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उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने की बात भले ही अपने राजनीतिक हित-लाभ के लिए की हो लेकिन इससे देश भर में चल रही नए राज्यों की मांग पर बहस तेज हो गई है। दुर्भाग्य से साठ के दशक के शुरू में जितने राज्य बने, वे भाषायी और क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल पर बने। अभी देश के विभिन्न हिस्सों में डेढ़ दर्जन राज्य बनाने की मांगें हैं। यही कारण है कि जब-तब राज्यों की मांग कभी क्षेत्रीय विकास के असंतुलन, तो कभी राजनीतिक दलों के हित-लाभ के लिए उठती रही। उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां राज्यों की जो मांगें उठती रही हैं, वे अकारण नहीं हैं। फजल अली आयोग के प्रमुख सदस्य एम. पणिक्कर ने उत्तर प्रदेश के तीन हिस्सों में विभाजन की वकालत की थी।
आयोग में उनके सुझाव को महत्व नहीं दिया गया तो उन्होंने इसकी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। बाद में जब उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन तेज हुआ, तो इस आंदोलन में शामिल लोगों ने न केवल उत्तराखंड राज्य की बात की, बल्कि रुहेलखंड, बुंदेलखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश को भी अलग राज्य देने की मांग उठाई। उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने की जिस बात को आज मायावती उठा रही हैं, वह नई नहीं है। राजनीतिक लोगों के लिए यह दुविधा बढ़ाने वाली बात हो सकती है। सब जानते हैं कि मायावती का राज्य बंटवारे के प्रति कोई पवित्र इरादा नहीं है। उन्होंने एक शिगूफा छोड़ा है। अब जो भी हो, राज्यों के पुनर्गठन की मांग को यहां से आगे बढ़ना चाहिए। यह अब क्षेत्रीय अस्मिता और भाषायी सवाल नहीं रह गया है, बल्कि विकास और छोटी प्रशासनिक इकाइयों की जरूरत का भी सवाल है।
उत्तर प्रदेश के साथ इस तरह की कोई अस्मिता नहीं जुड़ी है जिसे लेकर राज्य की मांग को केंद्रित किया जाए। इसका सबसे बड़ा कारण है यहां की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विभिन्नता। इसे कभी ऐसे नारों से बरगलाया भी नहीं जा सकता। उतर प्रदेश तो आजादी के बाद वर्ष 1950 में अस्तित्व में आया। पहले इसे यूनाइटेड प्रोवींस आगरा एंड अवध यानी संयुक्त प्रांत के नाम से जाना जाता था। यह पहाड़ी, पूर्वी, रोहिलो, बुंदेखंडियों, अवध, ब्रज आदि नामों से अलग-अलग पहचान भी रखता रहा है। इसलिए उत्तर प्रदेश के बंटवारे का एक ही महत्वपूर्ण कारण है- यहां का असंतुलित विकास। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को अब अपने संसाधनों पर योजनाओं को चलाने की छूट मिलनी चाहिए। सरकारों के पास असल में कोई ऐसा ब्ल्यूप्रिंट कभी रहा नहीं कि वे उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के लिए वहां की जरूरत के मुताबिक योजनाएं बना सकें। यही वजह भी है कि जो भी क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा, उसे लगा कि इस प्रदेश में रहकर उसकी उपेक्षा हो रही है इसलिए उसे अलग राज्य दिया जाए। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को राज्य बनाने की मांग साठ के दशक में शुरू हो गई थी। इसके लिए विभिन्न संगठनों के माध्यम से छिटपुट आंदोलन भी हुए। देश के कृषि उत्पाद में अग्रणी इस क्षेत्र के लिए कभी ऐसी योजनाएं नहीं बनीं जो यहां की बेहतरी के लिए जरूरी हों।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों की दिक्कतें अपनी तरह की हैं। इन्हें कभी विकास के लिए इनकी जरूरतों के मुताबिक योजनाएं नहीं मिलीं। इसलिए इन राज्यों की मांग को विकास की जरूरतों और संसाधनों को बचाने की दृष्टि से भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश तो हमेशा राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश में ताकतवर रहा। वहां से प्रदेश और देश की राजनीति में कई प्रभावशाली नेता रहे। जब भी उत्तर प्रदेश को प्रशासनिक दृष्टि से छोटा करने की बात आती है तो तमाम राजनीतिक दल प्रदेश के गौरव की बात करने लगते हैं। असल में उतर प्रदेश ने भले ही देश को चार प्रधानमंत्री दिए हों, लेकिन यहां के लोगों का जनजीवन नहीं बदला है। क्या इस तरह की विषमताओं के बावजूद हमें राज्यों की मांगों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अब इसे मात्र राजनीतिक शिगूफा बताकर ज्यादा दिन नहीं टाला जा सकता है।
लेखक चारु तिवारी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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