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प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक जॉन राल्स के अनुसार किसी समाज को तभी समतावादी माना जा सकता है, जबकि वह समानता और एकता के सिद्धांतों पर आधारित हो और वहां मानवाधिकारों का सम्मान होता हो। सामाजिक न्याय की धारणा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आई। आज संपूर्ण विश्व के नागरिक अपने सामाजिक समानता की प्राप्ति के लिए एकजुट हो रहे हैं। जब तक सामाजिक समानता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता स्पष्ट नहीं होगी मानवाधिकारों की अवधारणा मूर्त रूप ग्रहण नहीं करेगी। मानवाधिकारों को सामाजिक गतिशीलता का आधार माना जाता है। मानव जाति का सम्मान और उसकी रक्षा से ही मानव समाज का अस्तित्व बना रह सकता है। अत: सामाजिक न्याय कायम किए बगैर हम मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं कर सकते। मानवाधिकारों की झलक 1215 में इंग्लैंड के प्रसिद्ध आज्ञापत्र मैग्नाकार्टा, अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष और फ्रांसीसी क्रांति के रूप में देख सकते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक शांति की के लिए स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948 में मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र को स्वीकार किया। इसमें नागरिकों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की गई। इसके अलावा विश्वस्तर पर मानवाधिकार के लिए विश्व मानवाधिकार सम्मलेन 1993 आयोजित किया गया। फिर 1998 में वियना घोषणा में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन की अपील की गई। भारत में मानवाधिकार आयोग की स्थापना 27 दिसंबर, 1993 को की गई जिसके पहले अध्यक्ष रंगनाथन मिश्र बने।
भारत में स्वतंत्रता की मांग के साथ सामाजिक न्याय के लिए भी आंदोलन होते रहे। हमारे संविधान में नागरिकों को मिले मौलिक अधिकारों को सामाजिक न्याय का आधार कहा जा सकता है। वर्तमान में सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की सुरक्षा किसी भी सरकार के लिए एक चुनौती बन गया है। भारत में आज भी 30 फीसदी से अधिक आबादी गरीबी से त्रस्त है। लगभग 4 करोड़ लोगों के पास अपना घर नहीं है। देश की 13 लाख बस्तियां शुद्ध पेयजल के अभाव से ग्रस्त हैं। देश में तकरीबन 6 लाख व्यक्ति किसी न किसी तरह की विकलांगता का शिकार हैं। इसके अलावा 2 करोड़ से ज्यादा बच्चे बालश्रम की यातना सह रहे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के बावजूद देश की अधिकांश आबादी खासकर ग्रामीण आबादी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम है। देश में खाद्यान उपलब्धता की कमी के कारण भूख से मरने वालो की संख्या में भी वृद्धि हो रही है। विश्व भूख सूचकांक के 88 देशों की सूची में भारत का स्थान 65वां है। भारत में प्रत्येक दिन 5 हजार बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। विश्व के कुपोषित लोगों की 27 प्रतिशत आबादी भारत में है।
रोटी, कपड़ा और मकान आरंभ से भारत की तीन बुनियादी आवश्यकताएं हैं जो मानव के जीने के अधिकार की रक्षा करते हैं, परंतु गरिमामय जीवन के अधिकारों की नहीं। आज के आधुनिक समाज के लिए इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा वैश्वीकृत दुनिया के लिए आज भ्रष्टाचारमुक्त समाज का अधिकार भी महत्वपूर्ण हो गया है। भारत में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में संतोषजनक परिणाम अब तक नहीं मिल पाया है जोकि एक चुनौती है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में इसकी अनिवार्यता और भी बढ़ जाती है। हालांकि भारतीय संविधान सामाजिक न्याय के क्रियान्वयन के लिए तीनो स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका को स्पष्ट निर्देश देता है परंतु कुछ नीतिगत और व्यावहारिक कारणों से इस क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। इसके पीछे एक तरफ राजनीतिक दबाव तो दूसरी ओर संवैधानिक संस्थाओं के उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों की उदासीनता प्रमुख कारण है। आज भारत में विभिन्न समुदायों के बीच कई कारणों से असंतोष है। नक्सल आंदोलन इसी असंतोष की तीव्र प्रतिक्रिया है। न्याय व्यवस्था में देरी के चलते बहुत से लोग न्याय की पहुंच से दूर हैं। एक तरफ न्यायाधीशों की कमी है तो दूसरी ओर मुकदमों का अंबार बढ़ रहा है। सरकार ने दीवानी मामलों में ग्राम पंचायतों को न्याय करने का अधिकार दे रखा है।
ग्राम न्यायालय, लोक अदालत, उपभोक्ता अदालत आदि कई उपाय मुकदमों के बोझ को हल्का करने के लिए किए गए हैं। फिर भी कई कारणों से अदालतों में आज भी लाखों की संख्या में मुकदमे लंबित हैं। इन समस्याओं से सामाजिक असंतोष बढ़ना स्वाभाविक है। इसके लिए हमें और भी कदम उठाने होंगे ताकि लोगों के मानवाधिकार की रक्षा हो सके। आय की असमानता या कहें कि समाज में पूंजी का असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। भारत में इस असमानता को दूर करने के लिए कुशल नीति बनानी होगी और यह काम हम चंद दिनों में नहीं कर सकते। इसके लिए दीर्घकालीन योजना बनाने की जरूरत है। समाज के वंचित वर्गो के लिए रोजगार सृजन व सभी तक शिक्षा की पहुंच को सुनिश्चित करना होगा। उच्च वर्ग के उपभोग की वस्तुओं जैसे पेट्रोल आदि पर सब्सिडी देने की बजाय निम्न वर्गो के उपभोग की वस्तुओं पर ज्यादा सब्सिडी देना उपयोगी साबित हो सकता है। इसके अलावा ई-गवर्नेस द्वारा प्रणाली को पारदर्शी बनाकर सेवाओं में सुधार लाया जा सकता है। इस आम लोगों के अधिकारों की रक्षा होगी और उन्हें बेहतर सहूलियत मिल सकेगी। इस हेतु भ्रष्टाचारमुक्त और जवाबदेह प्रशासन जरूरी है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की समस्याओं को दुरुस्त कर इसका लाभ सभी को देना आज एक बड़ी चुनौती है।
सार्वजनिक सहभागिता के तहत भी हमें इस दिशा में बेहतर लाभ मिल सकता है। भविष्य में इसे और अधिक बेहतर करने के लिए हमें उपाय खोजने होंगे। इस तरह बेहतर प्रबंधन का लाभ समाज के व्यापक हिस्से तक पहुंच सकेगा। समाज के वंचित समूहों को एक वृहत्तर तंत्र से जोड़ना होगा। इसके अतिरिक्त हमें प्राकृतिक आपदाग्रस्त क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के प्रति भी बेहतर नीति बनानी होगी जिससे सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की जिम्मेदारी को पूरा किया जा सके। सामाजिक न्याय को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया से भी काफी उम्मीदें हैं। मीडिया को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी और सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को प्रमुखता से जगह देनी होगी। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू ने पिछले दिनों इस बात पर जोर दिया कि मीडिया को सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को ज्यादा प्राथमिकता और जगह देनी चाहिए। इनसे हम एक तरफ सामाजिक समानता व न्याय की स्थापना कर सकेंगे तो दूसरी ओर देश के समावेशी विकास के लक्ष्य को भी हासिल कर पाएंगे। मानवाधिकारों के रक्षा के अभाव में हम एक स्वस्थ समाज के निर्माण की कल्पना को साकार नहीं कर सकते। समाज में व्याप्त हर तरह की असमानता को दूर करना होगा और सभी के लिए समान अवसर और आर्थिक सुविधाएं मुहैया करानी होगी फिर वह चाहे किसी भी धर्म, समाज या जाति का क्यों न हो?
लेखक गौरव कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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