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पिछले दिनों तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले के न्यायाधीश ने एक ऐसा फैसला सुनाया जो कई मायने में ऐतिहासिक था। फैसले के तहत 215 सरकारी अधिकारियों को दोषी पाकर सजा सुनाई गई जो अपने आप में भारत के इतिहास में एक कीर्तिमान है। यह अधिकारी पुलिस, वन और राजस्व विभाग के थे। 19 साल पुराने इस मुकदमे में कुल 269 अधिकारियों के खिलाफ चार्ज-शीट दर्ज की गई थी, लेकिन उनमें से 54 इस लंबे दौर में गुजर चुके थे। इन अधिकारियों के खिलाफ आदिवासी महिलाओं के साथ दुष्कर्म करने, उनको यंत्रणा का शिकार बनाने, उन पर हमले करने आदि के आरोप थे। जिला न्यायाधीश ने यह सारे आरोप सही पाते हुए आरोपियों को एक से लेकर दस साल की सजा सुनाई। इस फैसले के साथ गरीब और बेसहारा लोगों के बहादुराना और धैर्यवान संघर्ष की लंबी दास्तान का अंत हुआ और उन लोगों की जीत हुई जिनके बारे में कहा जाता है कि वह बलवानों के खिलाफ कभी जीत ही नहीं सकते हैं।
धर्मपुरी जिले का बहुत ही छोटा सा गांव है-वाचाती। इस गांव तक पहुंचना भी मुश्किल है। 1992 में इस गांव में सिर्फ 655 लोग रहते थे, जिनमें से 643 आदिवासी थे। इनमें से कुल 190 लोगों के पास जमीन थी। बाकी सब आस-पास के गांवों में मजदूरी करते थे। इसके अलावा वे जंगल से जड़ी-बूटियां और लकड़ी भी बटोरते थे। 20 जून, 1992 को इस छोटी आबादी के गांव पर 269 वन, पुलिस और राजस्व विभाग के अधिकारियों ने धावा बोला। उनका आरोप था कि गांव वालों ने चंदन की लकड़ी गांव के पास छिपाई है। उनके अनुसार, उन्होंने कुछ दिन के बाद पास की नदी की रेत से 62.7 टन चंदन की लकड़ी बरामद की। गांव वालों के पास न तो लकड़ी को काटने के औजार थे और न उसे पहाड़ियों से नदी तक पहुंचाने की सामग्री, लेकिन फिर भी उन्हें तीन दिन तक सरकारी अमले की बर्बरता झेलनी पड़ी। उनके घर लूटे गए और फिर तोड़े गए, उनके जानवर मार डाले गए, उनके साथ हर तरह की हिंसा जिसमें यौन हिंसा भी शामिल थी, की गई। 18 लड़कियों और औरतों के साथ दुष्कर्म किया गया। इसके बाद 76 औरतों और 15 पुरुषों को जेल भेज दिया गया। पूरे गांव में सन्नाटा छा गया। तमाम घटनाओं की तरह यह घटना भी गरीबों के भाग्य की झोली में हमेशा के लिए छिप जाती अगर संयोग से तमिलनाडु आदिवासी संगठन के मंत्री घटनाक्रम के तीन हफ्ते बाद वाचाती के पड़ोस के इलाके में बैठक करने न आते। इलाके के भयभीत लोगों से वाचाती की रोंगटे खड़े कर देने वाली बातें सुनने के बाद उन्होंने पूरी रिपोर्ट माकपा के राज्य सचिव को दी, जिन्होंने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को पत्र द्वारा सारी जानकारी देने के साथ-साथ उसकी न्यायिक जांच और पीड़ित लोगों के लिए उचित मुआवजे की मांग की। इसके बाद करीब 20 साल लंबे संघर्ष की दास्तान शुरू हो जाती है। मुख्यमंत्री तक पत्र पहुंचा, लेकिन राज्य सरकार ने घटना के घटने से ही इंकार कर दिया।
अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ने घटना की जांच करने के लिए वाचाती से भागे हुए गांव वालों को ढूंढकर उनसे बात की और अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस रिपोर्ट पर किसी ने गौर नहीं किया। फिर मद्रास उच्च न्यायालय में तमिलनाडु आदिवासी संगठन की तरफ से जनहित याचिका दायर की गई और जब इससे भी कुछ नहीं हुआ तो फिर माकपा के राज्य सचिव ने सर्वोच्च न्यायालय से जांच और मुआवजे का अनुरोध किया। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका राज्य के उच्च न्यायालय के पास कार्यवाही के लिए भेज दी। इसके बाद वाचाती के आदिवासियों का मुकदमा तमिलनाडु के उच्च न्यायालय और धर्मपुरी के जिला न्यायालय के बीच झूलता रहा। अगर न्यायालय से आदेश भी पारित किया जाता तो उसे भी ताक पर रख दिया जाता। अंततोगत्वा मामले को 1995 में सीबीआइ के सिपुर्द कर दिया गया। न्यायालय और सीबीआइ ने अपना काम बड़ी पारदर्शिता से निभाया। वाचाती के आदिवासियों की इस दास्तान की बड़ी अहमियत और प्रासंगिकता है। अगर इसमें असत्य पर सत्य की विजय की झलक मिलती है तो इस बात का भी पता चलता है कि उस विजय को प्राप्त करना गरीबों के लिए करीब-करीब असंभव भी है। हमारे देश में आज भी एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो जंगलों और पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इनमें विभिन्न तरह के आदिवासी रहते हैं। उनकी बदकिस्मती यह है कि सर्वहारा होने के बावजूद वह असीम और अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों के इलाकों में बसर करते हैं। उनको इस अपार धन से न वास्ता है, न उस पर अधिकार जमाने का उनकी कोई मंशा है। उनका वास्ता तो उन जंगलों की कम कीमती संपदा से है-लकड़ी, शहद, जड़ी-बूटी, जानवर। आदिवासियों के जीवन को नर्क बनाने के लिए माओवादियों की घुसपैठ भी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। शुरू में जब उनका प्रवेश इस इलाके में हुआ था तो उन्होंने आदिवासियों का दिल जीतने के लिए कुछ काम भी किए थे, लेकिन अब स्थिति बहुत बदल गई है। अब आदिवासी जनता माओवादियों और सुरक्षा बलों की हिंसात्मक कार्यवाहियों के बीच फंस गई है।
19 साल पहले वाचाती में हुए अत्याचार और कुछ ही दिन पहले आए धर्मपुरी जिला न्यायालय के फैसले से कई सबक मिलते हैं। सबसे बड़ा सबक तो यह है कि आदिवासियों के लिए न्याय और विकास का रास्ता एक ही है-एकजुटता और सही राजनीतिक समझ वालों का साथ। आज तमिलनाडु में पंचायत चुनावों का अभियान शुरू हो गया है। वाचाती गांव में सरपंच के पद के लिए उन 18 महिलाओं में से एक खड़ी है जिन्हें 19 साल पहले पुलिस, वन और राजस्व विभाग के अधिकारियों द्वारा सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनाया था। उनकी जीत इस देश की समस्त आदिवासी जनता की जीत का प्रतीक होगी।
लेखिका सुभाषिनी अली सहगल लोकसभा की पूर्व सदस्य हैं
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