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लोकपाल की लंबित लड़ाई

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarआरक्षण के प्रस्ताव को लोकपाल विधेयक जानबूझकर लटकाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं कुलदीप नैयर


सिविल सोसाइटी भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सरकार की ओर से बनाई जा रही मशीनरी लोकपाल पर तीखी बहस में जुटी है। मौजूदा समय आरक्षण एक डायनामाइट साबित हो सकता है। इसलिए लोकपाल में आरक्षण के प्रस्ताव का सावधानी से विश्लेषण होना चाहिए। आजादी के बाद पहला मौका है जब शीर्ष पदों के लिए आरक्षण का सिद्धांत लागू किया गया है। कल को हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए भी ऐसी मांग उठ सकती है। यह त्रुटिपूर्ण सिद्धांत यही कहता है कि शीर्ष पदों के लिए प्रतिभाएं नहीं ढूंढी जाएंगी, बल्कि ऐसे लोग लाए जाएंगे जो आरक्षण की पात्रता पूरी करते हों। इस नजरिये ने देश को शिक्षा और सरकारी सेवा के स्तर को कम करने के लिए बाध्य किया है, लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता। यहां तक कि आरक्षण बनाए रखने की समयसीमा भी तय नहीं की जा सकती, क्योंकि इस बारे में कोई भी सुझाव इससे जुड़े समूह के बीच हंगामा खड़ा कर देता है। सभी राजनीतिक पार्टियां आरक्षण की गुलाम हैं, क्योंकि वे इसे अपनी चुनावी संभावनाओं से जोड़ देती हैं। कांग्रेस ने भी उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों के चुनावों पर अपनी नजरें टिकी रखी हैं। आरक्षण दलितों को प्रभावित कर सकता है, जिन्होंने कांग्रेस से अपना मुंह फेर लिया है।


लोकपाल में बिल पेश करते समय काफी कड़वी बातें हो गई। अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों ने मुसलमानों के लिए कोटे की मांग की। सरकार झुक गई, क्योंकि उसे भी मुस्लिम मतदाताओं को खुश करना है। ओबीसी कोटे के 27 प्रतिशत आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत मुसलमानों को दिया गया है। भाजपा उसके तीव्र विरोध में उठ खड़ी हुई और इसने गृह युद्ध की धमकी दी है, दूसरी ओर मुस्लिम नेताओं ने 27 प्रतिशत के आरक्षण के प्रावधान से अलग दस प्रतिशत आरक्षण की मांग की है। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि आरक्षण को 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है। आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस ने फैसला कर भी लिया कि शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में 4.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा, लेकिन यह फैसला लागू होना बाकी है और यह 27 प्रतिशत आरक्षण के कोटे में से ही होगा। शायद यह कोटा गैर कानूनी है, क्योंकि संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण के लिए मना करता है।


मुस्लिम और ईसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। संविधान विशेषज्ञों ने भी धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के कदम को असंवैधानिक बताया है, लेकिन संकीर्णता का माहौल हर समुदाय को प्रभावित कर रहा है और सिविल सोसाइटी के लिए एक दिक्कत की स्थिति पैदा हो रही है। कांग्रेस पंथनिरपेक्षता के मूल्यों को इससे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा सकती थी जितना शीर्ष पदों में आरक्षण लाकर उसने किया है।


यह संसद में लोकपाल बिल को पास नहीं होने देने के लिए उठाया गया एक कदम हो सकता है, क्योंकि भाजपा मुसलमानों के लिए कोटे पर कभी राजी नहीं होगी। भाजपा वामदलों [जो सिद्धांतत: आरक्षण के खिलाफ हैं] के साथ मिलकर आगामी सत्र में राज्यसभा में बिल को गिरा सकती है। राज्यसभा में कांग्रेस और उसके सहयोगी दल बहुमत नहीं जुटा सकते हैं। फिर भी भाजपा को लोकपाल बिल पारित न हो पाने को दोष उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।


मैं यह समझने में असमर्थ हूं कि प्रधानमंत्री के निवास पर हुई सर्वदलीय बैठक में बिल पर लगभग आम सहमति हो जाने पर कांग्रेस ने आखिरी क्षणों में अपने रुख से पीछे हटने का फैसला क्यों किया? यह गतिरोध कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के कथित विरोध के कारण पैदा हुआ होगा, जिन्होंने कहा कि वह अन्ना हजारे से दो-दो हाथ के लिए तैयार हैं। पिछली बार उनके पुत्र राहुल गांधी ने यही किया था और संसद की स्थायी समिति की ओर से अंतिम रूप दिए गए बिल को कमजोर बना दिया था। स्थायी समिति के चेयरमैन अभिषेक मनु सिंघवी ने यह स्वीकार किया है कि बिल को अंतिम रूप देने के समय उन्होंने हाईकमान से मुलाकात की थी।


सरकार ने शुरू से ही लोकपाल बिल की मांग को गंभीरता से नहीं लिया और न ही वह यह समझ पाई कि सिविल सोसाइटी कितनी नाराज है। इसके बाद भी उसने दबाव में संसद के सामने जो बिल पेश किया उसमें सीबीआइ को सरकारी नियंत्रण में ही रहने दिया गया। सीबीआइ का इस्तेमाल विभिन्न सरकारों द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए होता रहा है। सीबीआइ के सेवानिवृत्त निदेशकों ने अपने अनुभवों के बारे में लिखा है कि कैसे उन्हें कहा गया कि अमुक व्यक्ति के खिलाफ आगे बढ़ो और अमुक के खिलाफ नहीं।


लोकपाल मशीनरी के चयन के लिए बनी शीर्ष समिति भी प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस को लेकर बनाई गई है। चीफ जस्टिस उस चयन समिति में कैसे रह सकता है जिसे जरूरत पड़ने इसकी नियुक्ति में की गई गलती या पूर्वाग्रह के खिलाफ अपील सुननी पड़ेगी? हालांकि यह अच्छी बात है कि सरकार और अन्ना हजारे, दोनों इस पर राजी हैं कि न्यायपालिका को लोकपाल बिल के दायरे से बाहर रखा जाए, लेकिन जुडिशियल कमीशन को ज्यादा ताकत देने की जरूरत है। इसमें कुछ सामाजिक क्षेत्रों के प्रसिद्ध लोगों को सदस्य बनाने की जरूरत है।


ऐसा लगता है कि बिल को जल्दबाजी में तैयार किया गया है और शायद इस मंशा से कि यह संसद या कोर्ट में गिर जाए। सच है कि सरकार ने अन्ना हजारे के कई मुद्दों को इसमें जगह दी है, लेकिन इसके प्रावधानों का विश्लेषण करने पर साफ हो जाएगा कि सरकार ने अगर एक हाथ से दिया तो दूसरे हाथ से उसे छीन लिया है। फिर भी मेरी कामना थी कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा मिल जाता, लेकिन भाजपा ने बिना सोचे-विचारे ऐसा नहीं होने दिया। मैं लोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे के दबाव डालने की बात समझ सकता हूं, लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में प्रचार करने का उनका इरादा संदेहपूर्ण है। इससे पूरे आंदोलन के खिलाफ लग रहे इस आरोप को बल मिलता है कि यह भाजपा और कुछ दूसरी पार्टियों की मदद के लिए है।


देश राजनीतिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। सरकार या सिविल सोसाइटी का एक भी गलत कदम राष्ट्र को नुकसान पहुंचा सकता है और अनजाने ही संकीर्ण और उग्र तत्वों को मदद दे सकता है।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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