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आज भारत को न केवल घरेलू स्तर पर, बल्कि वाह्य मामलों में भी कई तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। इस संदर्भ में यदि हम राजनीतिक चुनौतियों की बात करें तो संप्रग सरकार आज एक अलग तरह के संकट में घिरी दिख रही है। जहां संप्रग-1 सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते के लिए आगे बढ़ना था वहीं संप्रग-2 सरकार के सामने आज अपनी साख और विश्वसनीयता को बचाए रखने का मसला अहम है। भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में आम लोगों के बीच काफी गुस्सा है। यह गुस्सा अन्ना की मुहिम के बाद और भी तेज हुआ है। इसके अलावा जो मुद्दे प्राथमिकता में हैं उनमें नए आर्थिक सुधारों को स्वीकृति दिया जाना और उन पर अमल के लिए आगे बढ़ना है, लेकिन यह देखने की बात होगी कि सरकार इन पर कितना और किस तरह ध्यान देती है? मेरे विचार से अगले दो-तीन महीनों के बाद सरकार नई नीतियों की घोषणा करेगी।
आए दिन नए-नए घोटालों के खुलासे और मंत्रियों व मंत्रालयों के बीच खींचतान के कारण सरकार की किरकिरी हो रही है। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने तो सरकार की नीतियों पर ही सवाल खड़े कर दिए। अभी तक लोगों को यह विश्वास था कि व्यक्तिगत तौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक अच्छे और ईमानदार व्यक्ति हैं, लेकिन एक के बाद एक हो रहे घोटालों और उनके खुलासे के कारण अब जनता उन पर विश्वास नहीं कर पा रही। इस कारण मनमोहन सिंह की इज्जत जितनी पहले थी, आज नहीं है। इसका असर सबसे ज्यादा सरकार की छवि पर पड़ रही है। आम लोगों को अब लगता है कि सरकार अपनी दिशा खो रही है, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए और क्या नहीं? अब लोग यह मानने लगे हैं कि यह सरकार काम नहीं कर सकती। भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, उग्रवाद के अलावा महंगाई और गरीबी के कारण बदतर होती हालत से भी लोगों में निराशा है।
इन सबके बावजूद भारत का इतिहास बताता है कि जब-जब चुनौती का समय आया, भारत ने समस्याओं को हल करने के लिए न केवल उन पर तेजी से कार्रवाई की, बल्कि वह उन्हें हल करने में भी सफल रहा है। 1960 के दशक में देश में खाने-पीने की चीजों की जबर्दस्त कमी हो गई थी। तब अमेरिकी जहाजों से जो खाद्य सामग्री आती थी, हम उसी पर निर्भर थे। तब कहा जाता था कि भारत अमेरिकी जहाजों पर जीवित है, लेकिन उस समय इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने हरित क्रांति द्वारा न केवल इस संकट से निजात पाया, बल्कि खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता भी हासिल कर ली। इसी तरह 1991 में नरसिंह राव की सरकार के समय देश जब दीवालिया होने के कगार पर खड़ा था और कोई रास्ता नहीं दिख रहा था उदारीकरण की नीति अपनाकर संकट को टाला गया। स्टॉक एक्सचेंज में घोटाले के समय भी देश में और निवेशकों में निराशा का माहौल था, लेकिन बाद में हम इससे बाहर निकलने में कामयाब रहे।
आज एक बार फिर से भ्रष्टाचार के संकट ने सरकार की साख के साथ-साथ इससे निपटने की हमारी क्षमता पर सवाल खड़े किए हैं। आज भ्रष्टाचार न केवल सरकार और संस्थानों के स्तर पर, बल्कि हमारे समाज की आदत में शामिल हो चुका है। यह हमारी दिनचर्या और संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है। ऐसे में इसके खिलाफ लड़ाई कोई आसान काम नहीं। सिर्फ लोकपाल बना देने भर से यह समस्या हल हो जाएगी, यह मान लेना भी ठीक नहीं होगा, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि हम इस चुनौती से आने वाले समय में निजात पाने में कामयाब रहेंगे। इसके लिए निश्चित रूप से जनजागरूकता के साथ ही ईमानदार राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। चूंकि इस दिशा में अब प्रयास आरंभ हो चुके हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि हम मंजिल पा ही लेंगे। हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा।
इसके अलावा आज एक और प्रमुख चुनौती नक्सलवाद, माओवाद की भी है। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि नक्सली हमारे देश के ही असंतुष्ट लोग हैं। इस समस्या से निपटने के लिए हमारे पास अभी तक सही रणनीति का अभाव है। हमें नक्सलियों और आदिवासियों में फर्क समझना होगा। आज आदिवासी लोग नक्सलियों और पुलिस के बीच पिस रहे हैं। एक तरफ पुलिस अपने अभियानों के लिए इन्हें इस्तेमाल करती है और परेशान करती है तो दूसरी ओर नक्सली इनका शोषण करते हैं। पश्चिम बंगाल में नक्सलियों ने खुद को पुलिस में भर्ती करने की बात कही है। झारखंड में भी नक्सलियों ने पंचायत चुनावों का विरोध किया था और इसके लिए तर्क दिया था कि उन्हें भारत के लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है, लेकिन जब चुनाव हुए तो आदिवासियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इससे यही साबित होता है कि लोग विकास चाहते हैं, तरक्की चाहते हैं और वह भी दूसरों की तरह आगे बढ़ना चाहते हैं। इसके लिए अवसर और संसाधन मुहैया कराना सरकार का काम है। बेहतर होगा कि इन इलाकों में स्कूल-कॉलेज खोले जाएं और इनका बेहतर संचालन सुनिश्चित किया जाए। यह सब खानापूरी के लिए नहीं हो। यदि ऐसा होता है तो इस समस्या का समाधान हो सकता है और मुझे विश्वास है कि ऐसा किया जाना संभव है।
भारत के सामने एक बड़ी चुनौती मीडिया की भूमिका, उसकी विश्वसनीयता और निष्पक्षता को लेकर भी है। अब मीडिया की भूमिका बढ़ रही है तो उसका निष्पक्ष होना भी आवश्यक है। अन्ना के आंदोलन और उनके उपवास के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे मीडिया अन्ना के समर्थन में हो। मेरे विचार में उस समय मीडिया ने संतुलित होकर काम नहीं किया। इस तरह की प्रवृत्ति निष्पक्ष मीडिया के लिए ठीक नहीं मानी जा सकती। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारत की चमकदार और उभरते देश की छवि आज कमजोर हुई है। यह कमजोरी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक, तीनों ही स्तरों पर देखी जा सकती है। विदेशी निवेशकों द्वारा किया जाने वाला निवेश भी अब कम हो रहा है तो इसकी एक बड़ी वजह अपने निवेश के भविष्य के प्रति विदेशियों का आश्वस्त नहीं हो पाना है। इसके लिए सरकार के अलावा देश व समाज के दूसरे तमाम संस्थानों को भी विचार करना चाहिए और अद्भुत-अतुल्य भारत के निर्माण हेतु अपना योगदान देना चाहिए।
लेखक मार्क टुली भारत में बीबीसी के ब्यूरो प्रमुख रहे हैं
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