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अगर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पचास के दशक में अमेरिका का प्रस्ताव, चाहे स्वार्थवश ही रहा हो, स्वीकार कर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ग्रहण कर ली होती तो बात कुछ और ही होती। आज स्थायी सीट हासिल करने के लिए भारत को क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है? संयुक्त राष्ट्र महासभा में हर साल लच्छेदार और विचारोत्तेजक भाषण देने पड़ रहे हैं। छोटे-बड़े देशों की राजधानियों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। सुरक्षा परिषद के पांच महारथियों की मान-मनौव्वल करनी पड़ रही है। तमाम वैश्रि्वक मंचों से अपनी दावेदारी का ढोल खुद पीटना पड़ रहा है और सबसे शर्मनाक तो यह कि उस चीन के सामने गिड़गिड़ाना पड़ रहा है, जिसके पक्ष में स्थायी सीट छोड़ी गई थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र महासभा के 66वें अधिवेशन में जोरदार तरीके से संयुक्त राष्ट्र सुधार की जरूरत बताते हुए भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता देने की वकालत की, पर इस सच्चाई से तो प्रधानमंत्री भी वाकिफ हैं कि यह राह इतनी आसान नहीं है।
1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के वक्त उसके सदस्यों की संख्या 50 थी, जो आज बढ़कर 193 हो गई है। इन पैंसठ सालों के दौरान दुनिया भी हर लिहाज से बदल गई है, लेकिन सुरक्षा परिषद में दुनिया के राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व जस का तस बना हुआ है। क्या यह उम्मीद करना समझदारी है कि विकट आर्थिक मंदी, जिहादी आतंकवाद, अधिनायकवादी देशों में आजादी पर अंकुश और जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल चुनौतियों का मुकाबला साढ़े छह दशक पहले की दुनिया को प्रतिबिंबित करने वाली सुरक्षा परिषद कर पाएगी? साठ के दशक में अस्थायी सदस्यों की संख्या छह से बढ़ाकर दस कर नवोदित एवं विकासशील राष्ट्रों को चुप कराने की कोशिश की गई थी, लेकिन सुरक्षा परिषद के विस्तार या सुधार की यह पहली और आखिरी कोशिश थी, वह भी आधी-अधूरी। सुधार की मांग शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद फिर से जोर पकड़ने लगी। पर परिणाम क्या निकला? चाहे वह 1992 में सुरक्षा परिषद के पहले शिखर सम्मेलन के बाद महासचिव बुतरस घाली का एजेंडा फॉर पीस दस्तावेज हो या 2005 में महासचिव कोफी अन्नान की इन लार्जर फ्रीडम रिपोर्ट, केवल वार्ता-बहस ही होती रही। बात जुबानी जमाखर्च से आगे नहीं बढ़ पाई। 2005 में जी-4 (भारत, जापान, जर्मनी और ब्राजील) सक्रिय होकर काफी व्यावहारिक योजना प्रस्तुत कर चुका था, लेकिन उसका प्रस्ताव क्षेत्रीय गुटबाजी और वैमनस्य का शिकार हो गया।
पाकिस्तान के साथ कई देशों ने मिलकर कथित कॉफी क्लब बना लिया, जिसने स्थायी सदस्यता केवल मौजूदा पांच देशों तक ही सीमित रखने का पक्ष लेकर सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ने ही नहीं दिया। उसके बाद तो न जाने कितनी योजनाएं पेश की जा चुकी हैं। स्थायी सीट के लिए भारत का पक्ष क्यों मजबूत है, यह बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला देश, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और संयुक्त राष्ट्र की तमाम गतिविधियों में हिस्सेदारी। अब तो उसकी परमाणु ताकत पर भी मुहर लग चुकी है। लेकिन क्या यह सब पर्याप्त है? बेशक दुनिया का कोई भी बड़ा देश आज सार्वजनिक तौर पर स्थायी सीट के लिए भारत की उम्मीदवारी का विरोध नहीं करता, लेकिन ओबामा हों या पुतिन, सरकोजी हों या कैमरून, यह बताने का कष्ट नहीं करते कि किस प्रारूप और प्रक्रिया के तहत यह संभव होगा। हमारा चिर-परिचित प्रतिद्वंद्वी चीन भी कुछ शर्तो के साथ भारत को समर्थन देने की बात कहता है, लेकिन उन शर्तो में खोट छिपी है। चीन की दलील है कि वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के बढ़ते कद को तो मानता है, लेकिन वह पूरे संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था के व्यापक सुधार का समर्थन करता है। मतलब यह कि जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक सुरक्षा परिषद का विस्तार भी नहीं होगा। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य तो यही संकेत करते हैं कि सुरक्षा परिषद के ढांचे को समसामयिक वास्तविकताओं के अनुकूल बनाकर उसमें बुनियादी तब्दीली लाना दूर की कौड़ी है। दरअसल, बदलाव की चर्चा करना एक बात है और उसको अमली जामा पहनाना दूसरी बात।
लेखिक विनय कौड़ा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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