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साख बचाने की चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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A Surya Prakashकेंद्र सरकार को अपने कार्यकाल के शेष दो वर्षो में कड़े फैसले लेने की सलाह दे रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश


2009 में पहले से भी अधिक मजबूत जनादेश पाने वाली संप्रग सरकार ने अपनी दूसरी पारी के तीन वर्ष तो पूरे कर लिए, लेकिन भ्रष्टाचार के नित नए आरोपों, कुशासन और नीतिगत निष्कि्रयता ने उसकी उपलब्धियों के खाते को सिफर पर ला दिया। गिनाने के लिए केंद्र सरकार के पास दो-तीन अच्छे काम हो सकते हैं, लेकिन नाकामी के दाग इतने गहरे हैं कि मनमोहन सिंह सरकार देश-दुनिया में अपनी साख गंवा बैठी है। अनेक महत्वपूर्ण विधेयक संसद के अनुमोदन की बाट जोह रहे हैं, लेकिन सरकार सरकार का मनोबल टूटा हुआ है। न तो उसके पास दोनों सदनों में इतना संख्याबल है जिसके बूते वह इन विधेयकों को पारित करा सके और न ही वह साहसिक फैसले लेने की इच्छाशक्ति दिखा पा रही है। एनसीटीसी जैसे मुद्दों पर राज्य सरकारों के साथ केंद्रीय सत्ता की जिस तरह ठन गई है उससे भी संप्रग सरकार की मुश्किलें बढ़ गई हैं।


सरकार के रवैये से क्षेत्रीय दलों में असंतोष व्याप्त है। इनमें संप्रग की सहयोगी पार्टियां भी शामिल हैं। पूरे बजट सत्र में सरकार शर्मिदगी झेलती रही। इस दौरान रेलवे बजट पर सरकार को सबसे अधिक फजीहत का सामना करना पड़ा। ममता बनर्जी ने रेल किराए में बढ़ोतरी का विरोध किया और रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को रेल बजट पेश करने के बाद इस्तीफा देने को मजबूर किया। यद्यपि रेल बजट को प्रधानमंत्री समेत पूरे मंत्रिमंडल का अनुमोदन था, फिर भी मनमोहन सिंह को अपने फैसले को पलटना पड़ा। यही नहीं, ममता बनर्जी के आदेश का पालन करते हुए वह दिनेश त्रिवेदी को पद से हटाने को मजबूर हुए। रेलमंत्री द्वारा बजट भाषण में रेल किराये में की गई बढ़ोतरी को भी उन्हें वापस लेना पड़ा। पिछले दिनों जब संसद का सत्र शुरू हुआ तो कांग्रेस को अपने गठबंधन सहयोगियों की तरफ से नए सिरे से धमकियां और चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई थीं। ममता बनर्जी द्वारा उठाए गए कदमों ने संप्रग सरकार की परेशानियां बढ़ने का काम किया। पहले तो उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के लिए उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश में समाजवादी पार्टी के साथ चर्चा शुरू कर दी। इस तरह संप्रग सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को किनारे कर राष्ट्रपति के उम्मीदवार के चुनाव के मुद्दे पर पहल कर डाली। तृणमूल कांग्रेस की राह पर चलते हुए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने भी राष्ट्रपति चुनाव पर अपनी अलग तान छेड़ दी।


राष्ट्रपति का चुनाव जुलाई में होना है और इसके लिए राजनीतिक हलचल चरम पर हैं। इस हलचल में कांग्रेस को बेचैनी साफ नजर आ रही है। जैसे इतना ही काफी नहीं था, ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार को पश्चिम बंगाल के लिए विशेष पैकेज देने के लिए 15 दिन की चेतावनी भी दे डाली। उन्होंने धमकी दी कि ऐसा न होने पर वह सरकार की फजीहत करने के लिए कोई भी कदम उठा सकती है। हाल के दिनों में शरद पवार भी सरकार की कुछ नीतियों के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं। इस माहौल में यह स्वाभाविक है कि सरकार को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, जिनमें विधेयकों का पारित होना भी शामिल है। इस समय संसद में करीब 40 विधेयक लंबित हैं तथा सरकार करीब दो दर्जन नए विधेयकों को पेश करने जा रही है। लंबित बिलों में अनेक अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, जिनसे न केवल आर्थिक मोर्चे पर राहत की उम्मीद की जा रही है, बल्कि भ्रष्टाचार पर अंकुश की अपेक्षा भी की जा रही है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी को कुछ महत्वपूर्ण बिल पारित कराने में अपने प्रबंधकीय कौशल का प्रदर्शन करना होगा। इन बिलों में शामिल हैं-पेंशन निधि नियामक और विकास प्राधिकरण बिल, 2011; बीमा (संशोधन) बिल, 2011 और बैंकिंग कानून (संशोधन) बिल 2011। पेंशन बिल के समर्थन पर वह भाजपा से पहले ही आश्वासन ले चुके हैं। लोकसभा में सत्ताधारी गठबंधन की शक्ति को देखते हुए और इससे भी अधिक इसके कुछ घटक दलों के अस्थिर रवैये को देखते हुए संप्रग को एक अलग राह पर कदम बढ़ाने होंगे। खासकर संसद में अपनी मुश्किलें कम करने के लिए उसे विपक्ष के साथ तालमेल की पहल करनी होगी।


राज्यसभा में सत्ताधारी गठबंधन की हालत तो और अधिक खराब है। 245 सदस्यों वाले सदन में कांग्रेस के 70 सदस्य हैं और संप्रग के पास बहुमत के लिए 12 सांसदों की कमी है। वह राज्यसभा से तभी विधेयकों को पारित करा सकती है जब विपक्षी दलों का सहयोग उसे मिले। सपा और तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनावों को लेकर जैसी सक्रियता का प्रदर्शन किया है उसे देखते हुए इस तरह की बातें भी होने लगी हैं कि कांग्रेस राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए भाजपा के साथ संभावित तालमेल पर विचार कर सकती है। पूरे परिदृश्य में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले दिनों वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने आर्थिक हालात को लेकर जो कुछ कहा उससे केंद्र सरकार के पास कोई सफाई नहीं रह गई है। अर्थव्यवस्था पर गहराते संकट के संकेत कई अन्य तरह से सामने आ चुके हैं। रुपये के मूल्य में जारी गिरावट ऐसा ही एक संकेत है।


वित्तमंत्री यह कह रहे हैं कि रुपये में गिरावट चिंता का विषय है और सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी है, लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा जिससे यह भरोसा हो कि सरकार आवश्यक कदम उठा रही है। केंद्र सरकार लाख सफाई दे, लेकिन इस धारणा को मिटाया नहीं जा सकता कि नीतियों के मामले में संप्रग सरकार लाचार हो गई है। आलोचकों को गलत साबित करने के लिए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपनी पूरी शक्ति लगाकर पेंशन, बीमा और बैंकिंग से संबंधित लंबित विधेयकों को जल्द से जल्द पारित कराने की कोशिश करनी होगी। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार को डीजल की कीमतों को आंशिक रूप से नियंत्रण मुक्त करने, सब्सिडी नीतियों की समीक्षा, रिटेल सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेश निवेश जैसे कुछ विवादास्पद मुद्दों पर भी फैसले लेने होंगे, जो सहयोगी दलों के विरोध के कारण लटके हुए हैं। जो भी हो, यह साफ है कि संप्रग सरकार अगले लोकसभा चुनावों तक लड़खड़ाती ही रहेगी। पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से जैसे संकेत मिले हैं और शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे सहयोगी दलों ने जैसा रुख प्रदर्शित किया है उसके आधार पर तो यह भी लगता है कि जनादेश की बारी मई 2014 के पहले ही आ सकती है।


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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