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प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन लिमिटेड वनाम राजेश कुमार मामले में उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने सरकारी सेवाओं में प्रोन्नति में आरक्षण को अवैध ठहरा दिया। इससे देश की राजनीति गरमा गई है और मायावती ने संविधान में संशोधन की मांग की है, जिसका समर्थन लगभग सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं। दिसंबर 2008 में तत्कालीन मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक वरीयता नियम, 1991 की धारा 8-क के तहत अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण का आदेश जारी किया। सामान्य वर्ग के कर्मचारियों ने इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जनवरी 2011 में इस आदेश को असंवैधानिक करार दिया, जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ही एक अन्य पीठ ने इसे वैध ठहराया। उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ पीठ के फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिस पर न्यायालय ने यह फैसला दिया। अदालत ने कहा है कि एम. नागराज मामले में दी गई व्यवस्था के अनुसार प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए तीन शर्ते पूरी करनी जरूरी हैं। इसके लिए पिछडे़पन के प्रामाणिक आंकडे़ होने चाहिए, जिससे यह पता चले कि किन वर्गो में कितना पिछड़ापन है, उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त होना चाहिए तथा प्रोन्नति का सेवा का कार्यकुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
 
 
दरअसल, प्रोन्नति में आरक्षण को लेकर विवाद बहुत पुराना है। 1962 में जनरल मैनेजर, सदर्न रेलवे वनाम सी. रंगाचारी में उच्चतम न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण को संविधान-सम्मत माना था, परंतु 1993 में मंडल इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने इसे अवैध माना। अदालत के इस निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए 77वां संविधान संशोधन कर संविधान के अनुच्छेद 16 में उपधारा 4ए जोड़ी गई ताकि प्रोन्नति में आरक्षण दिया जा सके। इसके बाद एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण के आधार पर पदोन्नति मिल जाने के बाद भी लाभार्थी को परिणामी वरीयता प्राप्त नहीं होगी और जब उससे वरिष्ठ कर्मचारी/अधिकारी बाद में प्रोन्नति पाकर उस पद पर आएगा तो उसकी पुरानी वरीयता बनी रहेगी। इन निर्णयों को पुन: निष्प्रभावी करने के लिए 85वां संविधान संशोधन किया गया, जिसके द्वारा 16 (4बी) जोड़ कर स्पष्ट किया गया कि पदोन्नति पाने वाले को परिणामी वरीयता भी दी जाएगी। इस संशोधन को एम. नागराज मामले में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई।
 
 
 अदालत ने संशोधन को संविधान-सम्मत ठहराया, किंतु ये शर्ते जोड़ दीं कि पिछडे़पन को साबित करने के लिए विश्वसनीय आंकड़े हों, उसका प्रतिनिधित्व पर्याप्त न हो और सेवा की कार्यकुशलता पर उसका कोई विपरीत प्रभाव न हो। इस निर्णय के बाद प्रोन्नति में आरक्षण देने के अनेक मामलों को विभिन्न उच्च न्यायालयों में चुनौती दी गई और कई आरक्षण देने वाले प्रावधान निरस्त भी किए गए। यूपी पावर कारपोरेशन लिमिटेड के निर्णय के पहले 2011 में भी सूरजभान मीना वनाम राजस्थान में उच्चतम न्यायालय ने ऐसा ही फैसला सुनाया था। अब विभिन्न दलों की ओर से मांग की जा रही है कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में संशोधन कर पर्याप्त प्रतिनिधित्व की शर्त को हटा दिया जाए। अगर ऐसा होता है और जिसकी पूरी संभावना है तो फिर उस संशोधन को अदालत में चुनौती दी जाएगी, क्योंकि आरक्षण का एक प्रमुख आधार ही यही है कि किसी वर्ग का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। पिछड़ेपन की पहचान के लिए संविधान में सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन की बात कही गई है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि यह सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ापन नहीं है, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है।
 
 
 उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है कि वह उच्चतम न्यायालय के निर्णय को लागू करेगी। सपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने भी स्पष्ट कहा कि उनका दल प्रोन्नति में आरक्षण के खिलाफ है। आरक्षण को लेकर अक्सर राजनीतिक बवंडर होता रहता है। वर्गो एवं वर्णो में बंटे समाज की यही त्रासदी है। 1932 के पूना पैक्ट के बाद मदन मोहन मालवीय ने कहा था कि वह पूरे देश में घूमकर 25 लाख रुपये एकत्र करेंगे और अस्पृश्यता का जड़मूल से नाश करेंगे। महात्मा गांधी ने हजारों मीलों की यात्रा इसलिए की थी ताकि समाज से अस्पृश्यता दूर की जा सके। समाज में फर्क आया है, किंतु और भी फर्क लाने की जरूरत है।
 
 
विचारणीय यह है कि क्या उसका जरिया केवल आरक्षण है? आज ऐसे कई दलित एवं पिछडे़ तबके के बच्चे हैं जो सरकारी सेवाओं में न जाकर ऊंचे वेतन पर निजी क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के बल पर नौकरी प्राप्त कर रहे हैं। अनुसूचित जाति वर्ग के ऐसे कई उद्यमी हैं जो 100 करोड़ रुपये सालाना आयकर दे रहे हैं। यह पक्का है कि विषमता से भरे समाज में योग्यता एक विवादास्पद शब्द है। समान शिक्षा व्यवस्था नहीं होने के कारण गरीब तबके के बच्चे विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। धनाढ्य अपने बच्चों का दाखिला मोटी कैपिटेशन फीस देकर मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों में करवा लेते हैं। इसलिए आवश्यकता है समान शिक्षा व्यवस्था लागू करने की, परंतु यह एक भावनात्क मुद्दा नहीं है, इसलिए इस पर आरक्षण जैसी राजनीतिक गर्मी पैदा नहीं होती है। आरक्षण पिछडे़ वर्गो को ऊपर उठाने का जरिया होना चाहिए, समाज को बांटने का नहीं। विकास की दौड़ में पीछे रह गए वर्गो को आरक्षण या संरक्षण देने की जरूरत है, परंतु इसकी राजनीति नहीं होनी चाहिए।
 
 
 लेखक सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं
 
 
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