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निरर्थक संसदीय कर्मकांड

जागरण मेहमान कोना
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Narayan Dixzitराष्ट्रपति अथवा राज्यपालों के अभिभाषण की परंपरा में बदलाव की जरूरत जता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय संसदीय जनतंत्र इंद्रधनुष जैसा बहुरंगी और बहुआयामी है। केंद्र में आमजनों से निर्वाचित 543 सदस्यीय लोकसभा है। राज्यों के विधायकों से निर्वाचित 233 प्रतिनिधियों व राष्ट्रपति द्वारा नामित 12 सदस्यों वाली 245 सदस्यीय राज्यसभा है। विशाल भारतीय संघ में आम जनता से निर्वाचित 4120 सदस्यों वाली विधानसभाएं हैं और 6 राज्यों में विधान परिषदें हैं। हरेक राज्य में राज्यपाल हैं, देश के सर्वोच्च संविधान प्रमुख राष्ट्रपति हैं। विधानमंडलों के अधिकार संविधान ने दिए हैं। राज्य सरकारें उनके प्रति जवाबदेह हैं। विधानमंडलों के पास विधायन के साथ ही बजट पारित करने के भी अधिकार हैं। वे अपने राज्य क्षेत्र के भाग्यविधाता हैं। बावजूद इसके विधानमंडलों की कार्यवाही में आए दिन के हुल्लड़, शोर शराबा और स्थगन हैं। देश की सबसे बड़ी विधानसभा उत्तर प्रदेश में राज्यपाल के अभिभाषण के समय सदन की गरिमा तार-तार हो गई। जिस सत्तापक्ष ने इस कृत्य की निंदा की वही अपनी विपक्षी पारी में ऐसे ही कृत्यों के लिए कठघरे में था। उत्तराखंड विधानसभा में भी बवाल हुआ। इसके पहले बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि अनेक सदनों में ऐसे ही अप्रिय दृश्य देखे गए हैं। संसदीय परिपाटी का चीरहरण पुराना है। मूलभूत प्रश्न यह है कि क्या विधानमंडलों की गरिमा और कार्यक्षमता की बहाली का कोई भी विकल्प शेष नहीं है? संसद भारत का मन दर्पण है। संसद की तर्ज पर ही यहां राज्यों में विधानमंडल बने।


संसद की कार्यसंचालन नियमावली की ही तर्ज पर राज्य विधानमंडलों की प्रक्रिया नियमावली है। संसद सर्वोच्च प्रतिनिधि निकाय है। कानून बनाने व संशोधित करने के साथ ही उसके पास संविधान संशोधन के भी अधिकार हैं। भारतीय जनगणमन की सर्वोच्च आशा है संसद, लेकिन संसद आदर्श जनतंत्री व्यवस्था का कोई माडल नहीं बना पाई। राज्य विधानमंडल उससे प्रेरित नहीं होते। तर्क, तथ्य और प्रेरणा की कंगाली ही शोर शराबा का विकल्प चुनती है। पं. नेहरू, डॉ. लोहिया, अटल बिहारी बाजपेयी, मधु लिमये, जार्ज फर्नाडीज, प्रकाश वीर शास्त्री और सोमनाथ चटर्जी जैसे प्रेरक सांसद अनुकरणीय नहीं होते। हुल्लड़ खबर बनता है, टीवी पर चलता है। शोर मचाऊ हीरो बनते हैं। प्रचार शोर मचाने की प्रेरणा भी देता है। आमजन ऐसे प्रतिनिधियों से आहत हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय जनतंत्र है। यह दुनिया के संसदीय देशों वाले विश्व अंतरसंसदीय संघ (मुख्यालय जिनेवा) का तथा राष्ट्रमंडल संसदीय संघ (मुख्यालय लंदन) का सदस्य है। भारत में अपने देश की विधायी संस्थाओं के अध्यक्षों/ सभापतियों/ नेताओं के सम्मेलन भी होते हैं।


सदन की सुसंगत कार्यवाही ही ऐसी शीर्ष बैठकों का मुख्य विषय रहता है। सदनों का अनुशासन ही इस बैठक का मुख्य एजेंडा था। केआर नारायण, तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव, लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल, नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी बाजपेयी रवि राय के अतिरिक्त अनेक विधानसभाध्यक्षों ने सदनों की कार्यवाही को सुंदर बनाने के सुझाव दिए थे। इसके बाद भी ढेर सारी बैठकें हुईं, वही निर्णय दोहराए गए, लेकिन मर्ज बढ़ता गया, दवाएं बेअसर रहीं। राज्यपालों के अभिभाषण प्राय: हुड़दंग का शिकार होते हैं। संविधान के अनुसार हरेक चुनाव के बाद और हर नए वर्ष राष्ट्रपति लोकसभा व राज्यसभा के सदस्यों (अनुच्छेद 87) व राज्यपाल विधानमंडल (अनु. 176) में अभिभाषण करते हैं। राष्ट्रपति/राज्यपाल का अभिभाषण सरकारें तैयार करती हैं। यह सरकार का नीति दस्तावेज होता है, पर इसमें संसद व विधानमंडल के प्रस्तावित विधायी कार्यो का भी विवरण होता है। भाषण की जिम्मेदारी सरकार पर होती है इसीलिए अभिभाषणों पर बहस होती है। धन्यवाद प्रस्ताव पर सरकार की पराजय सदन का अविश्वास मानी जाती है। अभिभाषण की गरिमा संवैधानिक निष्ठा है। लोकसभाध्यक्ष एमए आयंगर ने पीठासीन अधिकारियों के दार्जिलिंग सम्मेलन (1955) में कहा था कि राज्यपाल राज्य का संविधान प्रमुख है। उसकेभाषण के अवसर पर गरिमा जरूरी है। तबसे तमाम समितियां बनीं, तमाम संकल्प लिए गए। राष्ट्रपति के अभिभाषण के समय कुछेक सदस्यों के अभद्र आचरण पर लोकसभा द्वारा 1963 में गठित संसदीय समिति ने भी यही स्थापनाएं दोहराई। 1971 में फिर ऐसी ही समिति बनी। सदस्यों के ऐसे आचरण को गलत बताया गया, लेकिन सुधार तो भी नहीं हुआ। अभिभाषण दरअसल ब्रिटिश परंपरा है।


ब्रिटेन में राजा अभिभाषण करता है। भारत में राष्ट्रपति या राज्यपाल। भारतीय संविधान (1950) में वर्तमान पद्धति के प्रावधान हुए। सम्प्रति राष्ट्रपति और राज्यपालों के अभिभाषण सत्तादल के पर्चे बन गए हैं। 1969 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने अभिभाषण के दो पैरा नहीं पढ़े। लोकसभा में बहस हुई। तत्कालीन गृहमंत्री ने ठीक सफाई दी-राज्याध्यक्ष का अभिभाषण नीति संबंधी घोषणा है। अभिभाषण से अपेक्षा की जाती है कि भविष्य और वर्तमान को ध्यान में रखा गया हो, लेकिन इन दो पैरा में इतिहास की व्याख्या की कोशिश की गई थी। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने इसी सप्ताह अभिभाषण में कहा कि राजनीतिक अधोपतन के चलते प्रदेश को शर्मसार करने वाली अनेक घटनाएं घटीं। विगत 5 वर्षो में जनता राज्य सरकार के असहयोगात्मक पूर्ण रवैये से स्तब्ध थी। जनता अपने दुख दर्द ऊपर तक नहीं पहुंचा सकती थी। दुखद स्थिति यह है कि इन्हीं महामहिम ने पीछे बरस तत्कालीन बसपा सरकार द्वारा तैयार भाषण में राज्य सरकार की कार्यप्रणाली की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। राष्ट्रपति/राज्यपाल के अभिभाषण सरकारी टेपरिकार्ड हो गए हैं। इस परंपरा ने संविधान प्रमुखों की प्रतिष्ठा गिराई है।


राष्ट्रपति/राज्यपाल की अभिभाषण परंपरा से भारतीय संसदीय प्रणाली को कोई लाभ नहीं हुआ। राष्ट्रपति/राज्यपाल से सदन सत्र का औपचारिक उद्घाटन ही करवाना चाहिए। अभिभाषण उपनिवेशवादी कर्मकांड है। अच्छा हो कि प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री ही प्रारंभिक भाषण करें। उनके दलगत विचार राष्ट्रपति और राज्यपाल के मुख से शोभा नहीं पाते। संसदीय उमस और उबाल का दूसरा पहलू भी है। विधानमंडलों की बैठकें घटी हैं। अरबों के बजट बिना बहस ही पारित हो रहे हैं। उबाल स्वाभाविक ही है। सभाध्यक्षों के पास व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियां हैं। सभा स्वयं सदस्यों के कदाचार और अवमान के लिए चेतावनी, निंदा, सभा से बाहर जाने के आदेश, निलंबन और कारावास के साथ-साथ निष्कासन की शक्ति से भी लैस है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक फैसले (1966) में दो सदस्यों के निष्कासन को वैध ठहराया था। फिर सभ्य आचरण और शोर शराबा सदन के विशेषाधिकार का भी अवमान हैं। आखिरकार सारी संसदीय संस्थाएं लाचार क्यों हैं?


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं


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