ययन पेश किया गया है उसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी स्थिति बनी ही क्यों और इसे बदला कैसे जा सकता है? किसी भी लोकतंत्र में शांति कायम रहे, यह वैश्विक जिम्मेदारी है और यदि संयुक्त राष्ट्र इसकी जिम्मेदारी लेता है तो इससे एक बड़ा बदलाव आ सकता है।
यह सही है कि विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे हथियारों पर ज्यादा खर्च कर सकें, लेकिन जब उनकी सुरक्षा और अस्तित्व पर ही सवाल आ खड़ा होता है तो वे न चाहते हुए भी ऐसी होड़ में पड़ने के लिए विवश होते हैं। यदि हम अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों की बात करें तो इन्होंने आर्थिक तरक्की हासिल करने के लिए हथियारों के बाजार को जानबूझकर विस्तृत किया है ताकि वह अपने यहां हथियारों का उत्पादन करें और बाद में इन्हें दुनिया के विभिन्न देशों में बेचकर अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकें। अगर ऐसा नहीं होता तो इन देशों में हथियारों के अनुसंधान को इतना बढ़ावा शायद ही दिया जाता है। इन देशों के बजट का एक बड़ा हिस्सा हथियारों के निर्माण व उनके अनुसंधान के लिए खर्च किया जाता है। आज पश्चिमी देशों के पास जिस तरह के हथियार हैं वह काफी समुन्नत और महंगे हैं। इन हथियारों को खरीद पाना भी सामान्य देशों के वश का नहीं है। जाहिर है, जब इस तरह के हथियारों की होड़ पूरी दुनिया में खुलेआम पैदा की जा रही है तो विकासशील देशों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। दरअसल पश्चिमी देशों की यह पुरानी आदत है कि वे खुद को नैतिक, ईमानदार और अच्छा बताते हैं जबकि दूसरे देशों को अपनी तुलना में गलत साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते।
आज जिस शांति और लोकतंत्र के थीम पर संयुक्त राष्ट्र संघ में चर्चा कराई जा रही है, उस पर भारत लंबे अरसे से जोर देता आ रही है, लेकिन आज तक किसी ने भी उस पर कान देना जरूरी नहीं समझा। चाहे आतंकवाद का मसला हो या फिर परमाणु हथियारों के निरस्त्रीकरण का मामला रहा हो, भारत ने सदैव ही जोर दिया कि इनका खात्मा किया जाना चाहिए, न कि कुछ देशों को विशेषाधिकार देकर बाकी के देशों को प्रतिबंध के दायरे में लाया जाए। आज पूरी दुनिया में इस पर बहस हो रही है, लेकिन इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए कोई भी देश तैयार नहीं। सब अपनी सुरक्षा और विशेषाधिकार को वरीयता देना चाहते हैं और दूसरों को आदर्शवादी रास्ते अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। जब तक पश्चिमी देश इस तरह के दोहरे रवैये का परित्याग नहीं करते, विश्व में शांति और लोकतंत्र के विस्तार के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। यदि ईमानदारी से कहा जाए तो पश्चिमी देशों के इस तर्क में कुछ भी नया नहीं है, जिसे स्वीकार किया जा सके या जिस पर विचार किया जा सके। अगर हम भारत की ही बात करें तो हमारे पड़ोस के देशों में जिस तरह की गतिविधियां चल रही है, उसे मद्देनजर रखते हुए हम कब तक खुद को रोक सकते हैं।
अगर हम अपनी सुरक्षा तैयारियों पर खर्च कम करते हैं तो इससे न केवल हमारी सीमाएं असुरक्षित हो जाएंगी, बल्कि देश में आर्थिक विकास की प्रक्रिया भी प्रभावित होगी। दरअसल, विदेशी कंपनियां सुरक्षा के अभाव में यहां आने और निवेश करने से दूर भागेंगी। इसलिए आज के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना होगा और अपनी सामरिक तैयारियों को भी अधिक पुख्ता करना होगा ताकि किसी भी तरह की स्थिति से निपटा जा सके।
लेखक जी. पार्थसारथी भारत के पूर्व राजनयिक हैं
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