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तुलसी वाकई मर गया..

जागरण मेहमान कोना
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जिस उत्तर प्रदेश में डेढ़ महीने पहले हजारों करोड़ रुपये के खर्चे से बने आलीशान ट्रैक पर फॉर्मूला-वन की गाडि़यां सरपट दौड़ रही थीं, उसी राज्य में तंगहाली के बीच एक गरीब की जिंदगी न्याय की बाट जोहते हुए थम गई। बाराबंकी का तुलसीराम उसी वक्त दुनिया से विदा लेने पर मजबूर हुआ, जब बकौल कांग्रेस-देश की उम्मीद-राहुल गांधी लखनऊ में मनरेगा के फायदे गिना रहे थे। तुलसी नेताओं, अफसरों और राशन माफिया के देशव्यापी और स्वाभाविक गठजोड़ का शिकार उसी वक्त हुआ, जब अन्ना हजारे देश की राजधानी में भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रहे थे। तुलसी पहले भी गुमनाम था, मौत के बाद भी। लेकिन चौंकाने वाला है, तो उसका किस्सा। दरअसल, सरकारी फाइलों में तुलसीराम को मृत घोषित कर दिया गया और इसके नतीजे में उसका बीपीएल कार्ड अमान्य हो गया। इसके बाद बंद हो गया उसके जीते रहने का एकमात्र सहारा, सरकारी राशन से मिलने वाला वो सस्ता अनाज, जिससे तुलसी किसी तरह पेट भर पाता था। कहते हैं कि तुलसीराम ने अफसरों के आगे हाथ-पैर जोड़े, गुहार लगाई, लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी। अब सरकारी दस्तावेज दुरुस्त हैं, क्योंकि तुलसी वाकई मर चुका है।


अन्ना के सपनों का सिटिजन चार्टर कहता है कि हर सरकारी काम के पूरे होने की तय समय सीमा हो। बहस जारी है। पता नहीं ऐसा कोई चार्टर आता भी है या नहीं। तुलसी अब यकीनन वापस नहीं आएगा। वैसे भी वह तो कोई सरकारी काम कराना नहीं चाह रहा था, वह तो खुद के खिलाफ की गई सरकारी मनमानी को संशोधित कराना भर चाहता था। जो तुलसी जीते-जी भूख या फिर चिकित्सा विज्ञान के लफ्जों में भूख की वजह से पैदा बीमारी का शिकार हो गया, उसकी मौत के बाद उसी सरकारी राशन वाले ने श्राद्ध के लिए कुछ अनाज जरूर भिजवाए। संवेदनशील होने के इस निर्जीव दिखावे का पता नहीं कौन कायल हुआ। अलबत्ता, बाराबंकी के जिम्मेदार अफसरान सिर्फ इस बिना पर भूख से मौत की बात से मुकर गए कि अगर ऐसी बात थी, तो परिवार ने शव के पोस्टमार्टम से इनकार क्यों कर दिया? अपनी अफसरशाही की पांच सितारा सोच और भावनाओं पर भारी कानून की गहरी लकीर भला कहां इस बात की इजाजत देती है, जो वे सोच पाएं कि मुफलिसी में जीने वाला एक गंवई परिवार ऐसे मौकों पर किस कदर भावनाओं के उबाल में होता है। उसके लिए किसी अपने की मृत देह की चीरफाड़ के मायने कितने गहरे और आघात करने वाले होते हैं।


कथित घाटे में फंस जाने के नाम पर देश के अरबपति उद्योगपतियों को सरकार तरह-तरह की सुविधाएं और राहत पैकेज देती है। देश का बजट बनता है, तो उनकी राय लेने के लिए बड़ी-बड़ी मीटिंग्स होती है। इसमें बहुत कुछ अजीब भी नहीं। जब से दुनिया में पूंजी की महानता स्थापित हुई है, प्रचलन यही हो चला है। लेकिन जिन बड़े देशों की कॉपी कर हम फूले नहीं समाते, वहां इन पूंजी प्रधानों के लिए सामाजिक दायित्व भी तय होते हैं और अकसर वे खुद भी इसके लिए पहल करते हैं। जबकि अपने देश में ऐसी पहल विरले ही दिखती है। इसके लिए कानून तो दूर-दूर तक नहीं दिखते। तभी उन देशों से किन्हीं तुलसियों के किस्से शायद ही कभी आते हैं। अपने यहां इलाके बदल-बदल कर ऐसी कहानियां बार-बार दोहराई जाती हैं। राहुल मनरेगा में भूख और मुफलिसी के ऐसे हालात का समाधान देखते हैं। मायावती पर केंद्र के इस रामबाण इलाज में भ्रष्टाचार के रोड़े अटकाने का आरोप लगता है। सच तो ये है कि तिहत्तर साल के बुजुर्ग तुलसी का उद्धार शायद न मनरेगा में काम मिलने से हो सकता था और न ही उस योजना तक उसकी सुगम पहुंच सुनिश्चित कर राज्य की सरकार तुलसी की मौत टाल सकती थी। तुलसी बच सकता था, तो बड़े मुद्दों पर व्यापक राष्ट्रीय सहमति से। सिस्टम के स्वस्थ रहने से। लेकिन तुलसी जैसों को इस देश में बड़ा मुद्दा मानता भी कौन है? स्वस्थ सिस्टम की पैरोकारी करने में तो खैर कइयों को अपने लिए सियासी खुदकुशी ही नजर आती है।


लेखक अश्विनी कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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