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नए संघर्ष की शुरुआत का समय

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश के चुनावों को राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई छेड़ने के एक अवसर के रूप में देख रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य


उत्तार प्रदेश की जनता को लुभाने के लिए इस समय घमासान मचा हुआ है। सभी राजनीतिक दलों के नेता दौरे कर रहे हैं। दरअसल उत्तार प्रदेश में 2012 के विधानसभा चुनाव को 2014 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। यह धारणा है कि काग्रेस और भाजपा में जो भी पार्टी उत्तार प्रदेश में आगे रहेगी वही 2014 में केंद्र की अगली सरकार बनाएगी। राज्य में दोनों ही दल फिलहाल तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। अनेक अन्य दल भी चुनावी दंगल में उतरने को बेकरार हो रहे हैं। कुछ का अनुमान है कि तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक की तरह कहीं उत्तार प्रदेश में भी बदलाव समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तक सिमट न जाए। 2007 में मुलायम सिह के शासन से निजात पाने के लिए विकल्पस्वरूप बसपा को बहुमत मिला था। अपने पाच वर्षो के कार्यकाल में मायावती से दलित भले ही पूरी तरह निराश न हुए हों, लेकिन जिन गैर-दलित मतदाताओं के कारण मायावती को सत्ता मिली थी वे अब उनसे पूरी तरह विमुख हो चुके हैं। सत्ता पाने के लिए मायावती ने भ्रष्ट मुलायम सिह सरकार के लोगों को जेल में डालने का वायदा किया था, लेकिन भ्रष्टाचार के घेरे में अपने आठ मत्रियों को उन्हें हटाने के लिए विवश होना पड़ा। इसके अलावा बसपा के कई विधायक विभिन्न आपराधिक मामलों में या तो जेल में हैं या उनके खिलाफ छानबीन जारी है। जहा तक मुलायम सिह का सवाल है, उन्होंने दायित्व अपने बेटे के कंधे पर डाल दिया है।


भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने दावा किया है कि पार्टी को 125 से 135 स्थान मिलने की सभावना है। पार्टी को अन्ना हजारे और बाबा रामदेव द्वारा तैयार किए जा रहे माहौल से काफी उम्मीद है। कुल मिलाकर भाजपा स्वय के आकर्षण से मतदाताओं को लुभाने में अभी तक समर्थ नहीं है। काग्रेस की स्थिति सबसे विचित्र है। उसे केवल राहुल गाधी के आकर्षण पर भरोसा है। राहुल गाधी की अब तक उत्तार प्रदेश में एक भी बड़ी सभा नहीं हुई है। इसलिए कुछ गावों में सीमित लोगों के साथ चौपाल ही उनके लिए जनसपर्क का आधार बना हुआ है। अन्य नेता प्रेसवार्ता के जरिए अथवा अपने उल्टे-सीधे बयानों के जरिए माहौल बना रहे हैं। काग्रेस का दुर्भाग्य यह है कि वह राहुल गाधी की चमक से लोगों को चकाचौंध करने के अभियान में केंद्र सरकार के प्रति लोगों की खराब होती धारणा और अपने कुछ लोगों की अभिव्यक्तियों से यदि एक कदम आगे बढ़ती है तो चार कदम पीछे चली जाती है। कौन पार्टी अथवा राजनेता किसके बारे में क्या कह रहा है, यदि इसके ब्यौरे में जाया जाए तो बहुत विशाल ग्रंथ तैयार हो सकता है। अभी तक ऐसी अभिव्यक्तियों के लिए दिग्विजय सिह ही दिग्विजयी होने के एकमात्र अधिकार प्राप्त व्यक्ति थे, लेकिन जाने-अनजाने राहुल गाधी भी उसमें शामिल हो गए।


पिछले दिनों जब वह पूर्वी उत्तार प्रदेश के दौरे पर थे तो एक गाव में उन्होंने कहा कि मुझे मायावती सरकार के कार्यकलापों पर बहुत गुस्सा आता है, क्या आपको भी गुस्सा आता है? यह बात उन्होंने उस दिन कही जिस दिन आधी रात को पेट्रोल का मूल्य 11वीं बार बढ़ाया गया। सबेरे से उनसे सवाल होने लगे कि हम महंगाई से त्रस्त हैं, क्रोधित हैं तो क्या आपको भी हमारे समान ही गुस्सा आता है? इसका जवाब देना उनके लिए सभव नहीं है-ठीक उसी तरह जैसे राजनीति करने वालों को सभी लोगों के लिए नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीतिक मार्ग छोड़ देने के सबध में उत्तार दे पाना सभव नहीं होता। इससे अधिक महत्वपूर्ण उनकी दूसरी बात है, जो हमें देश की राजनीतिक धुरी समझने में मदद करती है। जनलोकपाल बिल आदि की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि यह विधेयक पारित हो गया तो कोई भी महज सौ करोड़ रुपया खर्चकर प्रधानमत्री को फंसा सकता है। इस कथन में प्रधानमत्री को फंसा देने की बात से अधिक महत्वपूर्ण है उनका महज सौ करोड़ रुपये का कथन। आश्चर्य है कि जिस देश के शासकीय अर्थशास्त्री यह आकलन पेश करते हों कि अगर कोई शहरी व्यक्ति एक दिन में 32 रुपये और ग्रामीण व्यक्ति 26 रुपये खर्च करने की क्षमता रखता हो तो उसे गरीब नहीं माना जा सकता वहा का राजनीतिक व्यक्ति सौ करोड़ को ‘महज’ ही समझने की स्थिति में है। उनके लिए सौ करोड़ सौ-पाच सौ रुपये के समान सिर्फ ‘महज’ भर है। सभव है कि राहुल गाधी के मुंह से 100 करोड़ के लिए ‘महज’ शब्द सोच-समझकर न निकला हो, लेकिन यह सकेत तो अवश्य मिलता है कि राजनीति पर धन का प्रभाव क्या है? और ऐसा हो भी क्यों नहीं। जब सरकार के एक ही विभाग में किसी एक मामले में लगभग पौने दो लाख करोड़ रुपये का घपला सामने आता है तो तो 100 करोड़ ‘महज’ लगना स्वाभाविक है। राजनीति पर धन का बोझ बढ़ता जा रहा है। इस बोझ को कम करने के प्रत्येक उपाय विफल बनाते हुए राजनीति करने वाले उसे और भी बोझिल बना देते हैं।


भ्रष्टाचार के मूल में नैतिकताविहीन इस राजनीतिक आचरण का आग्रह मुख्य कारण है। विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में व्यय पर अंकुश लगाने का प्रयास मतदाताओं को नगद धन देने के रूप में सामने आ रहा है। शायद यही कारण है कि राहुल गाधी द्वारा 100 करोड़ को ‘महज’ कहना किसी को अस्वाभाविक नहीं लगा। हमारे आचरण को दूषित कर देश को खोखला करने के जितने जाने-अनजाने प्रयास हो रहे हैं उसमें चुनावी भ्रष्टाचार का हावी होते जाना बहुत घातक है। उत्तार प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। यहा के चुनाव को 2014 के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है इसलिए चुनावी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष की ठोस शुरुआत उत्तार प्रदेश से ही की जानी चाहिए। निर्वाचन आयोग के लिए भी यह बड़ी चुनौती है।


लेखक राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं


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