Menu
blogid : 5736 postid : 1608

आरक्षण की नाव पर सवारी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

लगता है उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती आरक्षण की नाव पर सवार होकर चुनाव वैतरणी पार करना चाहती हैं। विधानसभा नजदीक आते देख पहले उन्होंने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की मांग उठाई और अब एक बार फिर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर निजी क्षेत्रों व न्यायपालिका में एससी-एसटी के लिए कोटा निर्धारित करने की मांग रखकर एक बार आरक्षण के मुद्दे को चिंगारी दिखा दी है। इससे पहले वह गरीब सवर्णो को भी आरक्षण दिलाने के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख चुकी हैं। हालांकि यह आरक्षण की यह चिंगारी सुलग कर ज्वाला बनने वाली नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले उठाई गई यह मांग एक शिगूफा भर है। इससे न तो मुस्लिमों के हित सधने जा रहे और न गरीब-गुरबों के? इस मुद्दे की हवा केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह बयान देकर निकाल दी है कि संप्रग सरकार सरकारी नौकरियों और शिक्षा में मुस्लिमों को आरक्षण देने पर गंभीरता से विचार कर रही है। इस दिशा में सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वह पहले ही ठोस कदम उठा चुकी है।


आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय किसी भी राजनीतिक दल को यह जरूरत है कि आरक्षण का एक समय सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर रहा है, लेकिन सभी वर्गो में शिक्षा हासिल करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से अब संभव नहीं है। इस सिलसिले में हम गुर्जर और जाट आंदोलनों का भी हश्र देख चुके हैं। लिहाजा, राजनीतिक दल अब सामाजिक न्याय के सवालों के हल आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाए रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालें तो बेहतर होगा। अगर वोट की रजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उन जातियों का समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं हो पाया है। केंद्र सरकार हल्ला न हो इसलिए जिस कछुआ चाल से मुस्लिमों को आरक्षण देने की तैयारी में जुटी है, यदि उस पर अमल होता है तो यह झुनझुना गरीब अल्पसंख्यकों के लिए छलावा ही साबित होगा।


केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के प्रगतिशील मंत्री सलमान खुर्शीद को जरूरत है कि मुसलमानों को धार्मिक जड़ता और भाषाई शिक्षा से उबारने के लिए पहले एक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाएं। क्योंकि कुछ मुस्लिमों ने शिक्षा का अधिकार विधेयक से आशंकित होकर शंका जताई है कि यह कानून मुसलमानों की भाषाई शिक्षा प्रणाली पर कुठाराघात है। वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों या गरीब सवर्ण, उनकी बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक या जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उन्हें हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता, आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे, जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषाई अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालत करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी बुनियादी मायने नहीं हैं और न ही इसे लागू करने से वास्तविक हकदारों के हक सधने वाले हैं। यह रिपोर्ट लाखों करोड़ों लोगों की भावनाओं के साथ एक तरह का खिलवाड़ है, क्योंकि मिश्र आयोग का गठन जांच आयोग कानून के तहत नहीं किया गया था। यह सही है कि हमारे देश में आज भी धर्म और जाति आधारित भेदभाव बदस्तूर हैं। जबकि संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी है।


संविधान के तीसरे अनुच्छेद अनुसूचित जाति आदेश 1950, जिसे प्रेसिडेंशियल ऑर्डर के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट इसी भेद को दूर करने की पैरवी करती है। वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केंद्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है, परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केंद्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर सलमान खुर्शीद भी मानते हैं कि कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक हैं।


मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को भी अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया गया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी सर्वथा वंचित हैं। इस नाते अल्पसंख्यक श्रेणी का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुश्किल है। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर जैन धर्मावलंबियों के बच्चों को छात्रवृत्ति भी नहीं दी जाती। वैसे भी मिश्र आयोग का गठन जांच आयोग के तहत नहीं हुआ है। दरअसल, इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाए जाएं। जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ पिछड़ा शब्द की शर्त का उल्लेख किए बिना इन्हें पिछड़ा माना जाकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो।


शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है, क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मंडल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण का वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक व हिंसक हुए थे। हाल ही में राजस्थान में आरक्षण के मुद्दे पर ही गुर्जरों और मीणाओं के हित परस्पर टकराए तो राजस्थान समेत कुछ समय के लिए समूचे देश में अस्थिरता का वातावरण निर्मित हो सकता है और ऐसे में सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ना तय है। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आईने से देखना बारूद को तीली दिखाना है। अलबत्ता अनुसूचित जाति की जो पहचान हिंदू धर्म की सीमा में रेखांकित है, उसे विलोपित करते हुए जिस धर्म में जो भी दलित हैं, उन्हें अनुसूचित जाति के लाभ स्वाभाविक रूप में मिलना चाहिए। लिहाजा, मायावती को चाहिए कि वह आरक्षण के मामले में झूठी दिलाशा देने से बचें, क्योंकि राजनैतिक मकसद का कोई हल इस मुद्दे से हासिल होने वाला नहीं है।


लेखिका पारुल भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh